विशेष टिप्पणी

मनोज रूपड़ा की चर्चित कहानी दहन

मनोज रूपड़ा की चर्चित कहानी दहन

दफन, साज-नासाज, रद्दोबदल, आग और राख के बीच सहित अन्य कई कहानियों से चर्चा में आए मनोज रूपड़ा यूं तो मूल रुप से छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर के रहने वाले हैं. पिछले कुछ समय से वे नागपुर ( महाराष्ट्र ) में निवासरत है. इस खौफनाक समय में जब साहित्य और साहित्यकार की भूमिका संदिग्ध हो गई है तब मनोज रूपड़ा पूरी प्रतिबद्धता के साथ लिख रहे हैं. उनका एक बड़ा पाठक वर्ग है जो उनकी कहानियों का इंतजार करता है. यह वर्ग यूं ही घूमते-फिरते अचानक-भयानक ढंग से तैयार नहीं हुआ है. मनोज रूपड़ा ने अपने कथन के अंदाज से पाठकों का भरोसा जीता है. किसी भी बात को कहने का उनका  अपना तरीका इतना अलग और जबरदस्त होता है कि पाठक न सिर्फ चौकता है बल्कि कुछ सोचने के लिए मजबूर भी हो जाता है. पूरे लॉकडाउन में जब देश के स्वनामधन्य कथाकार और कवि फेसबुक लाइव और रेसिपी अपलोड़ करने के खेल में लगे हुए थे तब मनोज रूपड़ा की एक शानदार कहानी दहन हमारे बीच प्रकट हुई. इस कहानी को पहल जैसी लब्धप्रतिष्ठित पत्रिका ने छापा है. इन दिनों इस कहानी की जमकर चर्चा है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए भी यहां प्रस्तुत है. कहानी थोड़ी लंबी अवश्य है, लेकिन जब एक बार पढ़ना प्रारंभ करेंगे तो फिर पढ़ते चले जाएंगे.

 

     उस दिन मैं एक बड़ी ख़ुशफहमी में  था । आधी रात का वक़्त था औए मैं सुनसान सड़क पर तेजी से चला जा रहा था । मैं यह मानकर चल रहा था कि मैं जो कुछ भी सोच रहा हूँ और जिस संभावित सुखद परिणाम की कल्पना कर  रहा हूँ , वह वास्तविक रूप में भी उतना ही सुखद और रोमांचक होगा ।   

                        दरअसल तब मैं सोलह साल की मचलती- गुदगुदाती कामनाओं के आगोश में था और उस वक़्त इतने रोमेंटिक मूड में था , कि किसी भी तरह की हक़ीक़त उसका मुक़ाबला नहीं कर सकती थी ।    

                        लेकिन जैसा कि अकसर होता आया है , किस्मत ठीक उस समय टांग अड़ाती है , जब हम मंजिल के बिलकुल करीब होते हैं । सामने से अचानक एक ट्रक आ गया । वह सड़क बहुत  संकरी थी , हेडलाइट कि चुंधियाती रोशनी के कारण मुझे आगे का कुछ भी साफ़  दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन फिर भी मैंने अपनी चाल  धीमी नहीं की और अगले ही पल मेरा दायाँ पैर पता  नहीं किस चीज से टकराया और मैं एक खुली नाली में मुंह के बल गिर पड़ा ।  मेरी टांगें तो नाली से बाहर थी,  लेकिन पूरा चेहरा और दोनों हाथ कीचड़ में धंस गए । 

                          जब मैंने अपना चेहरा ऊपर उठाया तो नाली के कीचड़ में मुझे दो चमकती हुई आँखें दिखाई दी । ये छोटी – छोटी आँखें कुछ इस ढंग  से चमक रही थीं कि मैं  सहम गया । मैंने एक पल भी गँवाए बगैर अपना सिर नाली से बाहर निकाला । सीधे खड़े होने के बाद मैंने अपने दोनों हाथों को कूल्हे से रगड़कर साफ़ किया,  फिर कमीज़ का निचला हिस्सा ऊपर उठाकर चेहरे की गंदगी पोंछने लगा।  लेकिन मल – मूत्र और कीचड़ की बदबू से पीछा छुड़ाना मुश्किल था । मेरा सिर भी चकरा रहा था । तभी मुझे खयाल आया कि नाली में मैंने कुछ देखा था ।  कमर और बाँए घुटने में उठते दर्द के बावजूद मैंने झाँककर देखा , मुझे फिर वही आँखें दिखाई दी । मुझे लगा की ये मेरा भ्रम तो नहीं है ? कि ये आँखों की बजाय कुछ और तो नहीं है ? लेकिन तभी मुझे कमजोर स्वर में म्याऊँ – म्याऊँ की  आवाज सुनाई दी , इस बार मैंने अंधेरे में नजरें जमाकर गौर से देखा – वह एक छोटी – सी बिल्ली थी । उसका सिर्फ चेहरा कीचड़ से बाहर था , टांगें अंदर किसी चीज से उलझकर फंस गई थी । वह मेरी और देखकर म्याऊँ – म्याऊँ की गुहार लगा रही थी और अपनी टांगों को किसी चीज की झकड़ से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी । 

                               मैं सोच में पड़ गया कि अब क्या करूँ ? कुछ देर पहले मेरे दिलो-  दिमाग में जो एक चहकती – महकती खुशफहमी थी,  उसकी लय एक झटके में टूट गई थी और अब मेरे सामने एक गिलगीली गलाजत थी जो मुझे आवाज़  दे रही थी और बचाओ-  बचाओ की गुहार लगा रही थी । 

                              जाहिर है , ऐसे हालात  में कोई एकदम से सहज और सजग नहीं हो सकता । कुछ वक़्त लगता है । जब ठेस लगती है , तो कुछ देर के लिए दिमाग भन्ना जाता है । मैं खड़ा तो हो गया था लेकिन खुद को सँभाल नहीं नहीं पा  रहा था,  मेरी कमर में भी लचक आ गई थी और घुटने से दर्द की तेज़ लहर उठ रही थी । मैं अपना एक हाथ नाली के ऊपर बने चबूतरे पर  और दूसरा हाथ कमर पर  रखे  कुछ देर हाँफता रहा । नाली से लगातार आती म्याऊँ – म्याऊँ की आवाज मुझे कुछ सोचने नहीं दे रही थी । 

                               और वैसे भी जरूरत  कुछ सोचने की नहीं ,  कुछ करने की थी । अक्सर ऐसा होता है कि एक इन्सान जो सोचता है,  वह कर नहीं पता और कभी-  कभी कोई अज्ञात प्रेरणा अचानक उससे कुछ ऐसा करवा लेती है , जिसके बारे में उसने कुछ सोचा ही नहीं होता । 

                                बिल्ली के बच्चे को नाली से बाहर निकालकर चबूतरे पर मेरे जिस हाथ  ने रखा था , उस हाथ  में बदबूदार गंदगी के साथ एक धड़कते हुए दिल की धड़कन का एहसास अभी तक कायम था । इतने छोटे से जीव की इतनी तेज़ धड़कन ? मैंने उसे चबूतरे पर रख  दिया था लेकिन उसका दिल अभी तक मेरे दाएँ हाथ की हथेली में धडक रहा था । वह ठंड से काँप रही थी । अपने भीगे हुए शरीर से गंदगी को झटकने के लिए उसने दो बार पूरे  शरीर को झिंझोड़ा । अब उसके रोंए खड़े हो गए , उभरी हुई हड्डियों का ढांचा एक साथ इतना दयनीय और घिनौना दिखाई दे रहा था कि मुझे आश्चर्य हुआ कि अभी तक वह जीवित कैसे है ?

                              उसकी म्याऊँ – म्याऊँ अब बंद हो गई थी , वह मुझे देख रही थी उसकी आँखों में जरा भी एहसानमंदगी का भाव नहीं था । 

‘’ चलो कोई बात नहीं ... मैंने उसे नाली से बाहर निकालकर उस पर कोई एहसान नहीं किया है ‘’ यह सोचते हुए मैंने उसका खयाल दिमाग से निकल दिया । ठोकर खाकर नाली में  गिरने के दौरान  मेरा एक चप्पल मेरे पैर से अलग हो गया था । मैंने इधर –उधर नजरें दौड़ाई , नाली के किनारे औंधे पड़े चप्पल को झुककर सीधा करने के बाद उसे पहनकर मैं जैसे ही जाने को हुआ फिर से उसकी आवाज आई , 

‘’ म्याऊँ ... .’ 

‘’ अब क्या है ? ‘’ मैंने पलटकर झल्लाते हुए कहा । लेकिन मेरी झल्लाहट को कोई तवज्जो दिये बगैर वह दो कदम आगे बढ़ी और चबूतरे से नीचे उतरने की कोशिश करने लगी । 

‘’ अरे रे रे... ये क्या कर रही ... ‘’ मैं ड़र  गया कि वह नीचे गिरकर मर न जाए । 

                            लेकिन मेरी बात को अनसुनी कर वह नीचे कूद गई और मेरे कदमों के पास आकर बैठ गई । उसने गर्दन उठाई और मुझे देख्नने लगी । लेकिन इस बार मैंने मन पक्का कर लिया था । उसकी नजरों को नजरअंदाज कर मैं लम्बे – लम्बे क़दम बढ़ाते हुए तेजी से चलने लगा , ताकि वह पिछड़ जाए और मुझे दोबारा उसकी मायावी आँखों और उसकी कातर आवाज का सामना न करना  पड़े । 

                             कुछ देर तक जब कोई आवाज नहीं आई,  तो मैंने राहत कि सांस ली । लेकिन जब मैंने नजरें झुकाई तो दंग रह गया  वह मेरे पीछे - पीछे नहीं आ रही थी , बल्कि मेरे साथ – साथ चल  रही थी ; कुछ ऐसे अंदाज में जैसे वह मेरी शरीके- हयात हो । 

 ‘’ ये तो हद्द हो गई ‘’ मैंने बुरी तरह झुँझला गया , ‘’ ये बिल्ली की  बच्ची तो अपने आप को कुछ ज्यादा ही होशियार समझ रही है ‘’ 

                             मैं उसे चकमा देने की तरकीबें सोचने लगा । इस मामले  में मैं बहुत माहिर हूँ । जब आज तक मेरी माँ मुझसे जीत नहीं पाई , तो इस बिल्ली की क्या मजाल है । मैंने अपनी चाल  धीमी कर दी , फिर कुछ सोचने का अभिनय करते हुए रुक गया । मैंने अपनी जेब से वह लव लेटर निकाला जिसे नाली में गिरने से पहले मैं ‘’  किसी को ‘’  देने जा रहा था मैं जानबूझकर  उस लेटर को पढ़ने के बहाने टाइम पास करता  रहा , ताकि वह बोर होकर चली जाए । मैंने तीन बार उस लेटर को पढ़ा , फिर कनखियों से नीचे देखा , वह इतमीनान से बैठी थी जैसे कह रही हो कि ‘’ तुम आराम से अपना काम  करो मुझे कोई जल्दी नहीं है ‘’ 

                             पहला सबक मुझे ये मिला कि यह बिल्ली मेरी माँ की तरह अधीर नहीं है । इसके पास धीरज है । 

                                रात बहुत हो गई थी , मैंने अपने घर की राह ली । फिर मुझे तुरंत खयाल आया कि इसे अपने घर का पता  बताना ठीक नहीं है । मैं फिर सोच में पड़ गया कि अब क्या करूँ ?

                      अगले ही पल मेरे दिमाग में एक शैतानी खयाल आया और मैं घर का रास्ता छोड़ एक ऐसी गली में मूड गया , जहां एक कुख्यात कटखना कुत्ता रहता था । 

                               वह अभी भी इठलाती हुई मेरे साथ चल  रही थी , उसे क्या मालूम था,  कि वह किस खतरे में पड़ने वाली है । हम दोनों चुपचाप उस सुनसान गली में चलते रहे । आधी गली पार करने के बाद भी कहीं कुत्ता नजर नहीं आया तो मैं मन  ही मन उस कुत्ते को कोसने लगा ।  लेकिन कुछ ही देर बाद जब वह अपने कान  खड़े किए आँखों में चमकते हत्यारेपन के साथ सामने से आता दिखाई दिया , तो मैं काँप गया । अगले ही पल क्या होने वाला है , यह सोचकर मैं इतना  घबरा गया कि मेरे मुंह से चीख निकल गई । उसकी निगाहें अगर मेरी तरफ होती तो शायद मैं इतना भयभीत न होता उसकी निगाहें उस बिल्ली पर जमी हुई थी और वह उस पर लपकने ही वाला था,  लेकिन इससे पहले कि बिल्ली को वह दबोच लेता मैंने लपककर बिल्ली को दायें  हाथ में उठा लिया । कुत्ते ने भी तुरंत पैतरा बदला और अब बिल्ली के बजाय मैं उसके निशाने पर था । उसकी भयंकर गुस्से से भरी गुर्राहट और पैने  दांतों से बचने का सिर्फ़  एक ही उपाय था , मैंने नीचे झुककर ईंट का एक अध्धा उठा लिया , वह दो – तीन कदम पीछे हट गया लेकिन उसकी गुर्राहट और बढ़ गई और दांत पहले से भी ज़्यादा ख़तरनाक ढंग से  जबड़े से बाहर आ गए । जब मैंने निशाना ताककर उस पर वार  किया  ,  तो पहले तो वह कूल्हे के बल गिर गया और कूल्हे में लगी करारी चोंट के कारण दर्द से कराहने लगा लेकिन फिर वह लंगड़ाते  हुए धीरे – धीरे पीछे हटने लगा।  कुछ देर कराहने के बाद वह फिर ज़ोर ज़ोर से भोंकने लगा और इस बार की  उसकी आवाज में भयंकर धमकी थी 

                               मैंने तो उसकी धमकियों को नजरंदाज कर दिया लेकिन उस बिल्ली की बच्ची को बर्दाश्त नहीं हुआ।  वह ज़ोर से गुर्राई .... इतने फोर्स के साथ कि मेरे हाथ की पकड़ ढीली पड़ गई , वह कूदकर नीचे सड़क पर  आई और अपनी दुम  उठाकर कुत्ते की तरफ बढ़ी।  कुत्ता एकदम चकित रह गया । वह एक बार फिर गुर्राई .... वह इतनी उत्तेजित थी, कि अगर मौत भी उसके सामने खड़ी होती तो वह भी काँप जाती ।  इसलिए नहीं कि वह ताकतवर थी,  इसलिए  कि वह बेहद कमजोर थी और इतनी कमजोरी के बावजूद मौत  को ललकार रही थी – इतनी भीषण आवाज में,  कि खौफ़नाक  भी खौफ़जदा हो जाए । सिर्फ़  ताक़त  ही , नहीं कभी – कभी कमजोरी भी भय पैदा कर सकती है ये मैंने पहली बार देखा । 

                                जब कुत्ता चला गया , तो मैंने नीचे नजरें झुकाई । अब वह मुझे देख रही थी । इस गली में लाकर मैंने उसके साथ जो विश्वासघात किया था , उसके बाद मुझे उम्मीद थी कि उसकी आँखों में मेरे लिए नफ़रत उभर आएगी ।लेकिन नफ़रत तो दूर उसकी आँखों में कोई शिकायत भी नहीं थी । 

‘’ चलो अब यहाँ से ... खड़े – खड़े मुंह क्या देख रहे हो ‘’ उसने अपनी गर्दन मोड़ी और मेरे आगे- आगे चलने लगी । 

                              मैं अपनी  जगह खड़ा रह गया , एक ऐसी हालत में जब कदम उठाए नहीं उठते । कुछ देर बाद उसने मुड़कर मुझे देखा , फिर दो कदम मेरी तरफ बढ़ाए , 

‘ अरे चलो भई .... डरो मत मैं तुम्हारे साथ हूँ । ‘’

                             मैंने देखा , उसके चेहरे पर सचमुच ज़िम्मेदारी का भाव था । उसके इस अंदाज से पहले तो मैं  शर्मशार हो गया , फिर मैं खीज उठा और पैर पटक-  पटककर चलने लगा । क्या मैं इतना नाचीज़ हूँ कि अपने घर तक पहुँचने  के लिए मुझे इस बित्तेभर की बिल्ली का सहारा लेना पड़े ?मैं अंदर ही अंदर एक अव्यक्त चिड़चिड़ाहट से भर उठा । घर पहुँचने  तक न तो मैं एक बार भी रुका न मुड़कर देखा कि वह कहाँ है । घर में घुसते ही मैंने दरवाजा बंद कर दिया । बाथरूम में जाकर मैंने गंदे कपड़े उतारे , नहाने के बाद धुले हुए कपड़े पहने और बिस्तर में घुस गया । नाली में गिरने से जो चोंट और खरोंच लगी थी , वह अब अपना असर दिखा रही थी,  लेकिन अपने दर्द को मैं इसलिए  जब्त कर गया  क्योंकि मुझे बार- बार यह लग रहा था कि बिल्ली दरवाजे के बाहर बैठी है और अपनी कातर आवाज में मुझे पुकार रही है ।  

                            सुबह मैं देर से उठा । मुझे आश्चर्य हुआ कि माँ ने मुझे उठाया क्यों नहीं । आम दिनों में मेरे उठने से पहले ही माँ कि झिड़कियाँ शुरू हो जाती थी । वह लगातार मुझे डांटती– फटकारती रहती थी और मुझे किसी न किसी काम  में लगाए रखने के फिराक में रहती थी,  ताकि मैं बिगड़ न जाऊँ । मैं भी जानबूझक्रर ऐसी हरकतें किया करता था,  कि माँ को यह भ्रम बना रहे कि मैं  बिगड़ गया हूँ । लेकिन वे हरकतें सिर्फ माँ को भ्रमित करने के लिए होती थी , ताकि मेरी असली करतूतों पर उसकी नजर न पड़े । वैसे भी एक आज्ञाकारी होनहार बेटे से कोई माँ उतनी खुश नहीं होती,  जितना उसे अपने बिगड़े हुए बेटे को सुधारने में सुख मिलता है । 

                          मैं जब कमरे से बाहर आया तो माँ घर में नहीं थी । न वह रसोई में दिखाई दी न बैठक में । जब ढूंढते हुए बाहर आया तो वह बर्तन कपड़े धोने की  मोरी के पास बैठी थी,  और गुनगुने पानी से बिल्ली को नहला रही थीं । 

‘’ अरे ! ये बिल्ली कहाँ से आ गई ? ‘’ मैंने अनजान बनते हुए पूछा । 

‘’ पता नहीं रे कहाँ से आई है । ‘’ माँ ने उसे प्यार से निहारते हुए कहा , ‘’ सुबह जब मैं उठी ,  तो ये घर के दरवाजे पर ज़ोर- ज़ोर से पंजे मर रही थी । ‘’

                     मैंने देखा , दरवाजे के दोनों पल्लों पर नाखून की खंरोंच के गहरे निशान थे । 

इतनी ताकत !!! मैं सन्न रह गया । 

नहलाने के बाद माँ उसके शरीर को नेपकिन से पोंछने लगी । 

 ‘’ लेकिन ये हमारे ही घर के दरवाजे पर क्यों पंजे मर रही थी इसे कोई और घर नहीं मिला ? ‘’ 

‘’ क्या पता । ‘’ माँ ने उसके सिर को सहलाते हुए कहा , ‘’ पिछले जन्म की कोई लेन – देन बाकी होगी इसीलिए हमारे घर आई है । ‘’ 

                          ‘’ पिछला जन्म ‘’ मेरे लिए एक ऐसी सुरक्षित जमीन थी , जहां मैं निश्चिंत होकर सांस  ले सकता था । मेरी बहुत सी बेरहम बदमाशियां  और माँ की बहुत – सी बीमारियाँ माँ की सोच के मुताबिक माँ के किसी पिछले जन्म के कर्मों का फल है । हालांकि न तो मैं बदमाश था  न माँ बीमार  । माँ इसलिए बीमार पड़ती थी कि मैं उस पर तरस खाकर उसकी सब बातें मान  लूँ और मैं इसलिए बदमाशी का ढोंग करता था ,  कि कहीं माँ सचमुच बीमार न पड़  जाए ।  अगर मैं उसे सताना बंद कर  दूंगा तो उसका जीवन नीरस हो जाएगा और वह बीमार पड़  जाएगी । 

                              बिल्ली को अच्छी तरह पोंछने के बाद माँ उसे रसोई में ले गई और एक कटोरा दूध उसके सामने रख दिया , वह भूख और ठंड से काँप रही थी । 

‘’ हाय राम बिचारी कितनी कमजोर है ‘’ माँ ने तरस खाते हुए ममतालु लहजे में कहा और जमीन पर बैठकर उसे  अपनी गोद में लेकर चम्मच से दूध पिलाने लगी । मैं सोच में पड गया कि क्या यह वही जालिम औरत है , जो घर में घुस आने वाली अन्य बिल्लियाँ  को चिमटा और बेलन फेंककर मार  भागती थी ? बिल्लीयों से तो वह बहुत चिढ़ती थी फिर अचानक एक ही दिन में ये हृदय  परिवर्तन कैसे हो गया ? इस बिल्ली की बच्ची ने ऐसा क्या जादू कर दिया माँ पर ? दूध पीती बिल्ली के परम सुख में डूबे हुए चेहरे और माँ के चेहरे के स्नेह भाव को देखकर मुझे लगा कि कहीं यह सचमुच कोई पिछले जन्म का लोचा तो नहीं है ?  

                            खैर , मुझे क्या लेना देना है इनसे , ये तो और भी अच्छा है , कि ये दोनों आपस में लगी रहें । माँ का  ध्यान किसी और चीज में लगा रहे तो इसमें मेरा ही फाइदा है । मुझे तो बिल्ली औए माँ दोनों से एकसाथ छुटकारा मिल जाएगा । मैं मन ही मन मुस्कराया । मेरी इस मुस्कुराहट को माँ तो नहीं देख पाई पर बिल्ली ने देख लिया ।  जैसे ही उसकी नजर मेरे चेहरे पर पड़ी, उसके कान  खड़े हो गए वह माँ की गोद से उतर गई और संदेह भरी नजरों से मुझे देखने लगी , शायद  उसने ताड़ लिया था कि मैं क्या  सोच रहा हूँ । 

                              कुछ देर बाद माँ रसोई के काम  में लग गई और मैं नहाने चला गया ।  जब मैं नहाकर आया तो देखा, वह बिल्ली घर की  सभी गातिविधियों को उत्सुकता से देख रही थी और सिर्फ़  देख ही नहीं रही थी,  बल्कि उसके चेहरे के भाव से लग रहा था जैसे वह माँ के हर काम  में हाथ बांटने के लिए उत्सुक है। उसकी नजरें माँ के फुर्तीले हाथों पर टिकी थी और उसकी आँखों की पुतलियाँ उतनी ही तेजी से   इधर – उधर घूम रही थीं , जितनी तेजी से माँ के हाथ । 

                                नाश्ता करने के बाद मैं दुकान जाने के लिए जैसे ही उठा , वह भी उठ खड़ी हुई और मेरे पीछे – पीछे आने लगी। मैंने जैसे ही घर से बाहर जाने के लिए दहलीज़ से पैर बाहर निकाला , वह दौड़कर घर से बाहर आ गई । माँ पीछे से चिल्लाती  ही रह गई पहले  वह बिल्ली को डांटती रही , जो उसके मना करने के बावजूद घर  से बाहर निकल भागी थी । बिल्ली ने जब उसकी एक न सुनी,  तो वह मुझे ज़ोर – ज़ोर से चिल्लाकर  चेतावनी देने लगी कि उसका ध्यान रखना और उसे कुछ हो गया तो तेरी चमड़ी उधेड़ ड़ालूँगी .... 

  ‘’ बाप रे !’’ ये बिल्ली तो अभी से डबल गेम खेल रही है । मुझे लगा कि आगे जरूर कोई खेल होने वाला  है । 

                              संकरी घरेलू गलियों से बाहर निकलकर  जब मैं बाजार की सड़क पर  आया तो भीड़ – भाड़  और शोर – शराबे से वह परेशान हो गई , आते – जाते तेज़ रफ़तार वाहनों  से बचने के लिए वह इधर –उधर उछलती रही, लेकिन हर तरह की परेशानियों  के बावजूद उसने मेरा पीछा नहीं छोड़ा । मुझे उम्मीद थी कि इन परेशानियों से उकताकर वह या तो ख़ुद ही कहीं चली जाएगी , या उसके ऊपर कोई ऐसी मुसीबत आ जाएगी की वह मुझे छोड़कर भाग जाएगी । 

                                अब मेरी दुकान ज़्यादा दूर नहीं रह गई थी , बस कुछ ही देर की बात है , दुकान पहुंचने के बाद मेरी ज़िम्मेदारी ख़त्म । अगर वह दुकान में घुसने की कोशिश करेगी,  तो वो जाने और पिताजी जाने । पिताजी अपनी दुकान की मिठाइयों पर मंडराने वाली हड़पखोरों की लालच से निपटना अच्छी तरह जानते हैं । कौव्वों- कुत्तों मख्खियों और गाय – बकरियों से तो वे चिढ़ते ही हैं , बिल्लियों से खास तरह की खुन्नस रखते हैं । क्योंकि वे रात के अंधेरे में पता  नहीं कहाँ से दबे पाँव  घुस आती हैं  और दही- रबड़ी के कुल्ल्हडों में मुह मार जाती है । 

                                मैं जब दुकान तक पहुंचा , तो मैंने मुड़कर देखा , बिल्ली चलते - चलते रुक गई थी  और संशय भरी नजरों से मुझे  देखने लगी , कुछ देर के लिए मैं सोच में पड़ गया कि अब क्या करूँ ? एक तरफ माँ की धमकी थी कि उसे कुछ होना नहीं चाहिए और दूसरी तरफ पिताजी का डंडा जिसकी सख़्त बेरहमी का स्वाद कई गाय कुत्ते और सांड चख चुके  थे  । 

                              मेरी इस दुविधा को समझने में बिल्ली को ज़्यादा वक़्त   नहीं लगा , उसकी नज़रों  में पहले संशय की जगह सतर्कता का भाव आया फिर वह पिताजी की तरफ देखने लगी , जो जलेबी बनाने में मग्न थे । बारी – बारी से मेरा और पिताजी का चेहरा कुछ देर तक पढ़ने के बाद उसने कुछ तै किया , और भट्ठी के पास आकर बैठ गई । 

                              पिताजी का जलेबी की तवी पर गोल – गोल घूमता हाथ रुक गया , वे बड़े गौर से  उस बिल्ली की बच्ची को देखने लगे । वह इतनी छोटी  और इतनी मासूम थी और  पिताजी को देखकर उसने इतनी कोमल और मधुर आवाज में अभिवादन किया,  कि पिताजी के चेहरे पर मुस्कराहट आ गई , 

‘’ आओ ... आओ...  माताजी पधारो ... ‘’ 

                       मैं यह देखकर दंग रह गया कि पिताजी के चेहरे पर  वाकई एक पैतृक स्नेह भाव था , और ये सिर्फ़ दिखावा नहीं था । मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि  पिताजी उन लोगों में से नहीं थे जो अंदर से कुछ और होते हैं , और बाहर से कुछ और दिखाई देते हैं । 

‘’ ये माता जी हमारे घर में पहले ही पधार चुकी है । ‘’ मैंने आगे बढ़कर कहा । पिताजी की ख़ुशमिजाजी को देखकर मेरा हौसला बढ़ गया था , ‘’ ये घर  से ही मेरे पीछे – पीछे यहां आई है , माँ ने इसे नहलाया और गोद में बैठाकर दूध भी पिलाया । ‘’  

‘’ अच्छा ..... तो ये तेरी माँ की सगी है ... तब तो इसे तेरा बाप भी नहीं रोक सकता । ‘’ 

                           इतना सुनना था कि बिल्ली खड़ी हो गई और अपनी दुम गर्व से उठाकर दुकान में चहल - कदमी करने लगी , उसके चलने का अंदाज कुछ ऐसा था , जैसे वह दुकान में फैली अव्यवस्था और लापरवाहियों का निरीक्षण कर रही हो । 

                            मैं और पिताजी दिन भर काम  में इतने व्यस्त रहते थे कि हमें साफ – सफाई और रख – रखाव का समय ही नहीं मिलता था । बहुत सी अगड़म – बगड़म चीजें जो  कबाड़ में बेचे जाने या फेंके जाने के इंतजार में पड़ी थीं , उसने उस कबाड़ के ढेर के अंदर घुसकर उसे न केवल  उलट – पुलट डाला बल्कि जमीन को भी कुरेदना शुरू कर दिया । उसके इस अचानक हमले से बोसीदा चीज़ों के ढेर के नीचे छिपे तिलचट्टे , चूहे और कीड़े – मकोड़े भाग निकले , लेकिन उसने किसी को भी दुकान के किसी दूसरे ठिकाने में छुपने का मोका नहीं दिया , वह उन्हें दुकान से बाहर खदेड़ने में लगी रही । 

                             मैं भी दिनभर अपने काम में व्यस्त रहा , पिताजी ने कोई नौकर  नहीं रखा था वे मुझे काम  सीखा रहे थे । दुकान की भट्टी दिनभर सुलगती रहती थी , और मुझे एक के बाद एक बनने वाली चीज़ों की तयारी  करनी पड़ती थी । मैंने बिल्ली की खुरापातों  से ध्यान हटाकर फटाफट काम निपटना शुरू कर दिया,  क्योंकि  शाम को मुझे अपने दोस्तों के साथ होली का चन्दा इकठ्ठा करने जाना था । पिताजी माल भी तलते  जा रहे थे और ग्राहकी भी निपटाते जा रहे थे,  पकौड़े तलकर निकालने के बाद उन्होने समोसे कढ़ाई में छोड़ दिये । ग्राहकों के बीच गरम पकोड़े खरीदने की होड़ लगी थी , मैंने कचौड़ी के लिए मैदा गूंथकर तैयार किया और उसकी लोई  काटकर भरावन भरने लगा । ग्राहकी अचानक बढ़ गई थी , माहौल में जैसे ही गहमा – गहमी बढ़ी , बिल्ली अपना काम  छोड़कर पिताजी के पास आ गई । वह ग्राहक और दुकानदार के लेनदेन को देखने लगी इतने ध्यान से , जैसे उसे सब समझ में आ रहा हो । मुझे हंसी आ गई । पिताजी हिसाब – किताब में इतने कमजोर थे कि कई बार लेन  – देन  में गलती कर बैठते थे । 

                                   उस दिन के बाद तो यह एक सिलसिला ही बन गया ।  वह रोज मेरे पीछे –पीछे घर से आती थी और शाम को जब दुकान से मुझे छुट्टी मिलती थी , तो वह भी मेरे साथ जाने के लिए तैयार हो जाती थी , जैसे उसकी भी डयूटी पूरी हो गई हो । शाम  के बाद मेरी दुनिया बदल जाती थी, दोस्ती यारी , अड्डेबाजी और गैंगबाजी करने का यही वक़्त होता था। हम गिरधर भाई पटेल के तम्बाकू के गोदाम के अहाते में ताश और सिगरेट की महफिल जमाते थे या दूसरे मुहल्ले के लौंडौं से निपटने की योजना बनाते थे ।  और ऐसे हरेक मौके पर वह बिल्ली हमारे साथ रहती थी, ख़ास तौर पर उस जगह जहां विधि  –निषेध के नियम तोड़े जाते हैं ,या  किसी और चीज़  की आड़ में कुछ और होता है ।   

                                माँ और पिताजी का मन उसकी लीलाओं और क्रीड़ाओं में लग गया था माँ तो उसके पीछे पागल हो गई थी , उसने बिल्ली का नाम बिन्नी  रख दिया था और वह दिनभर बिन्नी – बिन्नी करती रहती थी , लेकिन उस बिन्नी को असली प्यार तो मुझसे था । वह एक पल के लिए भी मेरा साथ नहीं छोड़ती थी , हमेशा मेरे पीछे लगी रहती थी । मेरे लिए वह जी का झंझाल बन गई थी , सच कहूँ तो मुझे उससे कोई लगाव नहीं था बल्कि  मैं हमेशा उससे कतराता रहता था क्योंकि वह मेरी सभी गुप्त और अंडरग्राउंड कारगुजारियों की प्रत्यक्ष गवाह बन गई थी । हालांकि उसके पास कोई ऐसी क्षमता नहीं थी कि वह मेरे भेद उजागर कर सके या माँ के सामने मेरे खिलाफ़  गवाही दे सके लेकिन यह सच है , कि मैं जब भी चोरी – छिपे किसी काम को अंजाम देता था , तब उसकी आँखें बदल जाती थी , मैं बता नहीं सकता कि उसकी आँखों में उस वक़्त  क्या होता था , लेकिन उसका प्रभाव किसी विकिरण से कम नहीं था । 

                              माँ अक्सर कहा करती थी कि मेरी बिन्नी बहुत प्यारी है , बहुत चंचल है और बहुत शर्मिली है , लेकिन माँ ने उसका वो रूप अभी तक नहीं देखा था ; जो मैं देख चुका हूँ । माँ की  वह बिन्नी मेरे लिए सिर्फ बिन्नी नहीं थी । जब से वह आई है माँ दिन – ब दिन स्वस्थ और उत्फुल होती जा रही थी लेकिन मैं हर वक़्त एक अलग तरह  के दबाव में रहता था , पहले मुझे इतना सजग और सतर्क रहने की जरूरत   नहीं होती थी,  लेकिन अब मेरी हर तरह कि मनमौजियों और रंगरेलियों पर उस बिल्ली की रहस्यमय आँखों का पहरा रहता था । कुछ ही दिनों में मुझे लगने लगा कि उसकी जान बचाकर मैंने  आफत मोल  ली है । 

                               सबसे बड़ी आफत तो ये थी कि उसके आने के बाद दुकान के धंधे में अचानक ऐसी बढ़ोतरी होने लगी,  कि ग्राहकी सँभालना मुश्किल हो जाता था । पिताजी के लिए तो बिल्ली लक्ष्मी का अवतार थी , लेकिन इस लक्ष्मी के कारण दुकान का काम इतना बढ़ गया था कि मुझे  अपने दोस्तों से  मिलने की फुरसत ही नहीं मिलती थी । 

                              बदले हुए हालात का नतीजा माँ और पिताजी के लिए बहुत फ़ायदेमंद था  लेकिन मैं अपने साथियों से धीरे – धीरे  कटने लगा , एक कारण तो यह था कि मुझे फुर्सत नहीं मिल रही थी और दूसरा ये कि मेरी सब इच्छाएँ  भी सुप्त होती जा रही थी।  पहले मैं अपने दल का अघोषित मुखिया था मैं जितना दबंग और आक्रामक था, उतना ही घुन्ना और चालबाज़ भी ।  मामला चाहे कोई भी हो, मेरे बगैर उसका निपटारा नहीं होता था । सिर्फ़ मेरे मुहल्ले में ही नहीं आस – पास के तीन मोहल्लों में मेरी धाक थी । लेकिन अब प्रभाव कम हो रहा था , ब्राह्मण पारा के एक मलय नाम के लड़के ने कुछ ही दिनों में अपनी धाक जमा ली थी , जो मुझसे चार साल बड़ा था । मेरे दल के सभी लड़के अब उसके प्रभाव में थे , जो लड़के कल तक मुझसे डरते थे,  अब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे थे पुर्रु और बउवा,  जो पहले मेरे दायें और बाएँ हाथ थे अब मलय के सबसे करीबी थे , दुकान से घर जाते समय या घर से दुकान जाते समय वे मुझे अक्सर घेर लेते , एक दिन पुर्रु ने बीन्नी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा , 

‘’ तुम्हारी प्रेमिका का क्या हाल है ? दिखने में तो बहुत खूबसूरत है , शादी कब कर रहे हो उसके साथ ? सुहागरात में हमको भी दावत देना । ‘’ 

                            उसकी इस बात पर बउवा खिलखिलाकर हंसने लगा । तीर की तरह चुभने वाले ऐसे मजाकों से बचने के लिये पहले तो मैं चुपचाप बिना कुछ कहे आगे निकल जाता था लेकिन मेरी इस ख़ामोशी को वे  मेरी  कायरता समझने लगे । फिर एक दिन तो हद हो गई  मलय ने दल के अन्य सदस्यों पर अपनी धाक जमाने के लिये बिन्नी को एक लात मार दी और उसकी इस गलती का खामियाजा सबको भुगतना पड़ा । मैंने इतनी तेजी से और इतने  ताबड़तोड़ तरीक़े से सबकी धुनाई की कि किसी को कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिला । 

                          फिर मैंने मलय की तरफ़ रुख़ किया , अभी तक मैंने सिर्फ़ नाम सुना था , अब मैं उसके रू-ब-रू था।  मैंने सीधे उसकी आँखों में आँखें धंसा दी , वहाँ मुझे सबसे साफ़ जो चीज़ दिखाई दी,  वह  थी – हवस । सबकुछ हड़प जाने वाली एक ऐसी हवस ,  जो सिर्फ़ दूसरों का ख़ून पीने वाले जानवरों की आंखो में होती है । मुझे देखकर वह धीरे से मुस्कुराया और तब मैंने देखा , उसके जबड़े में दाँयी और बाँई और के दोनों दांत किसी वहशी जानवर की तरह लंबे और नुकीले थे । बीच के सभी दांत भी एक – दूसरे से सटे  हुए नहीं थे , उनमें गेप थी । कुछ देर बाद उसके चेहरे से मुस्कराहट गायब हो गई , फिर अगले ही पल पिच्च की  आवाज़ के साथ उसने अपने ऊपर के दांतों की गेप से थूक की एक तेज़,  जहरीली पिचकारी मेरे चेहरे पर मारी । अपने शत्रु को ललकारने का उसका ये अपना ख़ास अंदाज था । और मैंने भी दाएँ हाथ से उसके अंडकोश को भींचकर अपना तरीका बता दिया , वह दर्द से चीख़ उठा उसके मुँह से माँ की गाली निकल गई लेकिन मैंने उसके अंडकोश को तब तक दबोचे रखा जब तक उसका चेहरा पीला नहीं पड़ गया और मुँह से झाग का फीचकर बाहर न आ गया  । 

                          फिर मैंने बिना कुछ कहे , बिना कोई धमकी या चेतावनी दिये एक सरसरी नज़र से सबको देखा और बिन्नी को अपने हाथ में उठाकर वहाँ से चला गया ।  

                         घर की तरफ़ लोटते समय मैं बहुत विचलित था मुझे डर ये नहीं था कि बदला लेने के लिये वे मुझपर पीठ पीछे वार करेंगे , असली डर ये था कि वे अब बिन्नी को अपना निशाना बनाएँगे । 

                        घर पहुँचते ही मैं घर के पिछवाड़े में टीन की ढलुवाँ छत वाले उस कमरे में चला गया जिसे सिर्फ़ भंडारण और कबाड़ख़ाने के रूप में उपयोग में लाया जाता था । सीलन और उमस से भरा  वह  कमरा कई - कई दिनों तक बंद रहता था । मैंने बिन्नी को वहाँ छोड़ दिया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया , लेकिन अगले ही पल उसने कोहराम मचा दिया । माँ की परवरिश ने उसे इतना ताकतवर बना दिया था , और वह खुद भी इतनी जिद्दी थी कि  उसने दरवाजे को हिलाकर रख दिया । माँ को बिन्नी  के प्रति मेरा ये रवैय्या देखकर गुस्सा आ गया, वह मुझपर चिल्लाने लगी , उतनी ही तेज़ आवाज़ में,  जितनी तेज़ दरवाजे के पीछे से बिन्नी की आवाज़ आ रही  थी । मैंने माँ को समझाया कि कुछ ‘’  कुत्ते ‘’  बिन्नी के पीछे पड़ गए हैं , अगर वह बाहर गई , तो कोई भरोसा नहीं कि उसके साथ क्या हो जाये । 

                            माँ को तुरंत मेरी बात समझ में आ गई मगर उस बिल्ली की बच्ची को कौन समझाता ? वह तो आज़ादी के लिये अपनी जान देने पर तुली थी । 

 ‘’ तूँ जा अपना काम देख । ‘’ माँ ने मुझसे कहा , ‘’ मैं बिन्नी को समझा दूँगी । ‘’ माँ के चेहरे पर उस वक़्त ऐसा भाव था,  जैसे वह कोई बड़ा कर्तव्य निभाने का संकल्प ले रही हो । 

                             माँ ने उसे कैसे समझाया होगा यह तो मैं नहीं जानता लेकिन उस दिन के बाद बिन्नी के व्यवहार में एक अनोखा परिवर्तन दिखाई दिया , बंद कमरे से आजाद कर दिये जाने के बावजूद उसने मेरे साथ बाहर आना छोड़ दिया , यह माँ के समझाने का असर था या वह मुझसे रूठ गई थी ? बात चाहे जो हो लेकिन अब उसने मेरा पीछा करना तो दूर मेरे पास आना भी छोड़ दिया , बल्कि जब मैं घर आता था तो वह ऐसे कतराकर  निकल जाती थी जैसे उसने मुझे पहचाना ही न हो । 

                             कुछ दिनों पहले मैं उसके पिछलग्गूपन से परेशान था और अब उसकी बेरुख़ी मुझसे सहन नहीं हो रही थी , फिर भी उसे पुचकारना और मनाना मुझे बेतुका लगा । और वैसे भी मुझे मालूम था कि मेरे ऐसे किसी भी प्रयास का क्या अंजाम होगा । इसलिए उसके सामने किसी तरह की कमजोरी प्रकट करने के बजाय मैंने उसके चेहरे के संकेत तलाशने की कोशिश  शुरू कर दी । उसकी आँखों में जो कुछ  अभिव्यक्त हो रहा था , वह तीव्र भावावेश था । साफ़ जाहिर हो रहा था कि मैंने उसे जिस इरादे से कमरे में बंद करने की कोशिश की थी , उसे उसने किसी और नजरिए से देखा था , उसे शायद यह लग रहा था कि मैं उससे पीछा छुड़ाने या उससे कुछ छुपाने की कोशिश कर रहा हूँ । 

                             मैंने कोई सफ़ाई नहीं दी । एक न एक दिन उसे ख़ुद यह मालूम हो जाएगा , कि मेरा इरादा क्या था , और यह भी , कि मैंने बुराई का रास्ता छोड़ दिया है । 

                            जब मैं यह सब सोच रहा था , तब मुझे मालूम नहीं था कि हिंसा और क्रूरता के खेल में जो एक बार पड़ जाता है , वह उस खेल से कभी बाहर नहीं निकल पाता । बुराई का रास्ता छोड़ देने पर यह जरुरी  नहीं है कि बुराई भी पीछा छोड़ दे । कुछ पुराने घाव कभी नहीं सूखते , वे अपना काम करते रहते हैं । उन घावों का एक ही मकसद होता है – प्रतिहिंसा । 

                            अपने पुराने साथियों से मेरी जो झड़प हुई थी , उसके बाद मैंने उनसे मिलना छोड़ दिया । होली नजदीक आ रही थी लेकिन अपनी टोली से मैं बाहर था अब उस टोली ने,  जिसका मुखिया मलय था ,  शहर में उत्पात मचा रखा था । वे दूकानदारों से मनमाना चन्दा वसूल कर रहे थे और उनकी मुराद पूरी न होने पर बत्तमीजी और जबर्दस्ती कर रहे थे । 

                      होली के दिन मलय मेरी दुकान के सामने आकर खड़ा हो गया , अपने दल – बल के साथ ।  सब के सब पिये हुए थे । 

‘’ क्या चाहिए । ‘’ पिताजी ने सभी को एक नजर देखने के बाद मलय से पूछा । 

‘’ हम चन्दा लेने आए हैं ।‘’ मलय ने दाएँ हाथ की तर्जनी से अंगूठे को रगड़ते हुए नोट  गिनने का प्रतिकात्मक इशारा किया  । 

पिताजी ने गल्ले से दस – दस के कुछ नोट निकालकर उसे गिनने के बाद मलय की तरफ हाथ बढ़ा दिया । मलय ने नोट हाथ से लेकर उसे अपनी मुट्ठी में मसलकर वापस पिताजी  के चेहरे पर फेंक दिये, 

‘’ हम लोगों को क्या  भिखारी समझ रखा है ? ‘’

                              पिताजी अवाक  रह गए , उनके साथ ऐसा व्यवहार पहले किसी ने नहीं किया था मलय ने उन्हें धक्का देकर गल्ले से हटाया और सीधे गल्ले में हाथ डाल दिया । 

‘ ये कौन – सा  तरीका है चन्दा लेने का  ‘’ पिताजी ने आवेश में आकर मलय का हाथ पकड़ लिया जिसमें सौ – सौ के नोट थे , ‘’ तुम लोग चन्दा लेने आए हो या लूट मार  करने ..... ‘’ 

                      इतना सुनते ही मलय ने शो केश के ऊपर पड़ी जलेबी की परात सड़क पर फेंक दी , शोकेश में लात  मारकर काँच फोड़ दिया । मैं अपने हाथ का काम  छोड़कर बाहर आया लेकिन  पुर्रु और बउवा ने मुझे पीछे से झकड़ लिया । मलय ने मेरी तरफ देखा फिर मेरे पास आकर मेरे चेहरे पर थूक की पिचकारी मारी और दुकान के अंदर घुसकर पिताजी के कुर्ते  का दामन पकड़कर उन्हें खींचते हुए दुकान से बाहर सड़क पर ले आया  । फिर उसके बाद जो हुआ , उसे देखकर मैंने अपनी आँखें बंद कर ली । 

                              और उस दिन के बाद मैंने दुनिया की तमाम  दूसरी चीजों से नाता तोड़ लिया । मैंने अभी अपनी किशोरावस्था पार नहीं की थी और मेरे खेलने – खाने के दिन अभी बाकी थे , लेकिन मैं यह महसूस कर रहा था कि मेरे यौवन पर कुछ दूसरे ठोस प्रभाव तेजी से अपना असर दिखा रहे थे । 

                             यह मेरे जीवन का एक ऐसा दौर था जिसे समझना या समझा पाना मेरे लिए कठिन है । मैं बदल रहा था । मेरे आस –पास का भी सब कुछ बदल रहा था । जिस मंथर गति से पहले सारे काम –काज चलते रहते थे , उसमें तेजी आने लगी लोगों ने समय की रफ़्तार के साथ चलने के लिए कई तरह की उठा  – पटक शुरू कर दी । हमारा कस्बा अब शहर में बदल रहा था , जिसका सीधा असर कस्बे की घनी आबादी पर पड़ा । सड़कों और गलियों का चौड़ीकरण  शुरू हुआ तो कई दुकानों और मकानों की शक्लें बदल गई । सबसे ज्यादा परेशानी उन्हें हुई जो किराएदार थे । हमारी दुकान किराए की थी और घर भी । इस अफरा – तफरी में हमें घर भी बदलना पड़ा और दुकान भी । 

                            मैंने दुकान का सामान एक दिन पहले ही नई दुकान में पहुंचा दिया था । पिताजी नई दुकान में भट्टी बनाने में लगे हुए थे और माँ  नए घर की साफ – सफाई में लगी थी  । मैं अपना पुराना घर खाली करने में लगा था , मैंने सामानों को दो अलग – अलग ठेलों में लदवा दिया । जब मैं वहाँ से जा रहा था तो कुछ पड़ोसियों की आँखें भर गई , लेकिन कुछ आँखें ऐसी भी थी जिसमें उपहास का भाव था , उन आँखों में मलय की नशे में डूबी आँखें भी शामिल थी । एक ठेला तो धड़धड़ाते हुए आगे निकल गया लेकिन दूसरे ठेले में थोड़ा वजनदार सामान था । मैं पीछे से ठेले को धकेल रहा था । ठेलेवाला हमाल थोड़ा बूढ़ा और कमजोर था । गली से बाहर निकलकर हम जब सड़क पर आए तो चढाई चढ़ने में ख़ासी दिक्कत आ रही थी,  ऐसे में कुछ हाथ मदद के लिए आगे बढ़े ।  ठेले की चौखट के पिछले हिस्से में जहां मेरे हाथ थे , उसके ठीक पास पहले मलय के दो हाथ दिखाई दिये , जिसमें ब्लेड से लगाए गए चीरे के कई पुराने  निशान थे , उसके बाद पूर्रू और बउवा के हाथ भी शामिल हो गए । वे हाथ आपस में कोई गुप्त साजिश कर चुके थे । ठेले को हांकना सिर्फ़ एक दिखावा था , उनकी आँखों में हरामीपन भरा हुआ था । अब से पहले मलय ने फब्ती कसी , 

‘’ क्यों हमारे इलाके को छोड़कर कहाँ अपनी गांड़ मरवाने जा रहे हो ? ‘’ 

                         मैंने कोई जवाब नहीं दिया । जब कोई बड़ी ज़िम्मेदारी आपके सिर पर लदी  हो तो आप किसी से तकरार नहीं कर सकते । 

‘’ तेरी  बिल्ली कहीं नजर नहीं आ रही है , क्या वो  तेरे को  छोड़ के  किसी दूसरे के साथ भाग गई ? ‘’ मलय ने फिर मुझे छेड़ा , वह इस फिराक में था कि मैं कुछ कहूँ और वह मुझ पर टूट पड़े । लेकिन मैं चुप रहा और बिन्नी  के बारे में सोचने लगा । घर का सामान उठाने – धरने की व्यस्तता के कारण मेरा उसकी तरफ बिलकुल ध्यान नहीं था , मुझे लगा कि माँ उसे अपने साथ ले गई होगी । 

‘’ फिकर मत कर  बेटा ... वो हमारे पास है ... हम उसका पूरा ध्यान रखेंगे ....’’

 मैंने आँखें तरेरकर मलय की और देखा , उसका चेहरा भयंकर अश्लील हरामीपन से भरा हुआ था । 

‘’ इसका अंजाम अच्छा नहीं होगा  ‘’ मैंने उसके कान के पास अपना मुंह ले जाकर कहा । 

‘’ अच्छा ... क्या कर लेगा बे तूँ । ‘’ उसने मेरा कालर पकड़ लिया । हमारा ठेला चढ़ाई के सबसे कठिन मोड पर था , और उन मददगारों ने एक साथ अपने हाथ खिंच लिए ।  सिर्फ़  इतना ही नहीं उन्होने  ठेले वाले को भी धक्का मार दिया और ठेले को ढलान की तरफ धकेल दिया । ठेला बहुत तेजी से धड़धाड़ते हुए लुढ़कने लगा और घर का सामान सड़क पर गिरने लगा , एक साइकिल वाले एक स्कूटर और एक रिक्शे  से टकराने के बाद सड़क पर जमीन में सजी सब्जी की दुकान को रौंदते हुए ठेला एक किराने की दुकान में जा घुसा । 

                           बौखलाए हुए लोगों ने आव देखा न ताव और सीधे ठेले वाले हमाल की पिटाई शुरू कर दी, मैंने बीच बचाव की बहुत कोशिश की लेकिन भीड़ का कोई विवेक नहीं होता , भीड़ जब कुछ कर गुजरने पर आमादा हो तो उसे रोकना मुश्किल होता है ।    

                            जब तूफान गुजर गया तो ठेले वाला हमाल बीच सड़क पर रो रहा था , उसके मटमैले चेहरे पर आँसू और खून कीचड़ की तरह फैल गए थे । मैंने उसे सहारा देकर उठाया फिर कुछ राहगीरों ने रुककर  उसके कंधे और पीठ पर हाथ रखकर उसे हौसला दिया और घर के बिखरे हुए सामान को समेटने और उसे फिर से ठेले पर लादने में मदद करने लगे । घर की कई चीजें टूट – फूट गई थी । दाल- चाँवल और आंटे के कनस्तर ओंधे पड़े थे। माँ का सिंगारदान उसकी चूड़ियाँ और कंगन उसका चूल्हा – तवा , बेलन – चकला और चिमटा , कटोरियाँ  और चम्मचें ... ये सब चीजें जो सरेआम अपमानित हुई थी , मुझे बदले के लिए उकसा रही थी लेकिन इन सब चीज़ों के बीच मुझे बिन्नी का चेहरा दिखाई दे रहा था , जो अब उनके कब्जे में थी । 

                               जब मैं ओर ठेले वाला हमाल शहर से दूर एक पिछड़े इलाके की तरफ जाने वाली  सड़क पर पँहुचे तब सड़क सुनसान थी , ठेले का एक पहिया घायल हो गया था इसलिए  ठेला लंगड़ाकर चल रहा था , उसकी लंगड़ाती चाल से एक अजीब – सी कातर और कराहती आवाज सुनाई दे रही थी । उस चरमराहट से मेरे भीतर भी कुछ चरमराने  लगा  था लेकिन मैंने मुट्ठी भींच ली और खुद को चरमराने से रोके रखा । 

                               जिस नए इलाके में पिताजी ने दुकान किराए से ली थी , उसे दुकान कहने के बाजाय टपरी कहना ज़्यादा ठीक रहेगा और उस टपरी से थोड़ी दूर जो घर किराए से लिया था , उसे भी घर कहने के बाजाय झोंपड़ी कहा जा सकता है । वह गाँव और शहर के संगम पर स्थित एक ऐसा  चौक था,  जिसके एक तरफ देशी दारू की दुकान थी , दूसरी तरफ दिहाड़ी पर जाने वाले मजदूरों का ठीहा था । सड़क पर कुछ फल – सब्जी और मछ्ली बेचने वाले भी बैठते थे । एक बस स्टॉप भी था , जिसके शेड के नीचे यात्री कम , मावली ज़्यादा नज़र आते थे । 

                                            

                            वहाँ दर्जनों ऐसे आदमी दिखाई देते थे , जिनके हाव – भाव खिन्न थे , डाढ़ियाँ बढ़ी हुई थी,  धूप से चेहरे तपकर काले पड़ गए थे और आँखें हमेशा लाल रहती थीं । उनमें से कुछ हट्टे – कट्टे और दबंग थे और कुछ थके – हारे फटीचर । वे सड़क किनारे पेड़ के नीचे बैठकर गाँजा पीते थे और दिनभर ताश खेलते थे , उनमें से अधिकांश निठल्ले थे और उनकी ओरतें मेहनत – मजदूरी से घर चलाती  थी , कई बार वे उन्हें मार -  पीटकर  उनकी मजदूरी भी उनसे छीन  लेते थे । वे कई घिनौनी करतूतों में लिप्त रहते थे और मारपीट , गाली-  गलौज या छीना  – झपटी करते रहते थे । उनके चेहरे वहशियों जैसे हो जाते थे । लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो छीनने और लड़ने में असमर्थ हो हो गए थे। वे दिनभर कहीं से कुछ चुरा लेने या किसी से कुछ मांगते रहने में अपना दिन गुजारते थे । उस जमघट में चाहे जितना वहशीपन  और भौड़ापन था लेकिन ये उनका नेचर था। उसके पीछे कोई कमीनापन नहीं था । वे आपस में उलझ जाते थे लेकिन दूसरे दिन सब भूल जाते थे , उनमें से किसी के चेहरे पर न तो अपने किए का कोई पछतावा होता था न ही किसी दूसरे के लिए कोई बदले की भावना । सबसे बड़ी बात तो ये थी कि इतने घमासान के बावजूद उनके बीच कोई गुटबाजी नहीं थी। वे धूर्त और चालाक नहीं थे । 

                               ठीहे पर दिहाड़ी के काम के लिए आने वाली मजदूर औरतें भी कुछ कम  नहीं थी,  उन्हें भी दो – दो हाथ करने,  गंदी गलियाँ बकने और  खैनी – गुटका खाने की आदत थी । उनका भी कई – कई मर्दों से सिलसिला चलता रहता था लेकिन वे वैश्यालू या धंधेबाज नहीं थी और वे किसी तरह की लालच के लिए नहीं,   सिर्फ़  मौज – मस्ती के लिए इत  – उत करती थी।  उन्हें मर्दों को फाँसने में उतना मजा नहीं आता था जितना उन्हें आपस में लड़वाने में ।  अपने चाहने वालों को वे जब तक आपस में लड़वा नहीं देती थी तब तक उनका जी नहीं भरता था।  

                               मुझे बहुत  जल्द समझ में आ गया कि मैंने जिस नए जीवन – वृत्त में प्रवेश किया है , वह बहुत खुरदरा और तपा हुआ है । उसमें किसी तरह का कोई बाँकपन , किसी तरह की कोमलता या किसी तरह की पवित्रता  और सदाचार नहीं है । 

                   लेकिन मैं यहाँ मानव मन की झलकियाँ देखने नहीं  आया था , मुझे उनके बीच रहते हुए अपने घरबार और रोजगार का सिलसिला चलाना था । मैंने उस नए माहौल  में खुद को पूरा डूबो दिया । अपने  काम - काज में , भीड़ –भाड़  में और आए दिन होने वाली झंझटों में मैं इसलिए उलझता रहता था,  ताकि बिन्नी की याद न आए । उसके साथ जो हुआ था,  और उसे अंतिम बार मैंने जिस रूप में देखा था , उसे याद करते ही मैं भयानक पीड़ा और उतनी ही विषैली प्रतिहिंसा से भर उठता था । 

                             बिन्नी की पिछली टांगों को तोड़ दिया गया था और उसकी योनि में एक मोटा खिल्ला घुसाकर उसे मेरी दुकान के पास छोड़ दिया गया था...  और वह अपनी नाकाम टांगों को घसीटते हुए चौक  तक चली आई थी... उसे उस हालत में देखने के बाद मैं पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ा रह गया , मैं रो नहीं सका । कोई चीज़  मेरे गले में फंस गई और लगभग पंद्रह दिनों तक उस सदमे के कारण मेरे मुंह से एक शब्द नहीं निकला । काश मैंने सिर्फ बिन्नी की टूटी हुई टांगों को देखा होता , उसके चेहरे को न देखा होता । मैं जब तक जीवित रहूँगा उस चेहरे को नहीं भूल पाऊँगा । 

                           उस दिन के बाद कई दिनों तक मेरा मन खिन्न रहा । सब कुछ बहुत बुरी तरह से उलझ गया था। एक तरफ बेहद कोमल और करुण भाव थे , दूसरी तरफ सब कुछ तहस – नहस कर  देने वाली नफरत  ..... ये सच है कि नियति ने बिन्नी  को मेरे पास भेजा था लेकिन मैंने उसे नियति के पास वापस नहीं भेजा था । मैंने यह फैसला कर लिया था कि मैं उसे भाग्य के भरोसे नहीं छोड़ूँगा और मैंने उसे सही सलामत वापस लाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी  थी , लेकिन अपने प्रयासों में बिलकुल अकेला था । बिन्नी का पता लगाने में किसी ने मेरा साथ नहीं दिया  आखिर उन हरामजादों ने वही किया जो वे करना चाहते थे। 

                           पंद्रह दिनों तक मैं शोक में डूबा रहा , लेकिन उसके बाद मेरे अंदर एक बड़ा बदलाव आया।  अब मैं यह बिल्कुल जाहिर नहीं होने देता हूँ कि मैं क्या महसूस कर रहा हूँ , मेरे दिमाग में क्या चल  रहा है और मैं क्या करने वाला हूं  ।  मैंने बकायदा अभ्यास किया और कठिन तप से ये हुनर सीखा , और अब स्वाभाविक रूप से  चेहरे पर आने वाले भावों के बजाय ,  उससे ठीक विपरीत भाव अपने चेहरे पर लाने में मैं सक्षम हो गया हूँ । बिन्नी होती तो तुरंत ताड़ जाती कि मैं क्या सोच रहा हूँ और क्या करने जा रहा हूँ ….  लेकिन अब वह इस दुनिया में नहीं है ... अब मेरे अलावा कोई नहीं जानता कि मैं कौन हूँ । मेरे व्यवहार में दिखाई देने वाली विनम्रता और सहयोग भाव की आड़ में मेरी असलियत क्या है । 

                               दुकानदारी को पटरी में लाने में भी मेरे इस बदले हुए रूप का बहुत बड़ा योगदान था और जब ग्राहकी का सिलसिला चल निकला  , मैंने दुकान के काम से समय निकालकर फिर से शहर के उन इलाकों में जाना शुरू कर दिया , जहां मेरे  पुराने दोस्त ( दुश्मन ) रहते थे।  तंबाकू का वह  गोदाम अब सिर्फ ताश और सिगरेट के अड्डे तक सीमित नहीं रह गया था,  वहाँ कई बड़े कांड होने लगे थे।  गोदाम का एक  हिस्सा इतना जर्जर हो गया था कि वहाँ कुछ भी नहीं रखा जाता था , पलस्तर उधड़े फर्श पर चारों तरफ सिगरेट के टुर्रे , गुटके के पाउच देशी और अँग्रेजी शराब के पव्वे और इस्तेमाल किए गए कंडोम बिखरे पड़े रहते  थे  । 

                               कई दिनों बाद जब एक दिन मैं उस गोदाम में गया तो वहाँ मेरे फिर से आगमन को बहुत हेय दृष्टि से देखा गया।  मेरे साथ बहुत अपमानजनक व्यवहार हुआ ,  मुझे गांडु की उपाधि दी गई , मुझे ख़ुद  अपना ही थूक चांटने को कहा गया । मैंने सबकुछ विनम्रता पूर्वक स्वीकार कर लिया । कुछ दिनों बाद मेरे प्रति उनके व्यवहार में  थोड़ा बदलाव हुआ , उसका कारण ये था कि उनकी जेब हमेशा  खाली रहती थी और मेरी जेब हमेशा रुपयों से  भरी रहती थी । यह जानने के बाद कि कौन – कौन किस लत का शिकार है , मैंने उसी हिसाब से उनपर खर्च करना  शुरू कर दिया  , उसके अलावा मैं यह जानने की भी लगातार कोशिश करता रहता था कि किस – किस नशीले पदार्थ में क्या – क्या मिलाने से उसके कौन – कौन से दुष्प्रभाव होते हैं ।  

                               मेरी गुप्त योजनाएँ बिलकुल सही दिशा में क्रियान्वित हो रही थी और उसके बहुत अच्छे दुष्परिणाम आने शुरू हो गए थे सबसे पहले मैं मलय के करीबी साथियों को ठिकाने लगाना चाहता था ताकि मलय पूरी तरह मुझपर निर्भर हो जाए दो महीने बाद पुर्रु और बउवा ने वहाँ आना छोड़ दिया,  दोनों गंभीर रूप से बीमार थे एक को खूनी पेचिश और दूसरे को अल्सर की बीमारी थी । 

                            उनके जाने के बाद कुछ और नए लड़के अड्डे में आने लगे थे , इस तरह के गुप्त अड्डे खुद अपने आप में किसी संक्रामक बीमारी से कम नहीं होते , नए – नए लड़के संक्रमित होते रहते हैं । लेकिन नए लड़कों पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया । मैं मलय के डोज़ बढाता गया उसकी हिंसा और काम वासना को भड़काए रखने में मैंने कोई कमी नहीं आने दी । पहले मैं उसे चरम पर  ले जाना चाहता था और उसके बाद ....  

                          लेकिन मेरे इस इरादे के रास्ते में अचानक एक अवरोध आ गया । एक रात जब मैं मलय को नशे की अच्छी खुराक देकर लौट  रहा था तो किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा , मेंने गर्दन घुमाकर और सिर ऊपर उठाकर देखा,  जिस लड़के ने मेरे कंधे पर हाथ रखा था वह  कद में मुझसे ऊंचा था उसके बाएँ गाल पर और पेशानी के बीचों बीच पुराने जख्म का निशान था।  मैं पहचान गया – वह मुश्ताक था उसने धीरे से मुस्कुराकर अपनी भौंहे ऊपर उठाई और पूछा , 

‘’मुझे जानते हो ? ‘’ 

                           मैंने कोई जवाब नहीं दिया मैं उसे अच्छी तरह जानता था । हालांकि मेरा उससे कोई लेना – देना नहीं था और वह एक दूर के इलाके का था, लेकिन उसका नाम सिर्फ अपने इलाके तक सीमित नहीं था पूरे शहर में उसकी धाक थी ।  वह कभी किसी कमजोर पर अपना रौब नहीं जामाता था,  बल्कि सीधे उनसे टक्कर लेता था , जिनसे आँख मिलाने से भी लोग डरते हैं । वह हमेशा डरने वालों को यह सबक सीखाता था कि डराने वालों से कैसे निपटना चाहिए । कई ऐसे लड़कों को वह उन उत्पीड़कों के चुंगल से छुड़ा चुका था जो किसी न किसी डर के कारण फंस गए थे । 

                               कुछ देर वह यूं ही मेरे साथ चलता रहा , फिर उसने अपनी बायीं बांह मेरे कंधे में डाल दी , जैसे मेरा कोई पुराना दोस्त हो , 

‘’ कहाँ से आ रहे हो ? ‘’ 

                             मैंने इस बार भी कोई जवाब नहीं दिया । 

  ‘’ क्या तुम मुझसे डरते हो ? ‘’ 

‘’ नहीं !’’   मैंने इस बार साफ़ जवाब दिया , ‘’ मैं किसी से नहीं डरता । ‘’ 

‘’  हम्म .... ‘’ उसने लंबी हुंकारी भरी और अपनी भारी  आवाज में कहने लगा , 

‘’  लेकिन जिस तरह से तुम मलय पर पैसे लुटाते हो  उसे देखकर कोई भी यही सोचने लगेगा कि तुम उससे दबे हुए हो , या किसी मामले में फंस गए हो , और अगर तुम उसपर खर्च नहीं करोगे तो तुम्हारा राज जाहिर  हो जाएगा ।  है न ? ‘’ 

‘’ नहीं ऐसा कुछ नही है । ‘’ मैंने तल्खी से कहा और अपनी चाल  तेज केर दी । लेकिन उसकी बांह थोड़ी सख्त हो गई और उसने बलपूर्वक मुझे रुक जाने पर मजबूर कर दिया । 

उसकी इस सख्ती से मैं जरा खीज गया लेकिन मैंने अपनी खीज जाहिर नहीं होने दी । 

‘’ सुनो तुम्हें उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है । ‘’ उसने अब मेरे कंधों पर अपने दोनों हाथ रख दिये , ‘’ अगर तुमसे कुछ गलत हो गया है तो भी  नहीं .... किसी से डरना मतलब उसे अपने ऊपर हावी होने देना है । और एक बार जब कोई हावी हो जाता है , तो उससे छुटकारा पाना मुश्किल होता है ...... ‘’

                            मैंने उसकी तरफ देखा , और कुछ देर देखता रहा । मेरे इस तरह देखने का मतलब ये नहीं था कि मैं उसकी बातों से प्रभावित हूँ , लेकिन उसे लगा कि मैं उसकी बातों में आ गया हूँ । अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और मुझे खींचते हुए एक बिजली के खंभे के पास ले आया । स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी सीधे उसके चेहरे पर पड़ रही थी उसकी निगाहे मेरे चेहरे पर जमी थी मैंने देखा उसकी आंखे सचमुच बहुत गहरी थी और सबकुछ भाँप लेने वाली भी , 

‘’ तुम पिछले कई दिनों से अपने पिताजी की गैरहाजरी  में दुकान के गल्ले से पैसे चुराते रहे हो ...  तुम अपने ग्राहकों के साथ भी लेन – देन  में धोखाघड़ी करते हो ... तुम चोर – उच्चकों से चोरी का माल खरीदते हो और लल्लू कबाड़ी के यहाँ तीन गुनी ज़्यादा  क़ीमत  में बेच आते हो ... है न ?’’

                              मैं बुरी तरह चौक  गया , अपनी गोपनीयता खुल जाने के डर से नहीं । इस बात से कि मेरे बारे में इतनी पक्की जानकारी हासिल करने के पीछे उसका मकसद क्या है ? 

‘’ और ये सब तुम अपने लिए नहीं, उसके लिए करते हो , उस मलय के लिए करते हो जो पहले तुम्हें माँ – बहन की गालियां  बकता था , जिसने होली के दिन तुम्हारे बाप को बीच सड़क पर लाकर नंगा किया था । ‘’ 

                            मैंने बहुत गहरी सांस ली , अपने होंठ भींच लिए और चेहरा झुका लिया । कुछ देर के लिए मैं इस सोच में पड़ गया , कि पिताजी के इतने भयानक अपमान के बावजूद इस बात को लेकर मेरा खून क्यों नहीं खोलता ? मैं दूसरी तमाम बातों को भूलकर सिर्फ बिन्नी की मौत  का बदला क्यों लेना चाहता हूँ ? क्या बिन्नी मेरे जन्मदाता से भी ज्यादा महत्वपूर्ण थी ? जब पिताजी को यह मालूम पड़ेगा कि मैं अब भी मलय  से मिलता हूँ , तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे ? पहली बार मैंने अपने आप को एक दूसरे नजरिए से देखा और तब मुझे लगा कि जब कोई '' चीज़  '' किसी के अंदर घर कर  जाती है , तो उसे उसके अलावा कुछ भी नहीं दिखता । दुनिया के लिये  उसका चाहे  कोई मतलब न हो, पर जिसके अंदर वो चीज़  होती है , सिर्फ वही जानता है कि वह उसके अन्तर्मन में कैसा  खिलवाड़ करती है ।  उस खिलवाड़ को न तो कोई देख सकता है न समझ सकता है । 

                 कुछ देर बाद मैंने सिर उठाया , 

'' तुम क्या चाहते हो ? '' मैंने पूछा 

                    वह धीरे से मुस्कुराया , 

'' बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा और उसे भी ... क्या नाम है उसका ...?'' 

'' मलय ... '' 

'' तुम्हें उसका असली नाम मालूम है ?'' 

                        मुझे आश्चर्य हुआ मैं सचमुच उसका असली नाम नहीं जानता था । 

'' मृत्युंजय नाम है उसका । '' उसने कहा , ''  तुम जानते हो मृत्युंजय का क्या मतलब होता है ? ‘’ 

            मैंने ‘ न ‘ में सिर हिला दिया । 

‘’ कोई बात नहीं बहुत जल्द जान जाओगे... क्योंकि बहुत जल्द मैं उससे मिलने वाला हूँ ‘’

               उसके चेहरे  पर एक रहस्यमय , छुपे हुए अर्थ वाली मुस्कुराहट आ गई ।  

'' क्या तुम मेरी खातिर उससे मिलने वाले हो ? '' मैंने पूछा । 

            उसने फिर मेरे कंधों पर हाथ रख दिये , 

'' शांत हो जाओ ... तुम्हारा उससे डरना ठीक नहीं है ।'' 

                           मैं इस बार चिल्लाकर  कहना चाहता था , कि मैं तुम्हारे बाप से भी नहीं डरता , लेकिन मैंने अपने आप को रोक लिया । मुझे लगा अगर उसे भ्रम है कि मैं मलय से डरता हूँ , तो इस भ्रम को बने रहना चाहिए । उधर मलय को भी यही भ्रम था कि मैं उससे डरता हूँ । इसका मतलब इन दोनों को मेरे असली इरादों के बारे में कुछ भी पता नहीं है । 

                         कुछ देर यूं ही खड़े रहने के बाद उसने मेरी तरफ  हाथ  बढ़ाया , मैंने अनिच्छा से हाथ मिलाया , लेकिन उसने पुरजोर तरीके से मेरे कन्धों को थपथपाया , जैसे यह जाहिर  करना चाहता हो कि अब तुम्हें कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं है । 

                          जब वह चला गया तो मैं कुछ  देर उसे जाते हुए देखता रहा और सोचता रहा कि मलय और मुश्ताक  में क्या फ़र्क  है । दोनों हिंसक प्रवित्ति के हैं, लेकिन दोनों की हिंसा की प्रकृति अलग है ।

                           बहरहाल मैं इस बात से आश्वस्त था कि मेरे बारे में कोई कुछ नहीं जानता । मेरे बाहरी हालत को मुश्ताक ने बहुत अचूक और सटीक तरीके से पकड़ लिया था , लेकिन उसके अंदर उस ध्राण शक्ति का  और उस दृष्टि का अभाव था, जो चीजों की बिलकुल निचली तहों तक जाती है । उसने बिन्नी के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा था और इसलिए वह कभी यह अनुमान नहीं लगा पाएगा कि मैं मलय को भी उसी रूप में  देखना चाहता हूँ , जिस रूप में मैंने बिन्नी को सड़क पर घिसटते हुए देखा था .... 

 (  2 )  

आज मैं एक वयस्क के रूप में जो कुछ कह रहा हूँ ठीक वही सब मैं उस वक्त भी महसूस करता था , लेकिन तब मैं खुद को यह समझा नहीं पता था कि यह सब बहुत भयानक है और अच्छा नहीं है ,  और मैं दुनिया के बनाए रास्ते पर चलने के बाजाय फिसलन भरे रास्ते पर चल  रहा हूँ एक ऐसे रास्ते पर जो शैतानियत  का रास्ता है , भयानक पतन की  और जाने वाले इस रास्ते में एक बार फिसल जाने के बाद सँभलकर खड़ा होने या वापस लौटने की कोई गुंजाइश नहीं रहती । 

                           पिछले कई महीनों से मैं मलय की तलब के लिए अपनी जेब खाली करता आ रहा हूँ । अब उसे नशे के मामले में अपने गुर्गों की जरूरत नहीं थी , लेकिन नशे के साथ आजमाई गई मेरी कुछ तरकीबों के कारण उसका आवेग हिंसा की बजाय कामवासना की तरफ मुड़ गया था , वह दल के नए लड़कों के से कुछ ऐसी  '' चीजें  '' मांगने लगा था , जिसे पूरी कर सकना उनके लिए असंभव था । एक लड़के से वह बार - बार उसकी बहन को उसके पास लाने की मांग कर रहा था , और एक दिन जब आखिरी चेतावनी के बाद भी वह खाली हाथ वापस आया तो उसे गोदाम के उस जर्जर कमरे में ले जाया गया । मलय ने पहले अपने कपड़े उतारे फिर उस लड़के के कपड़े खोल दिये , फिर उसने दो अन्य लड़कों की तरफ देखकर इशारा किया , दोनों लड़कों ने आगे बढ़कर उस लड़के के एक -एक हाथ को पकड़ लिया और उसके कंधों पर दबाव डालकर उसकी पीठ और कमर को नीचे झुका दिया । मलय उसके पीछे खड़ा हो गया ,  उसने अपने दाएँ कान पर जनेऊ लपेट लिया और इससे पहले कि वह अपना काम  शुरू करता ,  मैं वहाँ से चला आया , मुझे मालूम था  कि अब क्या होने वाला है । मलय जब अपने कान पर जनेऊ चढ़ा लेता है तो उसका सीधा संबंध एक ऐसी क्रिया से होता है , जो अशुध्द मानी जाती है । मुझे बउवा ने बताया था कि बिन्नी की योनि में  खिल्ला भोकने  से पहले भी उसने कान पर जनेऊ चढ़ाया था । 

                            उस लड़के के अलावा वह एक और लड़के की विधवा भाभी को वश में करने के चक्कर में था और जिस गली में वह रहता था, उस  गली में भी वह कई कांड कर चुका था । प्रत्यक्ष रूप से हालांकि किसी ने उसके खिलाफ़  जाने की हिम्मत नहीं की थी , लेकिन एक सामूहिक रोष उस इलाके में सुलगना शुरू हो गया था । पर उसे इस बात की कोई चेतना नहीं थीं , उसकी आँखों में जानवरों जैसा समय रहित भाव आ गया था । वह गालियां  बकते हुए इधर - उधर लुढ़कने लगा था और अनजाने में वह उस अंत की तरफ़  बढ्ने लगा था , जिस अंत की तरफ मैं उसे ले जाना चाहता था । 

                            लेकिन अब मुश्ताक मेरे और मलय के बीच आ गया था , और बात सिर्फ इतनी नहीं थी कि वह मेरी भलाई चाहता था या किसी तरह के परोपकार  की  भावना उसके अंदर थी,   या वह किसी '' असत '' से लड़ने के लिए निकला हो । 

दरअसल उसके अंदर भी कुछ था ... कोई ऐसा धूमकेतु ... कोई ऐसा बवंडर ,  जो किसी दूसरी '' चीज़  '' से टकराने के लिए ही जन्म लेता है । मलय ओर मुश्ताक की संभावित टक्कर की कल्पना मात्र से मेरे अंदर एक अज्ञात  ईष्या  जाग उठी - जो काम मुझे करना है , वह मुश्ताक क्यों करेगा ? 

                          इस विचित्र विचार से पहले तो मैं चौक गया और अपने अंदर झाँकने के बाद मुझे लगा कि ये ईष्या  ठीक वैसी थी , जैसी  एक जानवर के अंदर तब उठती है , जब उसके शिकार को कोई दूसरा जानवर हड़प लेता है।  

                           तो ऐसी हालत थी मेरे मन की । अगर मेरा मन इतना विचलित न होता और मेरे विवेक ने मेरा जरा भी साथ दिया होता , तो मैं उनके बीच से हट जाता , वे आपस में लड़कर मर - खप जाते और इससे बड़ी अक्लमंदी और क्या हो सकती थी ? लेकिन नहीं... मैं तो कुछ अपने मन की करना चाहता था । उस वक़्त मेरे दिमाग में एक काला पर्दा पड़ चुका था इसलिए मैं यह देख नहीं पाया,  कि मेरा व्यक्तित्व भी हिंसा की सनातन धारा से घुला - मिला है।  मैंने यह ठान  लिया था  कि मलय का जो भी हश्र होगा , वह सिर्फ मेरे हाथों होगा ... कोई और इस अवसर को मेरे हाथों से छिन  नहीं सकता । 

                                इस दोहरी कशमकश में मेरी दिमागी हालत दयनीय हो गई थी , काम  - धंधे और घर बार से से मेरा मन उचट गया था । पिताजी के ऊपर काम का बोझ बढ़ गया था और वे दुकान  को ठीक से सँभाल नहीं पा रहे थे । माँ बिन्नी के जाने के बाद अब सचमुच बीमार रहने लगी थी । एह बार मैंने उससे कहा , तुम अपनी सेहत का ध्यान रखो और फालतू के कामों में अपने आप को मत खपाओ । '' 

                               वह कुछ देर मुझे देखती रही , फिर अपने हाथ का काम  छोड़कर मेरे पास आ गई , 

'' मेरी बजाय तूँ खुद पर ध्यान दे ... तूँ तो बिलकुल अपने भूत जैसा दिखने लगा है ... ऐसा लगता है जैसे कई रातों से सोया नहीं है,  या नींद में चल  रहा है । '' 

                                इतने दिनों से जो कुछ चल  रहा था , उसके बारे  में माँ ने अभी तक कुछ नहीं कहा था । ये उसकी पहली प्रतिक्रिया थी । माँ मेरी तरफ शिकायत के भाव से नहीं दया भाव से देख रही थी । सुबह की सुनहरी रोशनी उसके चेहरे पर और अधपके बालों पर पड़ रही थी , दाईं आँख की कोर पर तरल चमक उभर आई थी , उसने होंठ  भींचते  हुए अपने आँचल से आँख पोंछ ली । 

                              मैंने उसके चेहरे से नजरें हटा ली । वह फिर चूल्हे के पास बैठ गई , चाय के बर्तन को उसने चूल्हे से उतारा और दो अलग – अलग गिलासों में उसे छन्नी से छानकर एक गिलास मेरे हाथ में पकड़ा दिया और दूसरे गिलास से चाय के घूंट भरते हुए मुझे बताती रही , कि इस बीच दुकान की और पिताजी की क्या हालत हो गई है । 

                                मैं सबकुछ सुनता रहा और फिर बिना कुछ कहे घर से निकलकर दुकान चला आया । हालांकि मैं रोज दुकान जाता था , लेकिन उस दिन दुकान को मैंने  एक अलग निगाह से देखा , मुझे सचमुच सबकुछ बिखरा  बिखरा –सा   लगा फिर मैंने पिताजी पर एक निगाह डाली – वे पहले जैसे उत्साह से दूकानदारी करते नज़र नहीं आए 

उनके चेहरे पर एक हारे हुए पिता जैसा भाव था , जिसका बेटा हाथ से निकल गया हो । 

                              मैंने एक गहरी सांस ली । अगर मैं कोई बेशर्म किस्म का भोगी या अय्याश होता, तो मुझे अपने पिता का चेहरा देखकर कोई फ़र्क नहीं पड़ता । लेकिन मैं नीचता की दलदल में धंसा कोई लोफ़र नहीं हूँ , मैं किसी तरह के भोग विलास या किसी नशे या जुए की लत का शिकार नहीं था , मैं तो सिर्फ बदले की आग में जल रहा था । जितना ही मैं खुद को समझाने की कोशिश करता था , उतनी ही वह आग और भड़क उठती थी , उस आग की लपकती – झपटती चिंगारियों के बीच जब भी मुझे बिन्नी का चेहरा दिखाई देता , मेरी मुट्ठियाँ भींच जाती । कई बार तो मैं अकेले में अपने ही घर की दीवारों पर घूंसे बरसा चुका हूँ ।  

                           लेकिन  जैसे पिताजी यह नहीं जानते थे कि मेरे ऊपर क्या बीत  रही है , ठीक वैसे ही मैं  भी यह नहीं जानता था कि उनके ऊपर क्या बीत रही है । अगर मैं उस वक़्त थोड़ा भी होश में होता , तो उनके बदले हुए व्यवहार की तरफ मेरा ध्यान जरूर जाता । उनके अंदर से एक दुनियादार दुकानदार पूरी तरह से विलुप्त हो गया था और उसकी जगह एक सन्यासी ने ले ली थी , उनकी दाढ़ी और बाल बहुत बढ़ गए थे और चेहरे पर भी हमेशा एक निरासक्त जोगी जैसा भाव रहता था ।

                              मुझे यह मालूम था , कि मेरी गैर हाजरी में दुकान के आस – पास पागलों , भिखारियों , मावलियों और कुत्तों का जमघट लगा रहता था और पिताजी हर किसी को कुछ न कुछ बांटते रहते थे । उन्हीं में से कुछ ऐसे लावारिश फटीचर भी थे , जिन्होंने स्थायी रूप से दुकान को अपना बसेरा बना लिया था।  वे दुकान के हर काम में पिताजी का हाथ बँटाते थे और उन्हीं से पैसे मांगकर शराब पीते थे । वे दिखने में इतने भद्दे और उज्जड़ थे और और उनके कपड़े और नाखूनों में इतना मैल भरा रहता था कि उन्हें देखते ही घिन आती थी , लेकिन अब वे उस दुकान के अघोषित कारीगर थे , उन्होंने  हर तरह की मिठाई और नमकीन बनाना सीख लिया था और हर चीज़ में ऐसा स्वाद रच दिया था,  कि दूर – दूर से ग्राहक आने लगे थे । उन्हीं में से एक मंगल बाबा भी थे ,  जो न जाने कहाँ से आकर उस दुकान में टिक  गए थे , वे उम्र में पिताजी से भी बड़े थे और दूसरे कर्मचारियों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी उनमें दिखाई देती थी ।  पिताजी की दुकान के प्रति बढ़ती उदासीनता  और मवालियों और भूखे कुत्तों के प्रति बढ़ती दयालुता के बाद अगर मंगल  बाबा नहीं  होते तो सबकुछ चौपट हो जाता , यह उन्हीं की देख-रेख का नतीजा था कि दूकानदारी अभी तक धड़ल्ले से चल रही थी । 

                              लेकिन इतनी गहमा – गहमी के बावजूद पिताजी के चेहरे पर कोई उत्साह नहीं रहता था , ऐसा लगता था जैसे वे सांसारिक मोह माया से ऊपर उठ गए हैं , और हर तरह की लीलाओं को तटस्थ भाव से देख रहे हैं । 

                               ये परिवर्तन कुछ ही महीनों में नहीं हुआ था और ऐसा नहीं है कि मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन मैं उस वक़्त एक ऐसी मानसिक अवस्था से गुजर रहा था , जहां घटित होते समय और मन में जो घटित हो रहा है , उसके बीच की सीमा रेखा धुंधली पड़ जाती है , आँख जो देख रही ही वह अंदर मन – मस्तिष्क में कहीं दर्ज नहीं होता , क्योंकि अंदर कुछ और चल रहा होता है । 

                             उफ ! कितनी कोशिश की थी मैंने अपनी खूंखार कल्पनाओं को रोकने की ... मेरे दिमाग में हमेशा एक ही ख़याल चलता रहता था  । अपनी कल्पनाओं में कई बार मैं मलय की टांगें काट चुका हूँ ... हर बार अलग तरीके से , हर बार पहले से कई गुना ज़्यादा क्रूरता पूर्वक .... 

                             फिर एक ऐसा समय भी आया जब मैं अपने आप को  धिक्कारने लगा  , कि तुम सिर्फ़ कल्पना कर सकते हो , असली खून – खराबा करने की ताक़त  तुम में नहीं है । जिसको कुछ करना होता है, वह कर गुजरता है । लेकिन तुम कुछ करने के बजाय सिर्फ़  नए – नए हथियार खरीदते हो और उसे उन गुप्त और निर्जन ठिकानों में छुपाकर रखते हो , जहां कोई आता-  जाता नहीं है । तुम कई बार यह सोच चुके हो कि एक न एक दिन मलय को उन्हीं में से किसी एक ठिकाने में ले जाओगे और जब वह नशे में होश खो देगा , तो तुम चुपचाप अपना काम  निपटा लोगे ।  तुम कायर हो .... घुन्ने  हो...  आर- पार की असली लड़ाई लड़ने की हिम्मत अब तुम्हारे अंदर बची नहीं है ... 

                       ऐसे विचार  मुझे अंदर तक हिला देते हैं । मैं बहुत विचलित हो जाता हूँ । एक तरफ पिताजी थे माँ थी और मेरा  भविष्य था , दूसरी तरफ एक अंधेरी राह  थी , जिसमें मैं अपनी नियति को देख रहा था – मैं एक ऐसे आदमी के रूप में अपने आप को देख रहा था , जो अपने पूरे भविष्य को दांव पर लगाकर कोई लड़ाई जितना चाहता हो ।  

                                 जाहिर है , मेरे माता – पिता मेरी इस हालत से कम दुखी नहीं थे। माँ मुझसे ऐसा बर्ताव करने लगी थी, जैसे किसी  बीमार या पागल से किया जाता है , और पिताजी का व्यवहार ऐसा था जैसे मैंने कोई पाप किया हो ।  गुजरते दिनों के साथ वे और ज़्यादा उदासीन होते जा रहे थे । वे दूकानदारी छोड़कर कभी हनुमान टेकड़ी में जाकर बैठने लगे कभी शिवनाथ नदी के किनारे शिव मंदिर में । धुनी रमाए बैठे साधुओ के साथ उनकी संगत बढ़ती गई और एक दिन वे उनके साथ चले गए । मैंने पता लगाने की बहुत कोशिश की लेकिन सिर्फ इतना मालूम हुआ कि वे कुछ साधुओं के साथ रेलवे स्टेशन तक पैदल गए , फिर वे सब कौन – सी ट्रेन में कहाँ गए ये किसी को मालूम नहीं था । 

                      बाद में मुझे मंगल बाबा ने बताया कि वे अंदर ही अंदर इस बात से दुखी थे कि मैं एक ऐसे आदमी का सहयोगी और  हितैषी बना फिरता था , जिसने सरे आम उन्हें बेइज़्ज्त किया था । उनकी बात सुनकर और यह जानकर कि वे मेरे बारे में क्या सोचते थे और क्यों घर छोड़कर चले गए । मैं और भी दुखी हो गया , और मैंने घर और दुकान के अलावा कहीं भी आना-  जाना छोड़ दिया ।

                             पिताजी का इस तरह चले जाना हालांकि माँ के लिए असहनीय आघात था,  लेकिन उसने कभी मुझ पर यह जाहिर नहीं होने दिया कि उसका जिम्मेदार मैं हूँ । मुझे इस बात ने और भी दुख पहुंचाया कि वे हर मिलने- जुलने वाले से यही कहती थी कि वे पिता के बारे में  मुझसे कोई बात न  करें । 

                        इन सब बातों का मुझ पर बहुत गहरा असर हुआ और मैंने मलय का खयाल दिल से निकाल दिया , लेकिन मैं बिन्नी की अंतिम क्षणों की छवि से  कभी मुक्त नहीं हो पाया , बड़ी मुश्किल से जब मुझे नींद आती थी , तो वह छवि सपनों में भी मुझे पीड़ित करती थी और अब तो उस छवि के साथ पिताजी का  संसार के प्रति विरक्ति के भाव से भरा चेहरा भी शामिल हो गया था । इन दो चेहरों के मूल भाव का प्रभाव मेरी धमनियों और शिराओं में घुलने लगा था , मैं अब दोहरी यंत्रणा झेल रहा था । एक मथानी थी ,  जो मुझे मथ रही थी और मेरा ‘ मैं ‘ चूर – चूर होकर बिखरने लगा था । एक नशा था जो उतरने लगा था , जिसमें मेरी समस्त भावनाएँ समाहित थी । अब मेरे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं था मैं केवल जी रहा था और बाकी सब कुछ वैसा ही चल रहा था , जैसा पिताजी छोड़ गए थे । 

                         एक के बाद एक दिन बीतते गए  कई हफ्ते और महीने गुजर गए फिर भी मुझे यकीन करने की हिम्मत नहीं होती थी,  कि मैं सब कुछ भूल गया हूँ ।  हालांकि मैं पुराने रास्ते पर कभी नहीं गया और न मेरे रास्ते में कोई आया लेकिन मुझे हमेशा  यह आशंका रहती थी कि मलय एक न एक दिन जरूर आएगा ... कभी न कभी वह आकर मेरे सामने खड़ा हो जाएगा ... तब मैं क्या करूंगा ?

                           मलय और मुश्ताक की एक मुलाक़ात इस बीच हो चुकी थी , इस मुलाक़ात की ख़बर मुझे उसी लड़के ने दी , जिस लड़के की भाभी को मलय अब  अपनी हवस का शिकार  बना चुका था  । उस पहली मुलाक़ात में दोनों की आँखों ही आँखों में क्या बात हुई उसे वह लड़का समझ नहीं पाया था लेकिन उनकी अगली मुलाक़ात कब होने वाली है यह उसे अच्छी तरह समझ में आ गया था ।    

                         फिर एक के बाद एक अजीबो- गरीब ओर भयानक घटनाएँ घटती गई , मलय और मुश्ताक की निर्णायक मुलाक़ात से पहले ही मुश्ताक के किसी पुराने दुश्मन ने उस पर पीठ पीछे वार कर दिया और सिर में लगी गंभीर चोंट के कारण वह अस्पताल में था । 

                          दूसरे दिन मलय को भी पकड़कर पुलिस ले गई । उसने उस लड़के की गर्भवती भाभी के पेट में लात मार दी थी और वह सड़क के बीचो-बीच जब दर्द से तड़प रही थी , तो वह कमर पर  हाथ दिये खड़ा रहा , आस-  पास खड़े लोगों को चुनौती भरी नजरों से घूरते हुए । फिर जब वह जाने लगा तो उस औरत ने उसके पाँव को झकड़ लिया और बदले में उसने और तीन चार लातें उसके पेट में जमा दी , वह औरत कमर से नीचे खून से लथ – पथ हो गई लेकिन उसने मलय को नहीं छोड़ा । संयोग से पुलिस की वेन  वहाँ से गुजर रही थी, और पुलिस वालों ने देखते ही मलय को दबोच लिया ।  

                             फिर कुछ दिनों बाद ये मालूम हुआ कि जिस गली में मलय ने आतंक फैला रखा था , उस गली की औरतों ने एक दिन उसे घेर लिया , और वह भी कहीं और नहीं अदालत के कटघरे में । उसे जेल से अदालत लाया गया था , उस दिन उसके मामले की सुनवाई थी , अभी तक कोई गवाह उसके खिलाफ़ गवाही देने नहीं आया था , लेकिन अचानक चालीस – पचास औरतें कोर्ट रूम में घुसी और कटघरे में खड़े मलय को चारों और से घेर लिया । पुलिस के जवान जो उसे अदालत लेकर आए थे , वे चाहते तो भी कुछ नहीं कर सकते थे ,  क्योंकि मलय के साथ- साथ उनकी आँखों में भी कुछ औरतों ने मिर्ची पाउडर झोंक दिया था । 

                           वे औरतें जब आई थी तब निहत्थी थी और अदालत से वापस जाते समय भी उनके हाथों में कोई हथियार नहीं था । किसी को कुछ समझ में नहीं आया कि  उस कोहराम में कब क्या हुआ।  जब भीड़ छँटी तो लोगों ने देखा , मलय का जिस्म कटघरे के सामने वाले हिस्से की  रेलिंग पर छाती के बल झुका हुआ था उसके दोनों हाथ गायब थे , दायाँ हाथ , जिसमें हथकड़ी बंधी हुई थी , कटघरे के दायीं और पड़ा था और बायाँ हाथ बायीं और । 

                            अदालत में होने वाला यह पहला फैसला था , जो अदालत शुरू होने से पहले ही हो गया । 

                             लेकिन नियति का फैसला अभी बाकी था । दुष्कर्म और हत्या के इस मुकदमे में उसे जो सजा मिलनी थी और जिसके हाथों मिलनी थी वह तो मिल गई , लेकिन असली मामला अभी तक ख़त्म नहीं हुआ था मलय के अंदर जो शैतान था वह न तो किसी तरह के तिरस्कार या प्रहार से खत्म हो सकता था,  न कोई न्यायालय या कोई कानून उसे ख़त्म कर सकता था । सिर्फ ख़ून बहाने से कुछ नहीं होता , चाहे वह शैतान किसी का ख़ून बहाए , चाहे कोई उस शैतान का ख़ून बहाए । ख़ून तब तक बहता रहेगा, जब तक नियति अपना निर्णायक फैसला नहीं सुना देती । 

                           नियति की अन्तरिम और बाह्य रूप –रेखा पहले से बन चुकी होती है,  लेकिन कोई यह नहीं जनता कि कब कहाँ और कैसे आखिरी क्षण आएगा।  

 ( 3 ) 

 होली आने में अब कुछ ही दिन रह गए थे । आने वाले दिनों के हर्षोल्लास का साथ देने के लिए वातावरण में मस्ती भरी बयार घुलने लगी थी । लोगों का ध्यान अब अपने काम पर लगने के बजाय तरह – तरह की खुरपातों में लग गया था कुछ लोग भांग की तरंग  में डूब गए थे और कुछ मज़ाक मस्ती में मशगूल थे । 

                           मैंने होली मानना उसी साल से छोड़ दिया था , जिस साल मेरे माथे पर कलंक का टीका लगा था । पहले मैं होली की हुड़दंग का सिरमौर हुआ करता था , अब वे दिन मुझसे विदा ले चुके थे । लेकिन कुछ ऐसे दिन अब भी मेरे साथ चल रहे थे , जिन दिनों ने मेरे जीवन को हमेशा के लिए कड़वा और गमगीन बना दिया था । 

                             होली हर साल मेरी दुकान के सामने,  चौराहे के बीचोंबीच जलायी जाती है । वह कोई बड़ा , विधिवत और ईंट की दीवार की गोलाई से घेरा गया चौराहा नहीं था । वह एक नाम मात्र का नगण्य- सा चौराहा  था । होली जलाए जाने के कुछ दिनों बाद राख़ हटा दी जाती थी,  और एक गोल काला धब्बा चौराहे के बीचोंबीच रह जाता था ।  फिर गुजरते दिनों के साथ वाहनों से उठती धूल से कालापन कम हो जाता था,  लेकिन उसका धुंधला सा- अक्स कायम रहता था । उसी काले धब्बे तक पहुँचकर एक दिन बिन्नी ने दम तोड़ा था , इसलिए मैं उस जगह को देख नहीं पाता था । 

                          हर बार होली आने से पहले जहां एक तरफ शहर में उल्लास का महौल रहता था , वहीं दूसरी तरफ होली की आड़ में उत्पात मचाने वालों का डर बना रहता था। लेकिन इस बार बहुत से बदमाशों को पहले ही धर लिया गया था और जिस बदमाश का सबसे ज़्यादा आंतक था , वह सरकारी अस्पताल के बिस्तर में अपने कटे हुए हाथों के साथ लाचार पड़ा था । मुश्ताक भी उसी वार्ड में था और दोनों की चारपाई आमने –सामने थी , लेकिन दोनों इस बात से अंजान थे कि उसका शत्रु ठीक उसके  सामने मौत से लड़ रहा है । 

                           अस्पताल लाए जाने के बाद शुरुआत के कुछ दिनों तक मलय को जब भी उसे होश आता था ,  वह चीखने – चिल्लाने लगता था । वह  उन औरतों को गलियाँ बकता रहता था , जिन्होंने उसकी ये हालत की थी । किसी वहशी जानवर की तरह वह अपने पाँव छुड़ाने की जी तोड़ कोशिश करता था उसके पाँवों में बेड़ियाँ बंधीं थी और बेड़ियों की जंजीर को चारपाई की राड़ से बहुत मजबूती से बांध दिया गया था । 

                            फिर एक दिन बेड़ियां भी खोल दी गई क्योंकि लगातार रगड़ खाने के कारण उसके टखनों में घाव हो गए थे उन घावों में मवाद भर आया था और सूजन इतनी बढ़ गई थी ,  कि बेड़ियाँ अगर खोली नहीं जाती तो कुछ दिनों बाद उसे आरी से काटना पड़ता । 

                         बेड़ियों से आजाद होने के बाद एक बार भी उसके पाँवों में कोई हरकत नहीं हुई थी , जिस पुलिस वाले को उसके पहरे पर बैठाया गया था , वह अब निश्चिंत होकर इधर – उधर टहलने चला जाता था। वार्ड के सभी कर्मचारी ये मान  चुके थे कि अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है । किसी को इस बात  का जरा भी अंदाजा नहीं था कि  वह उठकर अस्पताल से बाहर चला जाएगा ।  एक इंसान के तौर पर तो उसके अंदर की तमाम ताक़तें खत्म हो गई थी , लेकिन इंसानी ताक़त के अलावा एक दूसरी ताक़त जो उसके अंदर थी , उसे कोई नहीं पहचान पाया । अपनी उसी दूसरी ताक़त के दम पर वह होली के दिन सुबह दस बजे  अस्पताल से बाहर आया और धीरे – धीरे चलते हुए उस चौक  की तरफ बढ़ने लगा जहां मेरी दुकान थी । 

                       जब वह अस्पताल के कपड़ों में चलते हुए चौक पर आकर खड़ा हो गया तो लोग उसे कौतूहल से देखने लगे , जैसे किसी विचित्र जीव को देख रहे हों । 

                          मेरा ध्यान उस तरफ नहीं था । मैं अखबार पढ़  रहा था । मंगल बाबा ने मेरी बांह पर हाथ रखा , मैंने सिर उठाकर देखा तो उन्होंने चौक की तरफ इशारा किया और अगले ही पल मैं अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया , मलय चौक के बीचों- बीच खड़ा था उसके दोनों पाँव ठीक वहीं थे जहां बिन्नी ने दम तोड़ा था । वह बहुत विचित्र नजरों से मुझे देख रहा था , उसके देखने के अंदाज से यह लग रहा था कि वह मेरे अंदर छुपे दूसरे आदमी को पहचान गया है । कुछ देर वह जलती हुई निगाहों से मुझे देखता रहा , फिर उसके दोनों घुटने आगे की और झुके ,  वह घुटनों के बल जमीन पर गिरा और उसका शरीर दायीं और लुढ़क गया । 

                           देखते ही देखते चौक पर भीड़ जमा हो गई । कुछ देर बाद पुलिस की गाड़ी आई और उसे उठाकर ले गई । मैं बहुत देर तक उस जगह को टकटकी लगाए देखता रहा , उस गोल स्याह घेरे में एक साथ कई चीजें उमड़ – घुमड़ रही थी । यह एक ऐसा जीवन वृत्त था जिसमें जीवन की अच्छाई और बुराई ,  सच्चाई  और फेरब , प्रेम  और घृणा , सौंदर्य और कुरूपता , करुणा और नृशंसता,  सब आपस में घुल – मिल गए थे । 

                   कुछ देर बाद  मैंने वहाँ से नजरें हटा ली और हाथ में हाथ बांधे सिर झुकाए और आंखें बंद किए बैठा रहा । 

                         जब दोपहर हुई तो मैं उठकर घर चला गया , खाना खाने के बाद मैं काफी देर तक लेटा  रहा । मैंने आँखों को अपनी दायीं बांह से ढँक लिया और मन को शांत बनाए रखने के लिए एक ऐसे शून्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगा , जिसमें किसी भी तरह के विचारों और कल्पनाओं को खिलवाड़ करने का मौका  नहीं मिलता । 

                            लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद कोई स्थिर बिन्दु पकड़ में नहीं आया , आखिर मैंने अपने दिमाग को झटक दिया और उठकर खड़ा हो गया , मैंने मुंह धोया और नेपकिन से चेहरा पौंछते हुए दुकान जाने की तैयारी करने लगा । मैं पिताजी की लोहे की अलमारी में लगे आदमक़द शीशे  के सामने खड़े होकर बालों में कंघी कर रहा था , तभी मन में एक विचार आया कि इस अलमारी को खोलकर देखना चाहिए , पिताजी के जाने के बाद मैंने अभी तक  एक बार भी इस अलमारी को खोलकर नहीं देखा था । कुछ देर मैं अनिश्चय की स्थिति में खड़ा रहा फिर मैंने हेंडल को नीचे झुकाया औंर  अलमारी खोल दी । 

                            अलमारी में एक धोती और एक कुर्ते के अलावा कुछ नहीं था  कुछ देर तक मुझे कुछ समझ नहीं आया फिर उन कपड़ों को मैं उजाले में ले गया,  उसे उलट- पुलट कर देखा तो तुरंत समझ में आ गया,  ये वही कपड़े थे जिसे फाड़कर उन्हें निर्वस्त्र किया गया था  । चार साल तक उन्होंने इन कपड़ों को अलमारी में सँभाले रखा और जब घर छोड़कर गए तो सिर्फ इन्हीं कपड़ों को छोड़ गए । बाकी सब कपड़े  और जमापूंजी वे पहले ही गरीबों को बाँट चुके थे । 

                            कुछ देर तक मैं सोचता रहा कि पिताजी इन कपड़ों को क्यों छोड़कर गए होंगे ?  इन कपड़ों के जरिये वे मुझे क्या संदेश देना चाहते थे ? फिर एक खयाल मेरे मन में आया , मैंने खूंटी पर टंगा एक झोला उठाया और उन कपड़ों को झोले में डालकर घर से बाहर निकल गया । 

                          जब मैं वापस दुकान आया , तब दोपहर ढलने लगी थी , चौक पर लकड़ियों का ढेर लगना शुरू हो गया था । शाम ढलते ही लकड़ी के ढेर के पास फाग गाने वालों की टोली आकर बैठ गई , उस टोली में सभी दिहाड़ी मजदूर थे । नगाड़ा बजना जैसे ही शुरू हुआ चौक में नाचने-  गाने वालों का मजमा शुरू हो गया , लोग मदमस्त होकर नाचने – गाने लगे । किसी को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि सुबह उसी जगह एक मौत हुई थी ।  

                        शाम ढलते ही लकड़ी के उस ढेर में आग लगा दी गई । मैं चुपचाप दुकान में बैठा रहा , आज दोपहर से ही दुकान का काम  बंद कर दिया गया था । मंगल बाबा के अलावा बाकी सब कर्मचारी होली मनाने के लिए निकल पड़े थे । कुछ देर बाद , जब लपटें ऊंची उठने लगी और घिरती रात के अंधेरे में उन लपटों की रौशनी दूर – दूर तक फैल  गई , मैंने अपना झोला उठाया और दुकान से बाहर आकार चौक की तरफ बढ्ने लगा , अग्नि का ताप जैसे – जैसे बढ़ता जा रहा था , इर्द – गिर्द खड़े लोग धीरे –धीरे पीछे हटते  जा रहे थे । मैं उस धधकती आग के बिलकुल पास चला गया , फिर मैंने झोले से पिताजी का कुर्ता निकाला , जिसके दामन को बीच से चीर दिया गया था , कुर्ते को आग के हवाले करने के बाद मैने धोती निकाली और बिना यह देखे कि वह किस तरह से फाड़ी गई थी , उसे भी आग में झोंक दिया  । 

                          फिर  मैं हाथ पीछे बांधे  कुछ देर खड़ा रहा  और जलती हुई होली को  ऐसे देखता रहा,  जैसे  वह होली नहीं कोई अर्थी  हो । जब लपटें नीचे बैठने लगी और आग से चिंगारियाँ निकलनी बंद हो गई , तो मैंने हाथ जोड़कर अपनी  आंख्न बंद कर ली  ।, मन में कोई प्रार्थना नहीं , ये विचार चल रहा था , कि मलय ने जो चोंट  मुझे दी थी उसे शायद में कभी भूल जाऊंगा , लेकिन पिताजी को जो चोट मैंने दी है वह कभी नहीं भूल पाऊँगा... 

 

मनोज रूपड़ा का मोबाइल नंबर- 9518706585

 

 

 

 

 

 

 

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