साहित्य

देश के शीर्षस्थ लेखक विनोद कुमार शुक्ल की रचना प्रक्रिया के बारे में बता रहे हैं उनके पुत्र शाश्वत गोपाल

देश के शीर्षस्थ लेखक विनोद कुमार शुक्ल की रचना प्रक्रिया के बारे में बता रहे हैं उनके पुत्र शाश्वत गोपाल

देश के शीर्षस्थ रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल को भला कौन नहीं जानता. यह छत्तीसगढ़ और हमारा सौभाग्य है कि वे हमारे बीच यहीं रायपुर में रहते हैं. उनके पुत्र शाश्वत गोपाल ने अपनी पिता और उनकी रचना प्रक्रिया को लेकर जो कुछ लिखा है उसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं. शाश्वत ने इस लेख का वाचन अपने पिता पर केद्रिंत 'रंग विनोद' नाम के एक कार्यक्रम में किया था. अगर आप किसी लिखे हुए में रविशंकर की सितार का अनुभव करना चाहते हैं तो इसे पढ़ना ठीक होगा. मनुष्य बने रहने के लिए संवेदना बची रहे...यहीं जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है और उपलब्धि भीं.

 

एकांत का बाहर जाना

 

-शाश्वत गोपाल

 

मैं अपने पिता को दादा कहता हूँ। 

मुझे बहुत सी चीजें विरासत में मिली हैं। चित्र, लेखकों की स्मृतियाँ, संबोधन, पेड़-पौधे, पुस्तकें और भी बहुत कुछ। एक ऐसी अमूर्त चीज़ भी विरासत में मिली जो दादा मुझे शायद देना नहीं चाहते थे- वह है 'हिचक'। मंच में और उसके करीब जाने का डर। चूंकि यह विरासत थी इसलिए मिल गई।

दादा मंच से दूर रहे। वे सबसे पीछे बैठना पसंद करते हैं। मुझे लगता है ऐसा कर वे सबके ज्यादा करीब हो पाते हैं। जितनी दूर जब हम होते हैं तब हमारी दृष्टि के क्षितिज का फैलाव उतना ज्यादा बड़ा हो जाता है। सबसे पीछे अंत की दूरी से सबको एक साथ देख पाना, अपने में समेट पाना संभव हो पाता है। और, यह अंत की दूरी एकांत के करीब भी होती है। 

आज मुझे मंच से कहने के लिए कहा गया। मैं मंच में सहज नहीं सा हूँ। इसलिए अपनी बात कह तो नहीं पाऊँगा, लेकिन पढ़ने की कोशिश करूँगा। जो मैं पढ़ने जा रहा हूँ वह बातें कुछ वर्ष पहले लोकमत समाचार पत्र समूह के साहित्य विशेषांक 'दीपभव' में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन प्रकाशित स्मृतियों का पहला मुख्य वाक्य था- 'एकांत का बाहर जाना'। आज फिर स्मृतियों पर लौटने की कोशिश करूँगा। स्मृतियाँ कभी पुरानी नहीं पड़तीं। स्मृतियों को याद करना जीवन के दोहराव की तरह भी है, और इसमें हमारे एकांत का बाहर जाना आज पुनः प्रतिध्वनित होगा।

आदरणीय दादा, आदरणीय मंच, सम्मानित उपस्थितजन।

एक बेटे द्वारा पिता पर कुछ कहना या लिखना, पिता द्वारा अपनी ही बात कहने जैसा है। हम अपनी बात क्यों कहें? आत्मकथा लेखन के संबंध में मैं अज्ञेय जी के विचारों से सहमत हूँ कि– “आत्मकथा लेखन अहंकारी उद्यम है। अपने जीवन को कोई इतना अहम क्यों माने कि उसकी दास्तान दूसरों को सुनाने लगे।” 

मुझसे हमेशा कई सवाल दादा पर, उनकी दिनचर्या, लेखनकर्म, लेखन प्रक्रिया आदि पर पूछे जाते हैं। ये बातें उन्हीं प्रश्नों, प्रति-प्रश्नों के आस-पास की हैं। लेकिन उत्तर नहीं हैं, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि प्रश्न और उनके उत्तर हमें बाँध देते हैं।

एक छोटा सा प्राणी ककून के अंदर रहकर रेशम बुनता है। दादा भी घर में रहना पसंद करते हैं। ये थोड़ी सी बातें और उनके मेरे द्वारा खींचे गये कुछ छायाचित्र, हमारे घर के एकांत का बाहर जाना है। उन पर कुछ कहने के लिए हर बार की तरह बार-बार मैं दुविधा में रहता हूँ। इस बार भी ठिठका हुआ सा, दुविधा और संकोच से घिरा हूँ। 

विरासत में मुझे खूब सी पुस्तकों के साथ बहुत से शब्द और संबोधन भी मिले। संबोधन उनके अपने पारंपरिक शब्दार्थ से कुछ अलग नये अर्थों के साथ। जैसे पिता को मैं दादा कहता हूँ। मेरी बेटी मुझे दादा कहती है। आदि। संस्कृति, परंपरा, प्रकृति, संस्कार, कला और उत्कृष्ट को सहेजने, अगली पीढ़ी को सौंपने पर दादा हमेशा ज़ोर देते हैं। 

दादा को जानने की कोशिश में मैं जब पीछे लौट रहा हूँ तो यह लौटना किसी रचना संसार की ओर आगे बढ़ने जैसा है। बचपन में मैं उनके साथ घूमने जाया करता था। उनका प्रयास होता कि घर से उनका बाहर मेरे साथ हो। हम कभी पैदल निकल जाते। कभी साइकिल से। कभी स्कूटर से। किसी भी दिशा में हम निकल जाते और कोई गाँव मिल जाता था। गाँव में मैं चुप रहता। वे चलते जाते। मैं भी। कभी उनके साथ। कभी पीछे-पीछे कुछ बीनते हुए। लेकिन सुन सकने की दूरी से ज्यादा दूर उनसे मैं कभी नहीं होता। वे पेड़ में बैठे पक्षियों की पहचान कराते। जो पक्षी दिखते नहीं उनकी आवाज़ याद रखने को कहते। खेतों में फसलों से परिचय कराते। बीज के लहलहाती फसल तक पहुँचने के चरणों को याद कराते। भूमि की पहचान कराते। बज रहे या घरों में टंगे-रखे वाद्ययंत्रों के बारे में बताते। लोकगीतों के भावार्थ समझाते। ठेठ गवईं गहनों और उनकी अनूठी परंपरा का महत्व बताते। लेकिन, लौटने पर जब शहर पास आते जाता तो अक्सर दादा मौन हो जाते। तब शायद गाँव के शहर में समा जाने के विध्वंस की आहट वे सुन रहे होते हों! अब तो हमें बहुत दूर कई किलोमीटर तक चले जाने पर भी गाँव नहीं मिलते। भौतिक-आधुनिकता, विकास और बाज़ार ने गाँव के सांस्कृतिक बोध लगभग निगल लिये हैं। शहर की असीमित सीमा इतनी बढ़ गई है कि किसी गाँव तक पहुँचने से पहले ही अब दादा थक जाते हैं। जबकि, लगभग सभी कच्ची सड़कें पक्की हो गईं हैं। 

उन्होंने मुझे और दीदी को केवल अच्छा मनुष्य बनने के लिए कहा। यह कभी नहीं कहा कि तुम ये या वो पढ़कर वो या ये बन जाओ। एक बात हमेशा कही कि कुछ उत्कृष्ट ऐसा रचो कि आने वाली पीढ़ी के काम जरूर आये। दो शब्द ‘संतुष्टि’ और ‘बचत’ के गहरे अर्थों के साथ सुखी जीवन का मंत्र दादा ने दिया। गाँधीवाद को मैंने घर में बचपन से महसूस किया है। कुछ बड़े होने पर मोहनदास करमचंद गाँधी को जाना और पढ़ा। गाँधी के अस्त्रों अहिंसा, स्पष्टता, ईमानदारी, निडरता, संतुष्टि, समय की पाबंदी, बचत, आवश्यकताएं सीमित रखना.... जैसे प्रयोग मैं छुटपन से महसूस करते आ रहा हूँ। शायद, उन्होंने गाँधी के सूत्रों-सिद्धांतों को हमारे आस-पास रखने की कोशिश की।

जन्मदिन पर मुझे पुस्तकें मिलतीं और कुछ खिलौने भी। कहानी पुस्तकों की ज़िद करता तो ‘तारों की जीवन गाथा’ मिलती। कभी ‘जोड़ासांको वाला घर’ की कथा। तो कभी ‘भारत की नदियों की कहानी’। ह्वेनसांग की भारत यात्रा, चीनी यात्री फाहियान, अल-बिरुनी की नज़र में भारत, बर्नियर और इब्नबतूता की भारत यात्राएँ, नेहरू की भारत एक खोज हो या विश्व का सांस्कृतिक इतिहास आदि मिल जाता। इस तरह वे पुस्तकों के माध्यम से हमें ऐसे समय का भी बोध कराते जहाँ-जिसमें लौटकर पहुँचना किसी के लिए भी संभव नहीं होता। 

भारत और दुनिया को दिखाने और समझाने की कोशिश वे हमेशा करते रहते हैं। उन्होंने संस्कृति, इतिहास, दर्शन, विज्ञान को भी हमारे सामने रखने की कोशिश की, उनके पारंपरिक और आधुनिक स्वरूप दोनों के साथ। जीवन के विभिन्न पड़ावों पर तरह-तरह की पुस्तकें मिलती जातीं। जब किशोर था तो मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘मेरा बचपन’ पढ़ने मिला, महाविद्यालय में पहुँचा तो ‘जीवन की राहों में’ और ‘मेरे विश्वविद्यालय’ को पढ़ा। मार्क्स, विवेकानंद, लोहिया, वॉनगॉग, सावरकर, आंबेडकर, जयप्रकाश नारायण, सलीम अली, एम.एफ.हुसैन, कुमार गंर्धव, मल्लिकार्जुन मंसूर, जनगनश्याम, निर्मल वर्मा आदि इत्यादि के अंतःमन से भी दादा ने मुझे मिलवाया है। ‘अभी भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ ‘मेरा ब्रह्माँड’ पता नहीं क्या नहीं उन्होंने मुझे दिया। वे एक पुस्तक पढ़ने के समाप्त होने से पहले मेरे मन में कई और पुस्तकों को पढ़ने की जगह बना देते हैं। मेरी उम्र बढ़ने के साथ-साथ पुस्तकों की संख्या भी बढ़ती चली गई। बल्कि, पुस्तकें तो आयु के कई घनमूलों के गुणक के साथ बढ़ीं हैं। एक तरह से उन्होंने जिज्ञासा और पढ़ते-जानते रहने की ललक का समुद्र मेरे मन में खोद दिया है। मैं पढ़ता चला गया और पढ़ा हुआ उस समुद्र में समाता चला गया। कई बार यह इतना गहरा चला जाता है कि इसे जरूरत और समय पर निकालना भी मेरे लिए दुरूह है।

लेख, पेटिंग, संवाद, साक्षात्कार, कविता, समाचार, घटना, फिल्म, यात्रा-वृतांत, आलोचना, समीक्षा... यहाँ तक कि कोई अच्छा पत्र भी आता तो वे मुझे पढ़ाते। जापानी फिल्मकार आकिरा कुरोसावा ने कैसे छोटी-छोटी फिल्मों के सहारे मानव मन को पर्दे पर उतारा, रूसी फिल्मकार आँद्रेई तारकोवस्की ने किस तरह नई दृश्य-भाषा दी, सत्यजीत राय के चार दशकों में फैले रचनात्मक जीवन में किस तरह उत्कृष्टता केंद्र में रही, श्यामबेनेगल इतिहास और वर्तमान में कैसे एक सेतु बनाते हैं, एक फिल्मकार उतना ही बड़ा विद्वान भी हो तो उनकी (मणिकौल) फिल्मों में दूसरों से क्या अलग और मौलिक है। भारतीय फिल्मों का एक बड़ा बाज़ार है, आधुनिक संसाधन हैं, इसके बावजूद ईरानी फिल्में क्यों उद्वेलित करती हैं। यह सब मैं कब जानता गया पता ही नहीं चला। उत्कृष्टता को दादा ने हमेशा हमारे करीब रखा। मेरी बेटी जब सवा साल की थी तब से वह रवीन्द्रनाथ ठाकुर, गाँधी, अज्ञेय...को तस्वीरों में पहचानने लगी थी। एक तरह से वे हम सब के जीवन के संपादक हैं। उन्होंने हमें सृष्टि और जीवन-सूत्रों के हर पहलू को समझने की दृष्टि दी। यहाँ तक कि बचपन में एक बड़ा टेलीस्कोप देकर सुदूर स्थित मंगल, शनि ग्रहों को भी हमारा पड़ोसी बना दिया है। 

आज उत्कृष्टता केंद्र में नहीं है। अब यह शब्द ही विस्मृत सा लगता है। सब तरफ मीडियॉकर्स हावी हैं और रहा-सहा जितना अच्छा बचा है उसका कबाड़ बना रहे हैं। चालाकी, झूठ, बेईमानी के इस दौर में उससे जूझना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि उनके जीवन में ये शब्द ही नहीं हैं। उनका जीवन संघर्ष में बीता। मेरा नहीं। लेकिन दादा ने कोशिश की कि संघर्ष के रास्ते पर मिलने वाले आत्मविश्वास को मैं जरूर पा सकूँ। इस दौर की अबूझ पहेलियों के बीच उलझे समय से कुछ समय निकालने में ही मुझ जैसे युवाओं का समय फिसला जा रहा है। लेकिन, मैं और पत्नी यह देखकर आश्वस्त हैं कि हमारी बेटी अपने बाबा-अजिया की उँगलियाँ कस कर पकड़ी हुई, स्वाभिमान और आत्मविश्वास को पाने के रास्ते पर चलना सीख रही है, और जो अच्छा बिखेरा जा रहा है, जिसे वर्तमान आधुनिक समय नहीं देख पा रहा, उन्हें वो अपने छोटे हाथों से समेट भी रही है। लेकिन अच्छा, बहुत जल्दी कबाड़ बन रहा है और मेरी बेटी की अंजुलियाँ अभी बहुत छोटी हैं।

दादा के साथ मेरा संवाद हर क्षण होता रहता है। तब भी जब हम दोनों मौन हों। हमारी बातचीत के विषय भी विविधता भरे होते हैं। कभी कोई अच्छी कविता तो कभी परमाणु मुद्दा। कभी मीडिया, साहित्य, खेल, पड़ोस, प्रकृति, जीवन शैली, रचना, संघर्ष, रंग, परंपरा, संगीत, लेख, आदिवासियों का संघर्ष, पूँजीवाद, दैनिक दिनचर्या, मेरी बेटी के स्कूल का बीता एक दिन, सूखा पड़ने की आहट, नक्सलवाद से वाद का ही समाप्त हो जाना, हिंसा, कटते जंगल, युवाओं के मन से बचत और संतुष्टि शब्दों की विस्मृति, आतंकवाद से नष्ट होती संस्कृतियाँ, बच्चों के चित्र और उनकी शिक्षा, अच्छा संगीत, कोई अच्छी पुस्तक, युवाओं का संघर्ष, ब्रह्मांड में किसी नये ग्रह का मिलना, सहनशक्ति का बढ़ता अभाव, सेना के जवानों की कठिनाइयां, पौधों में नई पत्तियों का आना, मेरे द्वारा किसी गलत शब्द का उपयोग, दाल में छौंक लगाने के तरीके, अच्छे प्रशासनिक निर्णय, जमीन में पड़े किसी पत्थर की आकृति, तालाब क्यों एक बड़ी बूंद है, इत्यादि। लेकिन संवाद का विषय राजनीति कभी नहीं रहा। शायद इसलिए कि अब की राजनीति गैर-रचनात्मक और विचारहीन है। राजनीति पर उन्होंने इतना जरूर कहा है कि “अब हम सामाजिक समाज में नहीं राजनैतिक समाज में रहते हैं। मीडिया और राजनीति, इन दोनों में से कोई एक ठीक हो जाये तो दोनों ठीक हो जायेंगे। लेकिन मीडिया और राजनीति एक दूसरे के ठीक नहीं होने को बनाये हुए हैं।”

दादा को पुरस्कारों ने कभी आकर्षित नहीं किया। उनके सम्मान और हमें, मेरी बेटी को स्कूलों, खेलों इत्यादि में मिले पुरस्कार, स्मृति चिह्न या तो अटारे में पड़े हैं या पेटियों में बंद। उन्हें केवल ‘रचनात्मकता’ अभिप्रेरित करती है। मैंने उन्हें उनकी रचनाओं से कभी संतुष्ट होते नहीं देखा। कोई चार दशक पुरानी कविता आज उनके सामने कुछ देर तक रखी रह जाये तो उसे पुनः परिवर्धित करने का विचार उनके मन के कोने में बैठने लगेगा। मुझे लगता है उनकी रचनाओं की आलोचना उन्हें ज्यादा संतुष्टि देती है। वे कहते हैं “एक अच्छी कविता की सबसे अच्छी आलोचना दूसरी उससे अच्छी कविता को रच देना है।”

मैं दादा की रचनाओं का पाठक नहीं हूँ। श्रोता हूँ। ‘नौकर की कमीज़’ उपन्यास मेरे जन्म के आस-पास लिखा गया, इसलिए उसका मैं पाठक हूँ। लेकिन उसे पढ़ने में भी मैंने कविता ही सुनी है। उनके उपन्यास, कहानियाँ, साक्षात्कार और कविताएँ मुझे ‘एक’ लंबी कविता लगते हैं। ‘एक’ ऐसी लंबी कविता जिसका उपन्यास, कहानी के रूप में केवल आवरण बदलता है; मूल तो वह जो है, वही है- एक कविता। उस ‘एक’ लंबी कविता को मैं पसंद के आधार पर विभक्त भी नहीं कर पाऊँगा। क्योंकि सर्वश्रेष्ठ का चयन तो बहुत या कुछ के बीच से ही किया जा सकता है। ‘एक’ में यह संभव नहीं। उनकी रचनाओं में बनने वाले ‘दृश्य’ मुझे अच्छे लगते हैं। दृश्य से बने शब्द और शब्दों से बने दृश्य भी तथा अर्थों से बनने वाले अदृश्य बिंब-प्रतिबिंब भी। शायद यह भी एक कारण हो कि फिल्म या नाटक से जुड़े लोगों की नज़र उनकी रचनाओं पर ठहर जाती है। 

हम सब उनके रचना संसार में रहते हैं, उनके साथ। सूर्य के उदय और अस्त होने के साथ-साथ उनके कार्य करने की ऊर्जा जागती और विश्राम करती है। उनके लिखने का समय तय नहीं होता। वे कभी तब लिखते हैं जब हम सब सो रहे होते हैं और कभी तब जब खूब सारे बच्चे उनके आस-पास खेल रहे हों, कुछ उनसे टिके, कुछ उनपर लदे हों। वे वहीं आस-पास बैठकर लिखना पसंद करते हैं, जहाँ हम सब लोग काम कर रहे हों। कई बार उस आस-पास में बैठने की जगह भी नहीं होती तो वे खड़े-खड़े ही लिखते रहते हैं। ऐसे में हम सब के काम की गति बढ़ जाती है ताकि हम वहाँ का काम जल्द ख़त्म कर ऐसी जगह पहुँच जायें जहाँ बैठने की जगह हो। उनका एकांत सब के साथ रहना है। कई बार तो वे सोने चले जाते हैं। सो भी जाते हैं। कुछ घंटे बाद वे आवाज़ देते हैं। लेटे-लेटे कुछ अक्षर या एक-दो छोटे वाक्य हमें लिखने के लिए कहते हैं। और हम उन अक्षरों/वाक्यों को उनकी टेबल पर रख देते हैं। जब हम सुबह उठते हैं तो वे कुछ अक्षर एक पूरी कविता बन गये होते हैं। एक पूर्ण कविता।

वे जब भी कुछ लिखते हैं, हमें जरूर सुनाते हैं। एक कविता के कई ‘ड्राफ्ट’ हम सुनते हैं।  एक कविता रचते हुए उन्हें सुनते हैं। गद्य को गढ़ते हुए सुनते हैं। बल्कि कहूँगा- हम उनकी पूरी रचना प्रक्रिया के श्रोता हैं। फुर्सत में वे कभी नहीं होते। तब भी नहीं जब वे आराम कर रहे होते हैं। करीब सात वर्ष पूर्व जब उन्हें हृदयघात हुआ, उसके अगले दिन से वे अस्पताल के गहन-चिकित्साकक्ष में लिखने लगे। अधलेटे लिखने की वजह से बार-बार उनकी डॉटपेन चलना बंद हो जाती तो उन्होंने पेंसिल माँगकर उससे लिखना शुरू कर दिया। उनकी जिजीविषा और लेखन से उन्हें मिलने वाले गहन सुकून के कारण डॉक्टरों ने भी वहाँ उन्हें रचने की कु्छ छूट दे दी। 

छिटपुट नोट्स को छोड़कर पिछले 20 वर्षों से वे सीधे कंप्यूटर में टाइपकर ही लिखते रहे हैं। उन्होंने टाइपिंग करीब 62 वर्ष की उम्र में सीखी। दो वर्ष पूर्व उनकी आँखों में मोतियाबिंद बढ़ गया था। वे ठीक से लिख और टाइप नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में वे कहते जाते हैं और माँ लिखती जातीं। बाद में मैं उसे टाइप कर देता। फिर माँ उन्हें वो सुना देतीं।

उनका प्रूफ भी हम सुनते। उनका सृजन निरंतर है। घर में टेलीफोन के पड़ोस में कुछ कोरे कागज़ों के टुकड़ों के साथ पेन या पेंसिल रहते हैं। दादा फोन पर बात करते हुए अक्सर कुछ न कुछ उन कागजों पर करते रहते हैं। बात ख़त्म होने पर दादा की उँगलियों के सहारे चलती वह कलम भी वहीं रूक जाती। और कुर्सी से उठने से पहले दादा उस कागज़ को टेबल के नीचे रखे कूड़ेदान में डाल भी देते। यह बात हमें बहुत बाद में पता चली। दादा फोन पर बात करते वक्त भी चित्र बनाते रहते हैं। कागज़ों के ढेर से हम बहुत कम चित्र ढूंढ पाये हैं। मुझे उनका हर क्षण उनकी रचना प्रक्रिया में शामिल लगता है। 

उनसे जुड़े किसी विषय पर कोई गलत आलोचना भी करे तब भी वे मौन रहते हैं। इसलिए नहीं कि उसका कोई उत्तर नहीं है, बल्कि इसलिए कि उसका उत्तर देना रचनात्मक कार्य नहीं है।

मैं यह भूल गया था कि विरासत में मुझे ‘भूलना’ भी मिला है। दादा मुझे भी भूल जाते हैं। कई बार ऐसा हुआ कि वे स्कूटर में मुझे कहीं ले गये। सामान लेने हम दोनों उतरे। लेकिन घर में सामान पहुँच गया और मैं सामान की जगह छूट गया। उम्र के आठवें दशक में दादा का यह भूलना अब प्रतिध्वनित होने लगा है। वे कहीं जाते हमारे साथ हैं। लेकिन अपने काम में स्वयं इतने खो जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि वे आये किसके साथ थे। हम उनसे छू सकने की दूरी से ज्यादा दूर कभी नहीं हुए। उनका यह भूलना बहुत सी बातों में है। मुझे मेरा बचपन उस तरह याद नहीं जिस तरह दूसरों को होता है। दादा को भी अपना बचपन उस तरह याद नहीं। मुझे वो हर चीज उस समय याद नहीं आती जब आनी चाहिए। और उस तरह भी याद नहीं आती जिस तरह उसे आना चाहिए था। हर बार याद का याद आना उसके संपूर्ण के साथ नहीं होता। स्मृतियाँ टूट-टूटकर ही लौटती हैं। फिर उन टुकड़ों को जोड़ने का क्रम भी भूल जाता हूँ। धीरे-धीरे वे भी उसी तरह लौटती हैं। क्षणभर पहले बीता बहुत जल्द स्मृति बन जाता है और स्मृति बहुत कम शेष रह पाती हैं। दादा के साथ के समय को मैं जब-तब ठहराने की कोशिश करते रहता हूँ। कुछ याद रखने की इच्छा और उसे भूल जाने के बीच का क्षण अब मैं तस्वीरों में कैद करने लगा हूँ। लेकिन उस तस्वीर में शब्द कैद होने से छूट जाते हैं। भूलना, दादा की विशिष्टता है, मौलिकता और शायद ‘मैनरिज़्म’ भी। 

दादा एक आम पिता की तरह हैं, जो अपने बच्चों और आस-पड़ोस को सुखी देखना चाहते हैं। इस सुखी शब्द में केवल ज्ञान-रचनात्मकता-उत्कृष्टता की समृद्धि और विकास तथा मनुष्य हैं। इस पूरी बात में एक बात रह गई। मेरे लिखे प्रत्येक ‘दादा’ शब्द में एक अनकहा छूट गया, माँ। दादा के रचनात्मक और मनुष्य जीवन में केवल दादा शब्द अकेले नहीं लिखा जा सकता। दादा शब्द, माँ शब्द के बिना बे-अर्थ है। इन दोनों शब्दों में न कोई उपसर्ग हैं न प्रत्यय। दादा-माँ, एक शब्द है, एक ही जीवन। 

उनका जीवन बहुत सामान्य सा है। किसी अदृश्य से छोटे बिंदु की तरह। शायद रंगों, रेखाओं, कई पट्टियों से घिरे सैयद हैदर रज़ा के चित्रों का वह बिंदु जिसकी व्याख्या अनंत है। दादा का कहीं भी जाना घर से बाहर जाना नहीं होता, यह पृथ्वी उनका केवल एक कमरा है। दादा की इस याद को उनके शब्दों से ही अल्पविराम लगाता हूँ। उन्होंने थोड़े दिन पहले ही लिखा है-

“समय जो समाप्त है वह अपनी शुरुवात से समाप्त है। चाहे कितना भी लंबा समय हो या बस एक मिनट का। बीते से एक क्षण बचता नहीं। यह जो नहीं, वह गुमा नहीं है कि याद करने या ढूंढने से जस का तस मिल जायेगा। हो सकता है याद करना ढूँढने का तरीका हो। बीते के कबाड़ में काम का शायद कुछ भी नहीं। इस समय मेरे लिए खोना बहुत आसान हो गया है और ढूँढना सबसे कठिन। याद करना भूलने के साथ याद रहता है। सब याद कभी नहीं रहता। कभी कुछ याद आया। कुछ कभी। और कुछ, कभी याद नहीं आता, यह भी याद नहीं कि क्या याद नहीं। यद्यपि मेरा बचपन बहुत पीछे चला गया, पर बचपना लगता है बुढ़ापे में भी बचा रहता है। बचपन को याद करना भी जैसे बचपना है। पर मैं सचमुच बचपना करता हूँ बिना बचपने को याद करते हुए।”

दादा सबकी फिक्र करते रहते हैं। ब्रह्मांड की भी। एक दिन उन्होंने मेरी बेटी से कहा था और फिर लिखा भी- “एक दिन पत्थर भी नहीं बचेगा। चाहता हूँ पत्थर का बीज सुरक्षित रहे।” 

उनकी यह कामना हम सबकी सोच में भी बची रहे, यह मैं सोचता हूँ। 

आप सबने मेरे पढ़े हुए को कहते सुना। बहुत आभार।

 

पता-

शाश्वत गोपाल,

द्वारा श्री विनोद कुमार शुक्ल

सी-217, शैलेन्द्र नगर,

रायपुर-492001

छत्तीसगढ़

मो.: 9179518866

ई-मेलः [email protected]

 

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