साहित्य

बुलडोजर पर कविताएं

बुलडोजर पर कविताएं

साहित्य, विचार और कलाओं की वेब पत्रिका समालोचन ने अपने ताजा अंक में बुलडोजर के खिलाफ वरिष्ठ कवि विजय कुमार, राजेश जोशी, अरूण कमल, विष्णु नागर, लीलाधर मंडलोई, अनूप सेठी, कृष्ण कल्पित, बोधिसत्व, स्वप्निल श्रीवास्तव, अत्युतानंद मिश्र, विनोद शाही और हूबनाथ की कविताएं छापी है. इस खास अंक का संयोजन विजय कुमार ने ही किया है. इन कविताओं को पढ़कर कहा जा सकता है कि कवि चुप नहीं है. कविता मुठभेड़ के लिए तैयार है. यहां प्रस्तुत सभी कविताएं समालोचन से ली गई है. समालोचन और वरिष्ठ कवि विजय कुमार का आभार.

 

राजेश जोशी

बुलडोजर

तुमने कभी कोई बुलडोजर देखा है
वो बिल्कुल एक सनकी शासक के दिमाग़ की तरह होता है
आगा पीछा कुछ नहीं सोचता,
उसे बस एक हुक़्म की ज़रूरत होती है
और वह तोड़ फोड़ शुरू कर देता है

सनकी शासक कल्पना में कुचलता है
जैसे विरोध में उठ रही आवाज़ को
बुलडोजर भी साबुत नहीं छोड़ता किसी भी चीज़ को
सनकी शासक बताना भूल जाता है
कि बुलडोजर को क्या तोड़ना है
और कब रूक जाना है

सनकी शासक ख़्वाबों की दुनिया से जब बाहर आता है
मुल्क़ मलबे का ठेर बन चुका होता है
सनकी शासक मलबे के ढेर पर खड़े होने की कोशिश करता है
पर उसकी रीढ़ टूट चुकी है
वह ज़ोर ज़ोर से हँसना चाहता है
पर बुलडोजर ने तोड़ डाले है उसके भी सारे दाँत
बुलडोजर किसी को नहीं पहचानता है

बुलडोजर सब कुछ तोड़ कर
बगल में खड़ा है
अगले आदेश के लिये !

 

अरुण कमल

बुलडोजर

अब न तो पहिए चलते हैं न जबड़े
पहियों के चारों तरफ़ दूब उग आयी है और चींटियों के घर
जबड़ों के दाँत टूट चुके हैं और उन पर खेलती हैं गिलहरियाँ
अपने ज़माने में मैंने कितने ही झोंपड़े ढाहे उजाड़ीं बस्तियाँ
दुनिया का सबसे सुस्त चाल वाला सबसे ख़ूँख़ार अस्त्र
एक बार एक बच्चा दब गया था पालने में सोया

मैं अक्सर सोचता कोई मेरे सामने खड़ा क्यों नहीं होता
दस लोग भी आगे आ जाते तो मेरा इस्पात काँच हो जाता
बस एक बार एक वीरांगना खड़ी हो गयी थी निहत्थे
और मुझे रुकना पड़ा था असहाय निर्बल
पीछे मुड़ना मैं नहीं जानता पर मुझे लौटना पड़ा
तोड़ना कितना आसान है बनाना कितना मुश्किल

अब चारों तरफ घनी रिहाइश है इतने इतने लोग
और मैं बच्चों का खेल मैदान हूँ
उसी बस्ती के बीच अटका अजूबा
वो ज़माना बीत गया वो हुक्मरान मर गये अपने ही वज़न से दबकर

काश मैं मिट्टी की गाड़ी होता!

 

विजय कुमार

बुलडोजर

बस्तियां ही अवैध नहीं
उनकी तो सांसें भी अवैध थीं
हंसना और रोना
भूख और प्यास
मिट जाने से पहले
थोड़ी सी छत थोड़ी सी हवा
भोर की उजास और घनी रातें
ईंट की इन मामूली दीवारों के पीछे
यहीं रही होगी आदम और हव्वा की कोई जन्नत
बच्चों की किलकारी
शक्तिहीन बूढ़ों की दुआएं
सब अवैध था सब कुछ

विशाल भुजाओं वाली
राक्षसी मशीनों
के भीमकाय जबड़ों से
अब लटक रहे हैं
उनकी
याचनाओं के कुछ बचे खुचे लत्तर

इस पृथ्वी पर ज़मीन का कौन सा टुकड़ा है
कि अब वहां बचाकर ले जाएं वे अपनी लाज
कौन सा रिक्त स्थान भरें
कोर्ट याचिकाओं में
कोई जगह नहीं मनुष्य चिह्नों के लिए
दर्द सिर्फ शायरी में
और
ग्राउंड ज़ीरो पर केवल एक ‘एक्शन प्लान’
एक उन्माद
कि कुचल कर रख दिया जाएगा सब कुछ

वे अपने बिखरे हुए मलबे में
खोजते हैं अपने कुछ पुराने यकीन
कोई ज़ंग खाई हुई आस
अपना रहवास
इस दुनिया में अपने होने के सबसे सरल रहस्य

घटित के बाद
अब वहां बस एक ख़ालीपन
उसे भर नहीं सकता कोई
कोई चीत्कार
शोक आघात विलाप ख़ामोशी
बचे हैं केवल तमतमाए चेहरे

ताकत के निज़ाम में
सब बिसरा दिया जाएगा
सब लुप्त हो जाएगा
सबकुछ
उजड़ना टूटना बिखरना ध्वस्त होना

पेड़ काट डाले गए
एक बेरहम दुनिया में
चिड़ियाएँ अशांत
वे अपनी स्मृतियाँ संजोए
वे अपनी फ़रियाद लिए
मंडराती रहती हैं
ज़मीन पर गिरे हुए घोंसलों के इर्दगिर्द

कोई भरपाई नहीं
यह हाहाकार भी उनका डूब जाता है
पुलिस वैन के चीखते हुए सायरनों में.

 

 

विष्णु नागर

बुलडोजर एक विचार है

बुलडोजर एक विचार है
जो एक मशीन के रूप में सामने आता है
और आँखों से ओझल रहता है

बुलडोजर एक विचार है
हर विचार सुंदर नहीं होता
लेकिन वह चूंकि मशीन बन आया है तो
इस विचार को भी कुचलता हुआ आया है
कि हर विचार को सुंदर होना चाहिए

बुलडोजर एक विचार है
जो अपने शोर में हर दहशत को निगल लेता है
तमाशबीन इसके करतब देखते हैं
और अपने हर उद्वेलन पर खुद
बुलडोजर चला देते हैं

जब भी देखो मशीन को
इसके पीछे के विचार को देखो

वरना हर मशीन जिसे देखकर बुलडोजर का खयाल तक नहीं आता

बुलडोजर साबित हो सकती है.

 

लीलाधर मंडलोई

रमजान में बुलडोजर

हैरां हूं इन उजड़े घरों को देखकर
ख़ाक़ उठती है घरों से
कुछ नहीं है बाक़ी उठाने को
यह वो शहर तो नहीं

जहां हर क़दम पर ज़िंदगियां रोशन हुआ करती थीं
अब ऐसा बुलडोजर निज़ाम
और मातम-ही-मातम

चौतरफ़ा कम होती सांसों में भागते-थकते लोग
नमाज़ में झुके सर
और दुआओं में उठे खाली हाथ
मांग रहे है सांसें रमजान के मुक़द्दस माह में

अब यहां ईदी में बर्बाद जीवन के अलावा
कुछ भी नहीं,कुछ भी नहीं.

 

बुलडोजर: तुलसी के राम का स्मरण

बचपन में मैंने देखे
हरे-भरे जंगल
उनके बीच बड़ी-बड़ी मशीनों से
धरती के गर्भ को भेदते लौह अस्त्र

कोयले के भंडारों की तलाश में
क्रूर तरीक़ों से जंगलों को
नेस्तनाबूद करने के लोमहर्षक दृश्य

वे कभी स्मृति से ओझल नहीं हुए
जीव-जंतुओं के साथ उजड़ते देखा

आदिवासियों के घरों को

बुलड़ोज़र के भीमकाय उजाड़ू जबड़ों में
लुटती मनुष्यता को देखना बेहद मुश्किल था

बुलड़ोज़र के पार्श्व में थी कोई दैत्य छवि
जिसे सब डरते हुए कोसते-गरियाते
लेकिन तब उजड़ने वालों से पूछने का रिवाज था

उनके साथ कोई भेदभाव न था, न जाति भेद
धर्म कभी विकास के रास्ते हथियारबंद न था

आज बुलडोजर पर सवार जब कोई गुज़रता है
वह ड्राइवर नहीं तानाशाह होता है

वह किसी एक क़ौम को निशाने पर लेता है
वह मद में भूल जाता है

घरों में सोये ज़ईफ़ों, बच्चों यहां तक
गर्भवती महिलाओं को

भयावह त्रासद ख़बरों के बीच
दुख और पश्चाताप में असहाय

मैं करता हूं तुलसी के राम का स्मरण
वह नहीं होता मौक़ा-ए-वारदात पर

वारदात को बेरहम ढंग से अंजाम देने वालों के भीतर
राम की जगह होता है मदांध तानाशाह का बीज

तानाशाह का ईमान और धर्म पूछती जनता
बुलडोजरों के जाने के बाद

एक बार फिर ध्वस्त जगहों पर
मुहब्बत के फूलों के खिलने के लिए

आशियाने बनाना शुरु कर देती है

इस बनाने से यह न समझा जाए
कि जनता बुलडोज़रों के साथ

तानाशाहों के महलों की तरफ़ कूच नहीं कर सकती.

 

अनूप सेठी

बुलडोजर और बुढ़िया संवाद

ओ बुलडोजर ? तू कहां चला?
उन्नने ड्यूटी पर भेजा है

क्या कह कर भेजा है?
दरो दीवार तोड़कर आ?
जो दिख जाएं खोपड़े फोड़ कर आ?

अंधी है क्या?
दिखता नहीं?
ड्यूटी बजा रहा हूं?
लोकतंत्र का घंटा घनघना रहा हूं?
कान खोल कर सुन ले
मेरा पिंडा-जिगरा लोहे का
लौह दरवाजों से निकला
मेरा पुर्जा पुर्जा लोहे का
मेरे मुंह मत लग री बुढ़िया
दो जो चार सांसें बची हैं, ले ले
सवाल किया तो यहीं धूल चटा दूंगा
नामोनिशान मिटा दूंगा.

 

कृष्ण कल्पित

बुलडोजर

ठाकुर साहेब, बहादुर कितने हो?
ऐसा समझो, ग़रीब और कमज़ोर के तो बैरी पड़े हैं !
(एक राजस्थानी कहावत)

 

(२)
घर वही ढहा सकता
जिसका कोई घर नहीं

जैसे युवावस्था में घर से भागा हुआ कोई भिक्षुक !

 

(3)
बुलडोजर तो तुम्हारे घर पर भी चल सकता है
या तुम्हारा घर लोहे का बना हुआ है ?

 

(४)
उन्होंने मन्दिर तोड़ डाले
तुम मस्जिदों को ढहा दो

नफ़रतों और
बुलडोजर का कोई धर्म नहीं होता !

 

(५)
तुम्हारे बुलडोजर से
लाल क़िला नहीं ढह सकता

नहीं ढह सकता ताजमहल
गोरख-धाम नहीं ढह सकता
तुम काशी विश्वनाथ मन्दिर को नहीं ढहा सकते
जामा मस्जिद से टकराकर तुम्हारे बुलडोजर टूट जाएँगे

तुम्हारा बुलडोजर सिर्फ़ ग़रीबों को तबाह कर सकता है !

 

(६)
कबीर के सुन्न-महल को कैसे ढहाओगे

वहाँ तक तो तुम्हारी रसाई तक नहीं है, मूर्खों !

 

(७)
ढहा कर ही तुम सत्ता में आए हो
इसलिए तुम ढहा रहे हो

तुमने उस मस्जिद को ढहा दिया
जिसमें काशी के ब्राह्मणों के आक्रमण से आहत तुलसीदास ने पनाह ली थी
जिसमें रामचरितमानस के कई प्रसंग लिखे गए !

 

(८)
इसमें अब कोई संदेह नहीं कि
तुम सारे लोग एक दिन

कुचलकर मारे जाओगे !

 

(९)
पुण्य ही नहीं
पाप भी फलते हैं

क्या किया जाए
यह भयानक मृत्यु तुमने ख़ुद चुनी है !

 

(१०)
मैं बुलडोजर से कुचलते हुए
तुम्हें देखना चाहता हूँ !

 

(११)
आमीन/तथास्तु !

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

बुलडोजर

ये बुलडोजर नहीं
जैसे शत्रु देश के टैंक हो
अपने ही नागरिकों को रौंद
रहे हों
जो नाफरमानी करता है
उसे सबक सिखा देते है

इनके लिए कोई सरहद नहीं
नहीं है कोई बंदिश
इनके मनमानी को कोई चुनौती
नहीं दे सकता है

बुलडोजर अचानक कही भी पहुंच सकते हैं
उन्हें किसी हुक्म की जरूरत
नहीं है
वे हुक्म के परे हैं

मगरमच्छ की तरह रक्ताभ हैं
इनके जबड़े
नुकीले हैं इनके दांत
वे दूर से दिखाई देते हैं

ये नदी या झील में नहीं रहते
जमीन पर कवायद करते
रहते हैं
निरपराध लोगों को बनाते हैं
शिकार

वे बिना सूचना के आते है
किसी अदालत में नहीं होती
इनके खिलाफ कार्यवाही

वे किसी अदालत का आदेश
नहीं मानते
खुद ही फतवा जारी करते हैं

पूरे इलाके में है इनका खौफ
लोग इनके डर से बाहर
नहीं निकलते

बुलडोजर नींद में भी दुःस्वप्न
की तरह आते हैं
और हमारा चैन बर्बाद कर
देते हैं

ये तानाशाहों के सैनिक हैं
इन्हें अभयदान मिला हुआ है
वे कही भी जा सकते हैं
और किसी को भी ढहा
सकते हैं
चाहे वह इमारत हो या कोई
आदमी

थोड़ा रुक कर सोचिये
जो कारीगर इसे बनाते है
वह क्या इसके कुफ्र से बच
पाते होंगे ?

 

बोधिसत्व

बुलडोजर

एक चूड़ी की दुकान में
एक सिंदूर की दुकान में
अजान के समय घुसा वह बुलडोजर की तरह!

उसने कहा मैं चकनाचूर कर दूंगा वह सब कुछ जो मुझसे सहमत नहीं!
जो मेरे रंग का नहीं
उसे मिटा दूंगा!

उसे आंसू नहीं दिखे
उसे रोना नहीं सुनाई दिया
उस तक नहीं पहुंचीं टूटने की आवाजें
उसे बर्तनों के विलाप नहीं छू पाए!

उसे खपरैलों की चीख ने छुआ तक नहीं
कुचलने को वीरता और तोड़ने को शौर्य कह कर
ढहाता रहा टुकड़े टुकड़े जोड़ी
कोठरियों और आंगनों को!

देश की राजधानी में भी हाहाकार की तरह था वह
अपनी नफरत भरी उपस्थिति से समय को विचलित करता एक संवैधानिक व्यभिचार की तरह था!

वह आएगा और सब कुछ उजाड़ जाएगा
यह कह कर डराते थे बुलडोजर के लोग
उनको जो बुलडोजर के स्वर में स्वर मिलाकर नारे नहीं लगाते थे
जो बुलडोजर का भजन नहीं गाते थे
बुलडोजर उनको मिटाने की घोषणा करता
घूम रहा है!

बुलडोजर को किसी की परवाह नहीं
क्योंकि उसे एक गरीब ड्राइवर नहीं
राजधानी में बैठा कोई और चला रहा था
जिसे सब कुछ कुचलना और गिरा देना पसंद था!

जो तोड़ने की आवाज सुन कर ख़ुश होता था
और जब कुछ न टूटे तो
वह बिगड़े बुलडोजर की तरह
सड़क किनारे धूल खाता रोता था!

 

 

अच्युतानंद मिश्र

 ताकतवर लोगों का भय
(प्रिय रवि राय के लिए)

सबसे ताकतवर लोग
सबसे कमजोर लोगों से लड़ रहे हैं
सबसे ताकतवर लोग हंसते हंसते पागल हो रहे हैं

सबसे कमजोर लोग गठरी बांधे
बच्चे को गोद में लिए सड़क पर
घिसट रहे हैं

वे एक के बाद एक
दुख की नदी में पार उतर कर
सूअरों को बचा रहे हैं
वे शहर की सबसे बदबूदार गली में
घास फूस की छतें उठा रहे हैं

वे मनुष्य और मनुष्यता के बारे में नहीं
न्याय अन्याय और असमानता के बारे में नहीं
दुख के बाद सुख
रात के बाद दिन
के बारे में नहीं सोच रहे हैं

वे खालिस पानी में उबल रही
चाय की पत्ती के बारे में
सीलन भरी बिस्तर पर लेटे
बुखार से तपते बच्चे के बारे में
म्युनसिपालिटी द्वारा काट दी गई
बिजली के बारे में
धर्म के बारे में नहीं
आने वाले त्यौहार के बारे में सोच रहे हैं

वे एक अंधकार से दूसरे अंधकार
के बारे में सोच रहे हैं
उस खामोशी के बारे में
उस खामोशी के भीतर दबे आक्रोश के बारे में
उस आक्रोश में छिपी हताशा के बारे में
बहुत कम सोच रहें हैं

ताकतवर लोग
ताकत की दवाई बना रहे हैं,
वे लोहे और फौलाद को पल भर में
मसलने का विज्ञान खोज रहे हैं
मुलायम गलीचे और लजीज खाने
के बारे में सोच रहे हैं

वे बार-बार ऊब रहे हैं
वे हर क्षण कुछ नया, कुछ अधिक आनंददायक
कुछ और सफल
चमत्कृत कर देने वाली
कोई चीज ढूंढ रहे हैं

वे हुक्म दे रहे हैं और नाराज हो रहे हैं
लोगों को संख्या में
और संख्या को शून्य में बदल रहे हैं

सबसे ताकतवर लोग बुलडोजर के बारे में सोच रहे हैं
सबसे कमजोर लोग भी बुलडोजर के बारे में सोच रहे हैं.
सबसे ताकतवर लोग खुशी से नाच रहे हैं
सबसे कमजोर लोगों का दुख समुद्र की तरह बढ़ता जा रहा है

सबसे ताकतवर लोग थोड़े हैं
सबसे ताकतवर लोग इस बात को जानते हैं
सबसे कमजोर लोग  बहुत अधिक हैं
सबसे कमजोर लोग इस बात को नहीं जानते

सबसे ताकतवर लोगों को यह भय
रह रहकर सताता है
एक दिन सबसे कमजोर लोग
दुनिया के सारे बुलडोजरों के सामने खड़े हो जाएंगे.

 

विनोद शाही

पत्थर धर्म

पाषाण काल से
कथा सनातन चली आ रही
अब तक पत्थर
मानव होने की
ज़िद करते हैं

शिला-पुरुष हैं एक ओर
बुलडोज़र के पहियों से
उनके कुछ टुकड़े अलग हुए तो
जन्मे बाकी के पत्थर जन

जैसे आदम की पसली से
हब्बा निकली है

जैसे पैरों से ब्रह्म देव के
शूद्रों का उद्भव होता है

मर्यादा पुरुषोत्तम
शिला-पुरुष ने
अन्य सभी को
स्वयं सेवकों में रखा है

सृष्टि पूर्व से रचित सनातन
पृथ्वी शिला सा
‘पत्थर धर्म’ चलाया है

‘बुलडोज़र स्मृति’ को
संविधान का रूप दिया है

जन जन की पत्थर काया को
तोड़ा उसने रोड़ी में
और आत्मा का चूरा कर
सीमेंट में बदला
शिला-पुरुष का भव्य भवन
यों खड़ा हुआ

अलग धर्म के लोग मगर
‘बुलडोज़र स्मृति’ के
विधि विधान के
जलसों त्योहारों से बचते हैं

हाथों में पत्थर
उनके भी हैं

और अहिंसक हैं थोड़े
गीता अपनी के मंत्र बोलते
“देह हमारी बेशक कुचले बुलडोज़र कोई
नहीं आत्मा उसके हाथों आयेगी”

परवाह नहीं, बस रौंद दिये
परधर्मी घर बुलडोज़ हुए

पत्थर के ढेर बचे पीछे
पहचान नहीं पाता है कोई
कहां पड़े दिखते पत्थर हैं
कहां स्वयं वे पड़े हुए हैं

‘बुलडोज़र स्मृति’ में लिखा मिला है
‘शठे शाठ्यम् समाचरेत’ ही
न्याय धर्म की रीति है
वे आतंकी, अर्बन नक्सल हैं
पाकिस्तानी तक उनमें हैं
बीमार देश है
दवा तिक्त पीनी पड़ती है

जड़ समाज होता जाता है
नहीं बुरा यह लेकिन इतना है
जितना उसका
पत्थर होने की
स्मृति से बंधना है
खो देना इतिहास बोध को
जीते जी पत्थर होने से
राज़ी होना है

पत्थर से मुर्दा
सभी हो रहे
कुछ पत्थर होकर भी
लेकिन थोड़े जीवित हैं

लेकिन बेहद थोड़े हैं

यह संकट की
घड़ी बड़ी है

देव जनों की प्रस्तर प्रतिमाएं
जीवित पत्थर से बनती हैं

जीवित पत्थर पर
छिपे हुए हैं

देव मूर्तियां इसलिये
हो गयीं विहीन
ईश्वर से अपने

यह संकट की
घड़ी बड़ी है

संस्कृति से जीवन
विदा हो गया

युद्ध लिप्सा से भरे हुए
मानव द्रोही काम सभी
बेजान पत्थरों के जिम्मे हैं

जीवित पत्थर से
जीवित जन
पाषाण काल में
लौट रहे हैं

लौट रहे पर
आसान नहीं उनकी यात्रा है

रस्ता
गुहाद्वार से होकर जाता है
उसके मुख पर पड़ी हुई है
एक शिला
जिस पर इतिहास आद्य काल का
भित्ति चित्र सा अंकित है

दिख रहा साफ है
शिला-पुरुष पृथ्वी के सारे
उसकी नकल किया करते हैं

पाखंडी प्रतिनिधि ईश्वर के
इतिहास शिला की
पैरोडी खाली करते हैं

इतिहास शिला से
भू कंपन से स्वर उठते हैं
बोल रही वह
मेरे पीछे छिपे रहस्य हैं
खोलो द्वार
सत्य कथा को
फिर से बाहर आने दो

पाषाण काल की ध्वनियां सारी
उसकी भाषा में अर्थ बनी हैं
पत्थर लिपि में लिखी मिलीं हैं

दुश्मन बेशक बहुत बड़ा हो
और हारना निश्चित हो
रणभूमि को ऐसे में
पीछे छोड़ो, रणछोड़ बनो
धैर्य धरी, दृढ़ बने रहो
इतिहास मदद करने आयेगा

कालयवन में शक्ति दंभ है
जड़ बुद्धि दैत्य है, वैसा ही है
जैसा होता बुलडोजर कोई

अंध गुहा के भीतर तक भी
पीछा करता आयेगा ही
आने दो उसको पीछे पीछे
असुरारि मुचुकुंद
वहां सोया है कब से
काल तुम्हारा
कालयवन
उसका है भोजन

महा शिला से
कालयवन कंकाल बने
पड़े हुए है
काल गुहा में जाने कितने

लौटे वापिस
पाषाण काल से
जीवित पत्थर

चिकने होकर
स्वयं लुढ़कना
आगे बढ़ना सीख रहे हैं
स्वयं-सेव हैं वे ही सच्चे

मुर्दा पत्थर
लेकिन ठहरे हैं
‘शिला छाप’ हैं
भगवां ठप्पे
उनके माथों पर लगे हुए हैं
ट्रेड मार्क बनते हैं जैसे
उपयोगी चीज़ों के

खुसरो बन कर
आये हैं लेकिन वे तो अब
छाप तिलक सब छोड़ रहे हैं

वे कबीर हैं
अष्ट-छापिया
पत्थर धर्मों के पार खड़े हैं

 

हूबनाथ

बुलडोजर

सिर्फ़
एक शब्द ही नहीं
एक मशीन ही नहीं
एक अवधारणा भी नहीं
बल्कि
एक पॉलिसी है
एक नीति
एक कूटनीति है
बुलडोजर

संविधान की पुस्तक में
छिपा एक दीमक है
सत्ता की आत्मा में पैठा
एक डर है
शक्तिहीनता का संबल
पौरुषहीनता की दवाई है
बुलडोजर

झूठ का पहाड़
जब ढहने लगे
क्रूरता के क़िले की दीवार
में सेंध लग जाए
रंगे सियार का
उतरने लगे रंग
तो सबसे बड़ा सहारा है
बुलडोजर

खेतों को रौंदता हुआ
कमज़़ोर घरों को ढहाता
झोंपड़ियाँ उजाड़ता
नंगी भूखी भीड़ पर
रौब जमाता
जब थक जाता है
तब सत्ता की जाँघ तले
सुस्ताता है
बुलडोजर.

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