साहित्य
मधु सक्सेना की दस कविताएं
मधु सक्सेना हमारे समय की एक महत्वपूर्ण कवयित्री है. अपने आसपास को वे बेहद संवेदना के साथ देखती है. उनकी कविताओं में हम एक शांत ठहराव देखते हैं तो अजीब तरह की छटपटाहट भी. फिलहाल अपना मोर्चा के पाठकों के लिए हम यहां उनकी दस कविताएं प्रकाशित कर रहे हैं. इन कविताओं में प्रेम और विद्रोह दोनों हैं. कविताएं खौफनाक समय में हस्तक्षेप करती है.
एक- गोधूलि
नही लौटती अब गायें रंभाती हुई
धूल उड़ाती
थनों में दूध भरे अपने बछड़ों को पुकारती हुई
कोई बेला नही गोधूलि की ...
नही लौटता किसान
काँधे पर हल रखे ..
नही आती गौरैया चहचहाती हुई
अपने घोंसले में ..
बड़ी इमारतों के नीचे छुप गया गांव
दब गए खेत
भूख ने हथियार उठा लिए
सीमेंट और डामर की बड़ी सड़कों में
पॉलीथिन चबाती ,भारी वाहनों से बचती
अपना अस्तित्व बचा रही कुछ गायें ..
निबंध में लिखी जा रही माता ..।
कुछ गो भक्त उगाह रहे चंदा
भर रहे अपनी तोंद ...
अब बच्चे गाय नही ,काऊ जानते है
धुंए से भरी हवा अब धूल नही उड़ा पाती
गायों के खुर डरे सहमे भटकते हैं
अपनी उन्मुक्तता खोकर बेचेंन है
गोधूलि अब मात्र पोथियों में
सिमट कर रह गई ..
दो- चाकू की धार
गुनगुनाते हुए ....
चाकू की धार से ही काटे थे
नन्हे की पसन्द केआलू के चिप्स
'उनके' लिए लौकी
अचार के लिए केरी और कटहल
त्योहारों पर मठरी के दुकड़े
बेसन चक्की में लगाये चाक बराबर दूरी पर
सबकी जीभ और खुशी में शामिल है
चाकू का धारदार होना ...
मुश्किलों की सान पर घिसते हुए
तेज करना ज़िन्दगी के चाकू की धार
काट देना जिससे
लड़की के बंधन की रस्सी
चीर देना है क्रूरता भरे हृदय
भोंक देना अन्याय के दैत्य के सीने में .
हर चाकू का चाकू हो जाना ही
सबसे बड़ा भरोसा है ......
तीन- साज़िशें
भुरभुरा कर गिरते रहे दिन
रातें घटनाओं की चादर ओढ़ छटपटाती रही ..
मन डोलता रहा ..भटकता रहा
आकाश ,पिंडीय उल्काओं से
धरती ज्वालामुखियों से पटी रही
इन झुलस भरे समय मे
बाढ़ सी आ गई
चीत्कार और ललकार की
विद्रोह ने सांस ली
सूरज ने फैला दी किरणे
ये गर्म हवा भर गई सांसों में
परमाणु की सक्रियता
नाभिकीय हलचल से
डर गया आदिम
खोजने लगा नए उपाय
खोखली हँसी के साथ
सौहाद्र के गीत गाते हुए
रचने लगा नयी साजिशें ..
चार- तुम आये
तुम आये ...
एक झोंका पुरवाई बन
बून्द भर पानी लिए मेघ
इंद्र धनुष का एक रंग बिखरते
कहीं दूर सितार बज उठा ......
तुम आये जीवन मे
एक खगोलीय घटना की तरह
और ठहर गए टूटे तारे की तरह ....
पांच- उमस
भीगना भी न हुआ
सूखे भी न रहे
तभी तो आ बैठी है 'उमस'
अधखुली खिड़की से ..
ना छूट पाए , ना बंध पाए
कोई राह ही तो नही खोजी
गड़ी ही रही 'उमस'
छाती में ठुकी कील की तरह .....
'उमस' ही तो है खड़ी है बेचैनी का लबादा ओढ़े
प्यास का कटोरा लिए
पर बात प्यास की नही
तृप्ति की है ....
विकल्प मौजूद है ,
निकल जाओ बाहर
झमाझम बारिश के हवाले कर खुद को
तृप्त हो जाओ ..
मिट्टी और हवा की उन्मुक्तता को पहन कर
नृत्य में डूब जाओ
या कमरे में जा कर बच जाओ बारिश से
रह सको तो रह लो घुटनो के बल
'उमस' को काँधे पर टांग कर
प्यास और तृप्ति
के बीच की खाली जगह पर ..
अनिर्णय को थामे हुए .......
छह- कपड़े
खोज रही हूँ बहुमंजिला इमारतों के जंगल मे
घर की बड़ी सी छत पर वो सूखते कपड़े
हवा में झूमते , गलबहियां डाले, छत को भिगोते
लाल, पीली, नीली लहराती वो साड़ियां
ये माँ की ,ये काकी की, ये भाभी की ..
भाभी की लाल साड़ी के कोर से ही दिखा वो
दूसरी छत पर किताब लिए
माँ की साड़ी के पीछे से कई बार ताका
काकी की साड़ी की ओट लिए घण्टो खड़ी रही
एक झलक के लिए
तेज हवा के झोंके ने खोल दी थी पोल
शर्म और मुस्कान बिखर गई पीली धूप सी ..
हाथ मे किताब, पर अक्षर आखों -आंखों के पढ़े जाते
पापड़, बड़ियों के साथ सपने भी महफ़ूज किये जाते रहे
हवा में उड़ते और बरसात में भीगते कपड़े
अपनी रंगत पर इतराते रहे
लिखते रहे एक प्रेम कहानी
।
कहानी भले ही अधूरी रही
प्रेम अधूरा नही रहा
जिम्मेदारियों की ताल के साथ
सुर मिलाता रहा सदा
करता रहा मज़बूत ..
अब मशीन के निचुड़े
और छोटी सी बालकनी में
स्टैंड पर सूखते कपड़ों ने
न जाने कितनी प्रेम कहानियों को
विज्ञापनों के हवाले कर दिया ।
सात- चीख़
दबी पड़ी है कुछ चीखें
महलों के खंडहरों में
किले की दीवारों में
तहखाने की सांकलों में
बन्द कर दिए गए सूराख़
कैद हो गई हवा ...
कुछ चीखें दबी रह गई
लाल इमारत में
भारी बस्ते के नीचे
अपनी भाषा मे बोलते बतियाते
दूसरी भाषा से कुचली गई
नन्ही चीख सिसकियों में बदल गई ..
कुछ चीखें घरों में कैद हो गई
चाचा ,मामा जैसे आवरणों में
सात फेरों में या घुट गई दूध भरे बर्तन में
निकाल दी है गई बाहर
सफेद कपड़े में लपेटकर
या लाल जोड़े में ...
चीख तो चीख ही है आखिर
कभी नदी से तो कभी पहाड़ से फूटती है
धुंए से भरी बैठ जाती है पेड़ों की फुनगी पर
या चल पड़ती है कोई प्यासी चीख
नापने पानी की गहराई ..
चीख की अपनी भाषा होती है
ये मात्र कोई शब्द नही
अपने इतिहास और भूगोल के साथ
होती है पूरी एक कहानी
एक क्रांति की शुरुआत है
एक चीख का हज़ारों चीखों में बदल जाना ...
आठ- वक्र रेखा
त्रिभुज, आयत और समकोण में
समा जाती हैं सरल रेखाएं
जिसने जैसी खींची
बनी रहती है अपनी सीमा में
स्टेचू कह कर भूल भी जाओ तो
शिकायत नही करती ..
वक्र रेखाएं
नही सुनती किसी की
नही मानती कोई हद
छू ही लेती है चलते चलते
किनारों की पीठ
परिंदों के पर और आकाश के तारे
क़दम दर क़दम
लहराते हुए
बिछा देती है आकाश सी नीली चुनरी
हरियाई घास पर
जिसका क्षेत्रफल कोई नही जानता
लाल चुनरी के किनारों को उधेड़ कर
लगा देती है
नीली सितारों वाली किनार
एक छोर हाथ मे थाम
दूसरा छोर उछाल देती है
अनन्त की ओर ..…...
गणित की होकर भी
नही रहती गणित में
जमाने की थू थू के बाद भी
होठों पर आकर बैठ जाती हैं
ये वक्र रेखाएं ....
नौ- त्यागपत्र
माँ और बाबा ने लिखा था
मेरा नियुक्ति पत्र ...
मेरी पहली धड़कन के सम्मान में
अधिकारों की लम्बी फेहरिस्त के साथ
गोदी मेरी , आंगन मेरा
खिलखिलाना मेरा
बचपन मेरा
सब मेरे .....
समय बीता ..बचपन ने दिया त्यागपत्र
चुपके से एक कोना फाड़ लाई
जवानी के नियुक्ति पत्र के साथ ही
सपने सजे ..
कर्म भूमि की गोद मे
समय फिर चल पड़ा
अपने से भी ऊंचे होते
अपने ही दरख़्त को
सौंप दिया अपने हिस्से का खाद-पानी ..
अब फिर से नया नियुक्ति पत्र
जवानी के त्यागपत्र के साथ
चुपके से फिर फाड़ लिया कोना
जाते बचपन और जवानी के
चुराए टुकड़ो को सम्हाल रही हूँ
सहजता और हौसले कि पतवार के सहारे
पहुंचना है जीवन नदी के अंतिम घाट पर
मृत्यु का नियुक्तिपत्र पाते ही
समाप्त हो जायेगें सारे बदलाव
फिर कोई त्याग पत्र नही देना होगा ..
दस- कभी तो आओ
मेरी स्मृतियों से निकल कर
कभी तो आओ सामने
इतने बरसों बाद देखो तो मुझे ...
बालों में चाँद और चांदनी दोनो
शबाब पर है ..
झुर्रियों ने आसन जमा लिया
न जाने के लिए
बल्कि उनके सम्बन्धी बढ़ते जा रहे ..
दिखने के दांत सलामत
पर दाढ़ें हिलने डुलने लगी
घुटनों की तो पूछना ही मत
आपरेशन के बाद भी नखरे कम नही हुए ..
पर्स में लिपस्टिक ,शीशा और इत्र के बदले
रहता है इन्हेलर ।
मोटा सा चश्मा ही आधी जगह घेर लेता है
बाकी जगह बी पी , शुगर की दवाइयां ..
आधार कार्ड पर ज़िन्दगी आधारित हो गई
मेरे ज़िंदा रहने का सबूत है वो
वरना आज धड़कन और सांसों पर
कौन यकीन करता है ..?
यही सुनती हूँ बार बार कि
अब इस उम्र में क्या करोगी ..?
समझ नही आता
साठ के बाद क्या करने को कुछ नही होता ?
स्मृतियों का बोझ बढ़ता जा रहा
एक बार आओ तो स्मृतियों से निकल कर
बोझ कुछ कम हो
झुके कन्धों और पीठ को तान कर
खड़ी हो जाऊं कुछ देर ...
सीधी खड़ी ही नही हो पाई आज तक
तुम्हारे जाने के बाद ...
परिचय-
श्रीमती मधु सक्सेना
जन्म- खांचरोद जिला उज्जैन मध्यप्रदेश
कला , विधि और पत्रकारिता में स्नातक ।
हिंदी साहित्य में विशारद ।
प्रकाशन (1) मन माटी के अंकुर (2) तुम्हारे जाने के बाद ( 3 ) एक मुट्ठी प्रेम ।सब काव्य संग्रह है ।
आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण
मंचो पर काव्य पाठ ,कई साझा सग्रह में कविताएँ ।विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन ।सरगुजा और बस्तर में साहित्य समितियों की स्थापना । हिंदी कार्यक्रमों में कई देशों की यात्रायें ।
सम्मान..(1).नव लेखन ..(2)..शब्द माधुरी (3).रंजन कलश शिव सम्मान (4) सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान (5) प्रोफे. ललित मोहन श्रीवास्तव सम्मान - 2018 ......
पता .. सचिन सक्सेना H -3 ,व्ही आई पी सिटी, उरकुरा रोड ,सड्डू रायपुर (छत्तीसगढ़ )
पिन -492-007 मेल - saxenamadhu24@gmail. Com फोन .9516089571