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क्या कोरोना के साये में निपट जाएंगे अखबार ?

क्या कोरोना के साये में निपट जाएंगे अखबार ?

कोलकाता में जनसत्ता के संपादक रहे शंभूनाथ शुक्ल की यह टिप्पणी बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है.

नई दिल्ली. कोरोना का भय अब मीडिया पर भी छाने लगा है. आज ही मेरे हाकर ने कहा है, कि बस अब कल से अखबार नहीं आएगा. जो दो अख़बार आज आए हैं, उनमें से अमर उजाला कुल दस पेज का है, और छह पेज का सिटी पूल आउट. इसी तरह हिंदुस्तान टाइम्स में मात्र 14 पेज हैं और चार पेज का सिटी. इन दोनों ही अखबारों में कोई कॉमर्शियल विज्ञापन नहीं है. यही हाल है टाइम्स ऑफ़ इंडिया का है. वह भी कुल 14+4 पेज का ही है. कोई विज्ञापन नहीं. अलबत्ता मथुरा की जीएलए यूनिवर्सिटी का एक विज्ञापन लगा है, वह शायद पहले से शेड्यूल होगा.

दैनिक जागरण भी पूल आउट समेत 18 पेज का है, और कोई भी कॉमर्शियल विज्ञापन नहीं है. इन्डियन एक्सप्रेस आज हाकर ने दिया नहीं. और वैसे भी उसकी हालत सदा पतली ही रही है. न तो वह सेल में कभी ऊपर गया, न विज्ञापन में और न ही एडिटोरियल मटीरियल में कभी वह हिंदू को पछाड़ पाया. अब देखिए ये वही अखबार हैं, जो अपनी सेल के लिए ज़मीन-आसमान एक करते थे, और विज्ञापन के लिए तीन-तीन, चार-चार पेज के कवर देते थे. नवरात्रि के बम्पर सेल के मौके पर अखबारों का यह रूप बता रहा है, कि कोरोना तो कल चला जाएगा, लेकिन शायद प्रिंट मीडिया को मिटा देगा.

यह कोई क़यास नहीं, वरन हकीकत है. भारत में भी प्रिंट मीडिया ने अमेरिकी अखबारों की तरह शोशेबाज़ी अधिक की, पा तो खूब बढ़ा दी, लेकिन अपने एडिटोरियल मटीरियल को सुधारने पर कभी जोर नहीं दिया. हिंदी अखबारों का तो खैर ख़ुदा मालिक है, दिल्ली और नॉर्थ में अंग्रेजी अखबारों ने कभी भी आरएंडडी विभाग बनाने की सोची नहीं. विभाग बनाने का मतलब कोई एक आर्काइव बनाना नहीं होता. बल्कि शोध के लिए बाकायदा एक संपादकीय टीम काम करती. एक संपादक होता और कुछ उसके सहयोगी. यह काम कुछ हद तक हिंदू ने शुरू किया था, पर उसकी हालत स्वयं खस्ता है. तब ऐसी स्थिति में अखबार अपरिहार्य क्यों?

लेकिन अखबार तो भारत में फिर भी 200 साल चल गए, इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो 20 साल में ही दम तोड़ दिया. क्योंकि सबको पता है, कि टीवी न्यूज़ चैनल किसी एक घटना, दुर्घटना और हादसे को भुनाने के प्रयास में रहते हैं. अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए वे अजीबो-गरीब करतब करते रहते हैं. फालतू की डिबेट कराते हैं. पत्रकार भी अक्सर वहां किसी न किसी दल के प्रवक्ता की तरह बैठते हैं. लेकिन अब कोरोना के भय से उनकी डिबेट्स ठंडी पड़ने लगी हैं. क्योंकि इन डिबेट्स के सहभागी लोग अब स्टूडियो जाते ही नहीं. साथ में यह भी कह दिया है, कि आप किसी को भी घर में रिकार्डिंग के लिए न भेजें. अब दिक्कत यह है, कि कोई दिखाने लायक मसाला उनके पास है नहीं और दर्शकों की रुचियाँ उन्होंने स्वयं नष्ट कर डाली हैं. क्या यह मजेदार नहीं, कि एबीपी और आज तक जैसे न्यूज़ चैनल सास, बहू और साज़िश टाइप मनोरंजन सीरियल्स दिखाते हैं अथवा डरावनी कहानियां. बिना एडिटोरियल मटीरियल को लाए यही हश्र होना था.

अब यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है, कि क्या मेन स्ट्रीम मीडिया के दिन समाप्त हो गए? और बस सोशल मीडिया का ही भविष्य है. जिसमें जा रही सामग्री का कोई खेवनहार नहीं है. यह सामग्री सच है या झूठ, यह भी किसी को नहीं पता. लेकिन जो स्थितियां बन रही हैं, उनमें यही दीखता है. क्योंकि दस वर्ष पहले तक जो पाठक टॉयलेट जाते समय अखबार ले जाया करते थे, वे अब मोबाइल ले जाते हैं. वे अपने मोबाइल पर ही सोशल मीडिया में चल रही सामग्री देखा करते हैं. लेकिन न तो इसमें चल रही ख़बरों में सच्चाई होती है, न कोई तथ्य. भाषा और व्याकरण की गलतियां तो होती ही हैं, इन्हें आदमी अपनी सनक पर लिखता है. यह एक समाज के निरंतर गिरते जाने का संकेत है. इस मीडिया में भ्रामक ख़बरों को चला कर उन्हें उड़ा दिया जाता है, इसलिए ऐसी हरकत करने वाले पर भी कोई अंकुश नहीं लग पाता.

लेकिन एक उम्मीद की किरण है, वह है ई-पेपर और ऑन लाइन मीडिया यानी वेबसाइट्स. सारे बड़े अखबारों के पास अपने रिपोर्टरों और स्ट्रिंगरों का नेटवर्क है. दूर-दराज गाँवों, कस्बों और शहरों में फैले ये स्ट्रिंगर लोगों के साथ सीधे जुड़े हैं. इसलिए उनके पास पुख्ता स्रोत हैं. और अब लोगों के पास न अखबार बांचने की फुर्सत है, न टीवी पर रुक कर न्यूज़ देखने की. ऑन लाइन मीडिया यह सुविधा अपने पाठकों और दर्शकों को देती है, कि वह किसी भी वक़्त स्क्रोल करते हुए ख़बरों से रू-ब-रू रहे. सारे न्यूज़ पोर्टल के पास संपादक भी होता है और उस पर पीआरबी के अधिनियम भी लागू होते हैं. अर्थात गलत खबर देने पर वह फौजदारी क़ानून के दायरे में आ जाएगा. एक तरह से कहा जा सकता है, कि भविष्य अब ऑन लाइन मीडिया है. लेकिन सरकार को उसके रजिस्ट्रेशन और वहाँ के संपादकीय स्टाफ के लिए कुछ क़ानून बनाने होंगे. साथ-साथ उनके लिए रेवेन्यू का इंतजाम भी सरकार को करना होगा डीएवीपी के दायरे में उसे लाना होगा. तब ही भारत में मीडिया का भविष्य रहेगा. और भविष्य का मीडिया भी रहेगा.

 

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