विशेष टिप्पणी

धर्म की राजनीति को 55 कैमरों की सलामी...इधर बैंकर ताक रहे हैं कि कोई कव्हर करने क्यों नहीं आ रहा ?

धर्म की राजनीति को 55 कैमरों की सलामी...इधर बैंकर ताक रहे हैं कि कोई कव्हर करने क्यों नहीं आ रहा ?

प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार की टिप्पणी 

आज लाखों बैंक कर्मचारी हड़ताल पर हैं. सरकार बैंकों के निजीकरण के लिए संसद के इस सत्र में एक बिल लेकर आई है जिसके बाद वह आराम से सभी सरकारी बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम कर सकेगी. सरकार इस साल दो बैंकों के निजीकरण से एक लाख करोड़ जुटाना चाहती है. बैंक बेच कर विकास के सपने दिखाने वाली सरकार के शाही कार्यक्रमों को देखिए. प्रधानमंत्री के हर कार्यक्रम में करोड़ों फूंके जा रहे हैं ताकि हर दिन हेडलाइन बने. उन कार्यक्रमों में लोगों की कोई दिलचस्पी नहीं है इसलिए सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों को पकड़-पकड़ कर बिठाया जाता है. बिहार में जैसे पकड़ुआ शादी होती थी उसी तरह मोदी जी के लिए पकड़ुआ कार्यक्रम हो रहे हैं. उस पर करोड़ों खर्च हो रहे हैं. उस खर्चे का कोई हिसाब नहीं है. 

बहरहाल बैंकरों का दावा है कि सरकारी बैंको ने आम जनता की सेवा की है. बैंकर शहर का जीवन छोड़ ग्रामीण शाखाओं में गए हैं और लोगों के खाते खुलवाए हैं. प्राइवेट होने से आम लोगों से बैंक दूर हो जाएंगे. देश भर में लाखों बैंकर हड़ताल कर समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि 2014 के बाद से बैंकों का  25 लाख करोड़ का लोन NPA हुआ है. इसका मात्र पांच लाख करोड़ ही वसूला जा सका है. ये लोन राजनीतिक दबाव में कारपोरेट को दिए जाते हैं और कारपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए इन लोन को किसी और खाते में डाल दिया जाता है फिर वहां से इसकी वापसी कभी नहीं होती है. होती भी है तो बहुत कम होती है. सरकारी बैंक नहीं रहेंगे तो दलित पिछड़ों और अब तो आर्थिक रुप से कमज़ोर सवर्णों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा. बैंकों की नौकरियां भी कम होंगी.

बैंकों की इस हड़ताल को कोई कवर कर रहा है इसे लेकर मुझे संदेह है. इन बैंकरों की दुनिया में गोदी मीडिया देखने वाले कम नहीं हैं. इसकी सज़ा सभी को भुगतनी है. सांप्रदायिक होने की सज़ा कुछ आज भुगतेंगे, कुछ दस साल बाद भुगतेंगे. इस माहौल की सज़ा उन्हें भी भुगतनी है जो सांप्रदायिक नहीं हैं.  हम जैसे पत्रकार इसमें शामिल हैं. कितने पत्रकारों की नौकरी चली गई. धर्म के नाम राजनीति की इस गुंडई की सज़ा यह है कि आज देश में पत्रकारिता खत्म हो गई है. इसलिए बैंकरों को इसका रोना नहीं चाहिए कि मीडिया कवर नहीं कर रहा है. प्रधानमंत्री को भी इनकी परवाह नहीं करनी चाहिए. ये या तो पुलवामा जैसी घटना पर भावुक होकर वोट देंगे या  फिर अगर प्रधानमंत्री किसी मंदिर में चले जाएं तो पक्का ही देंगे. जब इतना भर करने से वोट मिल सकता है तो प्रधानमंत्री को हड़ताल वगैरह का संज्ञान नहीं लेना चाहिए. मस्त रहना चाहिए. आम जनता उनसे धार्मिक होने की उम्मीद करती है. उनके समर्थक दिन रात लोगों को धार्मिक असुरक्षा की याद दिला रहे हैं, और फिर उनका फोटो दिखा रहे हैं कि धार्मिक सुरक्षा इन्हीं से होगी. धर्म की राजनीति को 55 कैमरों की सलामी मिलती जा रही है। बैंकर इधर उधर ताक रहे हैं कि कोई कैमरा वाला कवर करने आ रहा है या नहीं ?

 

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