देश

गुम गया है तोता... खोज़ कर लाने वाले को मिलेगा 11 हजार का ईनाम

रायपुर. रायपुर के विकास विहार कालोनी में निवासरत घनश्याम विश्वकर्मा का पालतू तोता गुम गया है. इस तोते को खोज़कर लाने वाले को उन्होंने 11 हजार रुपए का ईनाम देने की घोषणा की है.इसके लिए उनकी तरफ से अखबारों में बकायदा विज्ञापन भी दिया गया है. जमीन के नामान्तरण, टेंडर, वर-वधु चाहिए... मकान बेचना है. मकान किराए से देना है...जैसी नीरस सूचनाओं के बीच यह छोटा सा विज्ञापन बरबस ध्यान खींचता है और यह सोचने के लिए मजबूर भी करता है कि किसी मनुष्य का एक पक्षी से कितना गहरा लगाव हो सकता है. विज्ञापन में दिए गए दूरभाष नंबर पर जब बात की तो घनश्याम विश्वकर्मा ने बताया कि गुम हो चुके तोते को वे फाफाडीह के बाज़ार से तब लेकर आए थे जब उनके बच्चे बेहद छोटे थे. बच्चों ने जिद की थीं कि उन्हें खिलौना चाहिए. बच्चों की जिद के बाद उन्होंने सोचा कि वे बच्चों को कृत्रिम खिलौना नहीं देंगे.वे तोता ले आए और उसे पूरे घर पर विचरण करने के लिए खुला छोड़ दिया. तोता बहुत जल्द ही परिवार के सभी सदस्यों से घुल-मिल गया. सामान्य तौर पर सभी तोते सीटी बजाते हैं तो यह तोता भी बजाता था, लेकिन इस तोते की एक खास बात यह थीं कि वह घर के सभी सदस्यों को उसके नाम से जानता था और पुकार लगाता था. इतना ही नहीं वह सबको सही समय पर भोजन करने की हिदायत देता था. खुद डायनिंग टेबल पर बैठकर इसकी निगरानी भी करता था. तोता कैसे गुम गया... पूछने पर घनश्याम विश्वकर्मा ने बताया कि उनके घर पर मरम्मत का काम चल रहा है. किसी काम करने वाले ने कोई सामान जोर से पटका और तोता डरकर कहीं उड़ गया. अब उड़कर कहां गया यह नहीं मालूम. 18 साल पुराने तोते को यह तो नहीं मालूम होगा कि वह किस जाति का है? लेकिन घनश्याम विश्वकर्मा ने जाति व्यवस्था का सम्मान करते हुए विज्ञापन में बकायदा तोते की जाति का भी उल्लेख भी किया है. पूरी दुनिया में 393 प्रकार के तोते पाए जाते हैं. तोते की एक प्रजाति पहाड़ी भी होती है. पहाड़ी तोते की उड़ान नीची और लहरदार होती है और वह मोहब्बत करने और मोहब्बत लुटाने पर यकीन करता है. सामान्य तौर पर हर आदमी के हाथ से तोते उड़े हुए होते हैं... अगर कभी कोई उड़ा हुआ तोता आपकी बालकनी या आपके घर के पेड़ पर आकर बैठ जाय तो उसे लौटा दीजिएगा.अगर तोता हीरामन हुआ तो आपको हरियाली देकर जाएगा. सवाल यह भी है कि आप किसे लौटाएंगे? हर आदमी घनश्याम विश्वकर्मा तो नहीं हो सकता जो विज्ञापन छपवाएगा.

विशेष टिप्पणी

भूपेश बघेल की कार्यशैली से छत्तीसगढ़ के नारंगी पत्रकारों के पेट में उठा दर्द

जनता को दी जाने वाली राहत से परेशान है छत्तीसगढ़ के नारंगी पत्रकार

छत्तीसगढ़ के नारंगी पत्रकार ( थोड़े-बहुत कथित बुद्धिजीवी भी ) इस बात से परेशान चल रहे हैं कि भूपेश बघेल अपनी सभाओं में जनता को फौरी राहत देने की बात क्यों करते हैं ? नारंगी पत्रकार राहत को रेवड़ी तो नहीं कहते… लेकिन अपनी खबरों और इधर-उधर के प्रचार में यह जरूर कहते हैं कि जनता को मुफ्तखोरी की आदत से बचाना राजनीति का धर्म होना चाहिए. नारंगी पत्रकारों और कथित बुद्धिजीवियों का पका-पकाया यह भी तर्क है कि जो कुछ भी फ्री में वितरित होता है उसका पैसा हमारे आपके टैक्स से ही वसूला जाता है.

नारंगी पत्रकार जनता को भूखमरी और गरीबी में लिथड़ी जनता बनाए रखने के पक्ष में दिखाई देते हैं और चाहते हैं कि लंबा राजनीतिक विमर्श चलता रहे. विमर्श के लिए स्वयंसेवी संस्थाएं कार्यशालाएं आयोजित करती रहे. कार्यशाला का खर्च…सरकार के किसी विभाग से वसूला जाता रहे और फिर तरह- तरह के पकवान वाले सत्रों के बीच इस बात पर मंथन चलता रहे कि जनता मुफ्तखोर क्यों है?

नारंगी पत्रकारों को कांग्रेस की राहत में तो मुफ्तखोरी दिखाई देती है, लेकिन वे कभी इस बात पर चर्चा नहीं करते कि अस्सी करोड़ जनता को फ्री में राशन देने का ऐलान करने वाली मोदी सरकार कौन सा तीर मार रही है? छत्तीसगढ़ में बड़े-बड़े विज्ञापनों के जरिए जारी की गई मोदी की गांरटी को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए ? राहत को रेवड़ी कल्चर बताने वाली मोदी सरकार क्या हर मतदाता को पनीर-चिल्ली या चिकन टिक्के का वितरण करने जा रही है ?

खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी बताने वाले नारंगी गैंग ने जनता को कभी यह नहीं बताया कि जिस अखबार समूह या चैनल से वे जुड़े हुए हैं उसके मालिकों ने चुनाव में राजनीतिक दलों से किस तरह का पैकेज वसूला है ? छत्तीसगढ़ की जनता को कभी यह तो बताना ही चाहिए कि मीडिया के मालिक और विज्ञापन प्रबंधक किस तरह से लैपटाप लेकर राजनीतिक दलों के पास जाते हैं और यह बताते हैं कि देखिए… हम आपका प्रचार इस भयानक तरीके से करने वाले है कि सामने वाला चित्त हो जाएगा. सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ की मीडिया को दिया जाने वाला विज्ञापन ही बंद कर दिया जाय तो एक नहीं बल्कि पूरे दो चुनाव में किसानों का कर्ज माफ किया जा सकता है.

इस देश में कई ऐसे औद्योगिक घराने हैं जिनका कर्ज केंद्र की मोदी सरकार ने माफ कर दिया है. यदि भूपेश सरकार किसानों का कर्ज माफ कर रही है. महिलाओं को पंद्रह हजार रुपए सालाना देने की घोषणा कर रही है तो पेट में दर्द क्यों उठ रहा है? जनता को थोड़ी राहत मिल जाएगी तो परेशानी क्यों होनी चाहिए ?

छोटे-बड़े लगभग पचास उद्योगपति ऐसे हैं जो अरबो-खरबों का चूना लगाकर देश छोड़कर भाग चुके हैं. छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के किसी भी नारंगी पत्रकार ने कभी यह नहीं लिखा कि ऐसे तमाम लोगों को घसीटकर देश लाना चाहिए और उनसे पाई-पाई वसूलना चाहिए.

लेकिन… नहीं साहब… जनता को रसोई गैस में पांच सौ रुपए की सब्सिडी देने की घोषणा से ही नारंगियों की जान निकल रही है.

पवित्रता सीधे तौर पर पवित्रता होती है. पवित्रता का कोई पाखंड नहीं होता और पाखंड वाली कोई पवित्रता नहीं होती. नारंगी गैंग को पाखंड के आवरण में लिपटी पवित्रता छोड़ देनी चाहिए. जनवाद के जिस कंबल को ओढ़कर वे सोते हैं उसमें इतने ज्यादा छिद्र है कि सबको…सब कुछ दिखता है.

सबको यह साफ तौर पर दिखता है कि कौन सा पत्रकार सांप्रदायिक ताकतों के साथ खड़ा है और कौन सा तटस्थ या निष्पक्ष रहने का ढोंग करते हुए मलाई छान रहा है.

 

समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध

-दिनकर

देश एक भयावह दौर से गुजर रहा है. नफरत की राजनीति ने हम सबका कुछ न कुछ छीन ही लिया है. यह समय तटस्थ और निष्पक्ष रहने का बिल्कुल नहीं है. सांप्रदायिकता सबसे बड़ी चुनौती है और इस चुनौती के खिलाफ जंग एक जरूरी मसला है. युद्ध में यह आवश्यक नहीं होता है कि आपके पास तेजधार हथियार हो. कई बार युद्ध शोषक पक्ष का हथियार छीनकर भी लड़ा जाता है.

इस भयावह समय में तटस्थ या निष्पक्ष रहने की बात वहीं कर सकता है जिसके पास कोई रीढ़ नहीं है. ये वहीं लोग है जिनके पूर्वज सावरकर के कामों को जायज ठहराते थे और मानते थे कि अंग्रेज यदि माफी के बाद सावरकर पेंशन देते थे तो बिल्कुल सही देते थे क्योंकि सावरकर भी एक इंसान था. ऐसे लोगों की नजरों में एक निहत्थे बुर्जुग पर गोली दागने वाला गोड़से भी एक मानव ही है.

नारंगी पत्रकारों की क्या पहचान ?

नारंगी पत्रकारों की फौज देश के हर मीडिया संस्थानों में मौजूद है. छत्तीसगढ़ के अमूमन हर मीडिया संस्थानों में नारंगी चंपादक और पत्रकारों की उपस्थिति कायम है. प्रदेश के आधे से ज्यादा वेबसाइट या पोर्टल चलाने वाले लोग नारंगी गैंग का हिस्सा है. आप इनकी खबरों के कंटेंट से यह समझ सकते हैं कि वे कितना कुछ भयानक सोच रहे हैं. सांप्रदायिकता इनके लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं है. इनके लिए सबसे बड़ा मसला है कि राम मंदिर का निर्माण नरेंद्र दामोदार दास मोदी किस शिद्दत के साथ कर रहे हैं. जैसे मोदी के अलावा कोई और दूसरा राम मंदिर को बना ही नहीं सकता था. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राम गमन पथ के निर्माण पर जोर देते हैं तो इन्हें खराब लगता है. नारंगियों को लगता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम राम का नाम तो दूसरा कोई और ले ही नहीं सकता. इनके लिए रोजी-रोजगार कोई मसला नहीं है. इनकी चिन्ता का विषय यह है कि छत्तीसगढ़ में खूब धर्मान्तरण हो रहा है. नारंगी पत्रकारों को फलने-फूलने के लिए आर्थिक मदद देने में वे दल भी शामिल हैं जो आपदा में अवसर को प्रमुख मानते हैं.

नारंगी वे ही नहीं है जो एक खास दल से जुड़े हुए हैं. नारंगी वे लोग भी है जो जाने-अनजाने में ही सही...छत्तीसगढ़ में सांप्रदायिक ताकतों को फलने-फूलने का अवसर देने के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं. ये वे लोग हैं जो अपनी खबरों या यू ट्यूब चैनलों के जरिए यह नैरेटिव बना रहे हैं कि छत्तीसगढ़ का पूरा चुनाव फंसा हुआ है. ऐसे तमाम लोगों ने दिल्ली के पत्रकारों के साथ बकायदा बैठक कर गलत फीडबैक प्रेषित किया है. कई चंपादकों के दफ्तर में नारंगी समूह के लिए काम करने वालों की बैठक होने की भी सूचना है.

अपने आसपास देखिएगा... कहीं आपका कोई दोस्त... या पत्रकार नारंगी तो नहीं है ?

यदि हैं तो.... सावधान

 

राजकुमार सोनी

98268 95207

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

फिल्म

भूलन द मेज... अपनी शिकायत फाड़कर फेंकता हूं मैं

राजकुमार सोनी

संभावनाओं से भरे युवा फिल्मकार मनोज वर्मा की फिल्म भूलन द मेज अगर आपने नहीं देखी है तो पहली फुरसत में इसे देख लीजिए. यह फिल्म छत्तीसगढ़ में निर्मित होने वाली सुंदरानी और जैन मार्का फिल्मों से बेहद अलग और जानदार है. फिल्म में थोड़ी-बहुत खामियां भी है बावजूद इसके यह फिल्म अंत तक बांधकर रखती है और अपनी बात कहने में सफल रहती हैं.

यहां मैं बताना चाहूंगा कि मनोज वर्मा के फिल्मी कामकाज को लेकर मेरी धारणा अच्छी नहीं रही हैं. दरअसल उनकी पुरानी फिल्मों का नाम ही महूं दीवाना... तहूं दीवानी, मिस्टर टेटकूराम और लफाडू-फफाडू टाइप का रहा है तो मेरी क्या गलती है ? उन्हें लेकर जो कुछ भी फिल्मी प्रचार रहा है वह यहीं रहा है कि उनके भीतर  सतीश जैन का भूत सवार हैं और वे उनके नक्शे-कदम पर चलकर अपनी अच्छी-खासी सृजनात्मकता का गला घोंट रहे हैं.

लेकिन भूलन द मेज ने मेरी इस धारणा को ध्वस्त कर दिया है. कई बार धारणाओं का धवस्त हो जाना अच्छा भी होता है. 

मंगलवार को छत्तीसगढ़ के कला और संस्कृति प्रेमी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सौजन्य से मेरी धारणा टूट गई. वे भूलन द मेज देखने गए तो मीडिया के अन्य साथियों के साथ मेरा भी जाना हो गया. हालांकि निर्देशक मनोज वर्मा शायद जानते थे कि मैं उनकी पुरानी फिल्मों को लेकर अच्छी राय नहीं रखता हूं इसलिए उन्होंने मुझसे एक मर्तबा पूरी विनम्रता से कह भी रखा था कि आप भूलन द मेज को अवश्य देखिए...शायद आपकी शिकायत दूर हो जाए.

यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि भूलन द मेज को देखकर मेरी धारणा चकनाचूर हो गई हैं. मेरी शिकायत दूर हो गई हैं. मैं अपनी शिकायत को अपने जेब में वापस रखता हूं.

जेब में भी क्यों ? शिकायत को सीधे-सीधे फाड़कर फेंकता हूं.

मनोज वर्मा ने अंचल के बेहतरीन लेखक संजीव बख्शी की लिखी हुई शानदार सी कहानी पर शानदार और जानदार फिल्म बनाई है. यहां कहानी का जिक्र करना ठीक नहीं होगा क्योंकि इस बारे में सोशल मीडिया व प्रचार के अन्य माध्यमों पर काफी कुछ लिखा जा चुका है. बस...इतना बताना चाहूंगा कि यह फिल्म हमारी प्रशासनिक और न्याय व्यवस्था पर जबरदस्त चोट करती है. फिल्म को देखते हुए आप हंसते हैं. रोते हैं और मन ही मन अपने अराध्य या ईश्वर से यह प्रार्थना करने लग जाते हैं कि ' हे...ईश्वर...किसी भी भोले-भाले... सीधे-सादे इंसान को कोर्ट-कचहरी के दिन देखने के लिए मजबूर मत करना. हे परमपिता... परमेश्वर...आप जहां कहीं भी हो...आप यह सब देखो कि इस धरती के गांवों में...छोटे कस्बों में अपनी छोटी-छोटी खुशियों के साथ जीने वाले लोग भी रहते हैं. कौन हैं वे लोग जो उनकी खुशियों में खलल डालते हैं. कानून किसके लिए बनता है ? अगर बनता भी है तो उसकी शुद्धता को खत्म करने वाले लोग कौन हैं ? कानून थोपा क्यों जाता है ?

फिल्म का एक पात्र भकला और उसकी पत्नी प्रेमिन बाई अपने गांव के एक साथी को जेल से छुड़ाने के लिए शहर आते हैं. बाबुओं की वजह से काम नहीं बनता तो उन्हें फुटपाथ पर रात गुजारनी पड़ती हैं. दोनों आकाश की तरफ देखते हैं. आधा-अधूरा चांद तो नज़र आता है मगर तारा नहीं आता. दोनों के बीच संवाद में एक बात सामने आती हैं- शायद शहर में आने के बाद तारा नज़र नहीं आता है. यह संवाद भीतर तक हिला देता है. सच तो यह है कि शहर में इधर-उधर भटकते हुए लोग तो दिखते हैं लेकिन मददगार नज़र नहीं आते.फिल्म में जब गांव के सारे लोग जेल की सज़ा भुगतने को तैयार हो जाते हैं तो आंखें नम हो जाती हैं. अपने साथी को बचाने के लिए जब सारे गांव वाले जज को पैसा देने के लिए अपनी मेहनत की कमाई को एक गमछे में एक इकट्ठा करते हैं तो आंसू बह निकलते हैं. मैंने मुंबइया फिल्मों में कोर्ट के भीतर और बाहर गुंडे- माफियाओं के द्वारा गोली चलाने के सैकड़ों दृश्य देखें हैं, लेकिन कोर्ट के भीतर न्यायाधीश की कुर्सी के आसपास ग्रामीणों का सामूहिकता के साथ नाचना-गाना पहली बार देखा है. गाने के पहले एक बच्चा न्याय की मूर्ति की आंखों में बंधी हुई पट्टी उतारता है तो कई सवाल और जवाब खुद से टकराने लगते हैं. कोर्ट परिसर में गांव वालों के द्वारा भोजन पकाने और वहीं परिसर में ही ठहरकर जज का फैसला सुनने के लिए ग्रामीणों की बेचैनी को देखना आंखों को खारे पानी के समन्दर में बदल डालता है.

मनोज वर्मा ने फिल्म के एक-एक फ्रेम पर खूबसूरत काम किया है. फिल्म का एक-एक गीत और उसका संगीत जानदार है. बैकग्राउंड म्यूजिक देने वाले मोंटी शर्मा से भी उन्होंने ग्रामीण पृष्ठभूमि के मद्देनजर शानदार काम लिया है. नंदा जाही रे... जैसा गीत सैकड़ों बार सुना गया है, लेकिन मनोज और प्रवीण की आवाज में इसे फिल्म में सुनना अलग तरह के अनुभव से गुजरने के लिए बाध्य कर देता है.

वर्ष 2000 में जब से छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण हुआ है तब से अपसंस्कृति फैलाने वालों की बाढ़ आई हुई है. सतीश जैन की फिल्म मोर छइंया-भुइंया के संयोगवश हिट हो जाने के बाद से जिसे देखो वहीं डेविड धवन बनकर कचरा परोसने के खेल में लग गया था. हालांकि यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है. यह सब कुछ कब जाकर खत्म होगा और कहां जाकर खत्म होगा कहना मुश्किल है.

मनोज वर्मा अपनी इस फिल्म के जरिए धारा को मोड़ते हुए दिखते हैं. वे हमें यह आश्वस्त करते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.वे सभी दर्शक जो सुंदरानी और जैन मार्का फिल्मों में कला-संस्कृति के नाम पर नकली पहनावा, नकली नाक-नक्श, नकली गांव-घर, नकली बोली-बानी और लोक धुनों में मिलावट को देख और सुनकर परेशान हो चुके हैं उन्हें असली मेला मंडई, स्थानीयता की रंगत, लोक के रंग, सुआ, नाचा गीत और शोक में बजने वाले बांस की धुन को शिद्दत से महसूस करने के लिए भूलन द मेज देख लेनी चाहिए. महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया को भारतीय सिनेमा की आत्मा कहा जाता है. भूलन द मेज भी हमारी उस आत्मा से मुलाकात करवाती है जिसे हमने बिसरा दिया है.

मनोज वर्मा को लेकर मेरी उम्मीद और अधिक  बढ़ गई हैं. मैं उनसे सिर्फ़ इतना ही कहना चाहता हूं कि छत्तीसगढ़ के गांव-देहात और जंगलों में सैकड़ों-हजारों कहानियां बिखरी हुई हैं. जरूरत है उन कहानियों में से कुछ चुनिंदा कहानियों को समेटने की. जब सत्यजीत रे यहां छत्तीसगढ़ आकर प्रेमचंद की कहानी पर सदगति जैसे फिल्म बना सकते हैं. जब राजकुमार राव की फिल्म न्यूटन की शूटिंग छत्तीसगढ़ में हो सकती हैं और आस्कर में जा सकती हैं तो फिर यहां के निर्माता निर्देशक चल हट कोनो देख लिही और हंस झन पगली फंस जाबे से ऊपर क्यों नहीं उठ सकते हैं ?

यह सही है कि व्यवसायिकता भी फिल्म का एक जरूरी पार्ट है, लेकिन क्या सिनेमा के इतिहास में किसी भी तरह का कोई रेखांकन सिर्फ पैसे और पैसों के दम पर ही किया जाना ठीक होगा ? या किया जा सकता है ?

स्मरण रहे कि आपकी अपनी मौलिकता ही आपको स्थापित करती है और पहचान दिलाती है. भूलन द मेज में काम करने वाले मास्टर जी यानि अशोक मिश्र को कौन नहीं जानता. उन्होंने भी एक से बढ़कर एक फिल्में लिखी है. वे स्थापित हैं और लोग उन्हें अलग तरह की लकीर खींचकर काम करने वाला लेखक मानते हैं. लोग अगर आज राजमौली की फिल्मों के दीवाने हैं तो उसके पीछे भी भेड़चाल नहीं है.

मनोज वर्मा को मैं निकट भविष्य में भेड़चाल से बचने की सलाह दूंगा. ( यह आवश्यक नहीं है कि मेरी सलाह मानी जाय )

एक बात और मनोज वर्मा चुस्त-दुरुस्त कहानी और पटकथा के बावजूद कुछ कलाकारों से ही बेहतर काम ले पाए है. पूरी फिल्म में ओंकार दास मानिकपुरी, अशोक मिश्र, राजेन्द्र गुप्ता, मुकेश तिवारी, आशीष शेंद्रे, भकला की पत्नी प्रेमिन बाई यानी अणिमा पगारे, कोटवार बने संजय महानंद, मुखिया की पत्नी गौंटनिन अनुराधा दुबे और सुरेश गोंडाले का अभिनय ही याद रह जाता है. फिल्म में कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जिन्हें देखकर लगा कि मनोज वर्मा ने संबंधों के चलते उनके लिए गुंजाइश निकाली है. जब कोई काम बड़ा हो और लगे कि पूरी ताकत झोंकने से ही असर पैदा होगा तो गुंजाइश निकालने और गुंजाइश निकालने के लिए मजबूर कर देने वाले लोगों से बचा जाना चाहिए.

यार...उसको बुरा लग जाएगा... यार... वो क्या सोचेगा...यार उसको रख लेने से अपना काम बन जाएगा जैसी स्थिति फिल्म में ब्रेकर का काम करती है.

सच कह रहा हूं मैं

ह...हह...हव....हव

एकदम सच..... हव....हव....हहहहव