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बस्तर की बेशकीमती सागौन की लकड़ी को लेकर पत्रकार और वन अफसर आमने-सामने

बस्तर की बेशकीमती सागौन की लकड़ी को लेकर पत्रकार और वन अफसर आमने-सामने

रायपुर. बस्तर के किसी पत्रकार ( दो-चार को छोड़कर ) से पूछो कि क्या वह रायपुर या देश के किसी बड़े मीडिया संस्थान में काम करने का इच्छुक है तो कहेगा- क्यों नहीं...? मगर बस्तर से बाहर नहीं जाऊंगा. बस्तर में रहकर ही अपनी सेवाएं दूंगा. इस बात में कितनी सच्चाई है यह तो नहीं मालूम, लेकिन कहते हैं कि जो पत्रकार एक बार बस्तर जाकर बस गया...वह फिर दोबारा कहीं और काम नहीं करना चाहता. अब यह बस्तर की माटी का खिंचाव है या कुछ और...शोध का विषय है. कमोबेश यही स्थिति नौकरशाहों की भी है. बस्तर को माओवाद प्रभावित और काला पानी-काला पानी कहकर प्रचारित करने वाले अफसर अव्वल तो बस्तर जाना नहीं चाहते, लेकिन जब चले जाते हैं तो फिर लौटना नहीं चाहते. उन्हें भी बस्तर की माटी से प्रेम हो जाता है या फिर आय के साधनों में बढ़ोतरी हो जाती है...इस पर भी जांच करने की आवश्यकता है.

पता नहीं इस खबर में ऊपर लिखे गए इंट्रो का क्या महत्व है, मगर कभी-कभी ऐसा लगता है बस्तर के संसाधनों पर कौन-कौन नजरें गड़ाए बैठा है इस पर तथ्यपरक ढंग से अन्वेषण होना चाहिए. बहरहाल यह खबर एक पत्रकार और एक वन अफसर की भिंडत से संबंधित है. बस्तर के पत्रकार नरेश कुशवाह ने जगदलपुर में पदस्थ वन अफसर आरके  जांगड़े पर गंभीर आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री, वनमंत्री, मुख्य सचिव और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को शिकायत भेजी है. पत्रकार का आरोप है कि जांगड़े ने धमतरी के ठेकेदार गिरधारी लाल के साथ मिलकर सागौन लकड़ी की नीलामी में अफरा-तफरी की है. पत्रकार ने अपनी शिकायत में कहा है कि 2 जून 2018 को सागौन की लकड़ियों की नीलामी हुई थीं. ठेकेदार ने सार्वजनिक तौर पर दस लाख छह सौ रुपए की बोली लगाई थीं, लेकिन बीडशीट में सात लाख छह सौ रुपए दर्शाकर ठेकेदार को लाभ दे दिया गया. पत्रकार कुशवाह का कहना है कि नीलामी के दौरान वनोपज व्यापार के तहत शासकीय मुद्रणालय से मुद्रित और वन विभाग से सत्यापित बीडशीट का उपयोग ही किया जा सकता है, लेकिन वनमंडलाधिकारी जांगड़े ने कम्प्युटर से बीडशीट निकाली और उसका उपयोग किया. इस तरह की बीडशीट कभी भी बदली जा सकती है. कुशवाह का यह भी आरोप है कि किसी भी नीलामी के दौरान अंतिम बोली लगाने वाले को सात दिनों के भीतर बोली गई राशि का 25 फीसदी जमा करना होता है. यदि बोलीदार यह राशि जमा नहीं करता है तो बोली निरस्त कर दी जाती है, लेकिन जांगड़े ने ऐसा नहीं किया और राशि जमा करने से पहले ही 30 जून 2018 को लकड़ी उठाने की स्वीकृति प्रदान कर दी. जब रायपुर टिंबर मर्चेंट एसोसिएशन ने इस बारे में प्रधान मुख्य वन संरक्षक को शिकायत भेजी तब मामले की लीपापोती चालू की गई. पत्रकार ने दावा किया कि ठेकेदार से बैक डेट पर चेक भी लिया गया, लेकिन बैंक में चालान जमा करने की तारीख कुछ और है.

इधर वनमंडलाधिकारी जांगड़े का कहना है कि कुशवाह को पत्रकारिता का काम करना चाहिए था, लेकिन वे किसी भारत टिंबर के जरिए खुद ही लकड़ी की खरीददारी के खेल में लगे थे. यह सही है कि लिपिक की त्रुटि के चलते कागजों में राशि गलत अंकित हो गई थीं, लेकिन जैसे ही यह जानकारी मिली उसे सुधार लिया गया. ठेकेदार को किसी भी तरह का कोई लाभ नहीं दिया गया है. ठेकेदार ने नीलामी में जो बोली लगाई थी उसी आधार पर पैसा लिया गया है. जांगड़े ने अपना मोर्चा डॉट कॉम को बताया कि कुशवाह ने इस मामले की शिकायत कई जगह कर रखी है. हर तरफ से जांच हो रही है मगर किसी को कुछ भी नहीं मिल रहा है क्योंकि वे गलत नहीं है.

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