कला

क्या आप केके नायकर को जानते हैं ?

क्या आप केके नायकर को जानते हैं ?

यह कैसा अजीब सा सवाल है कि क्या आप केके नायकर को जानते हैं?  भई जो भी हंसना जानता है वह केके नायकर को जानता है. देश के पहले स्टैंडअप कॉमेडियन केके नायकर पहले भी जबलपुर में रहते थे और अब भी जबलपुर में ही रहते हैं. वे चाहते तो फिल्मी दुनिया में अपना एक खास मुकाम बना सकते थे, लेकिन प्रोग्राम करते-करते उन्हें यह ख्याल ही नहीं रहा कि मुंबई में पैसों की बारिश होती है. बीच में उनका पारिवारिक जीवन उथल-पुथल से भरा रहा. पहली पत्नी से आपसी सामंजस्य नहीं बैठ पाने के कारण वे पूरी तरह से सड़क पर आ गए थे, लेकिन फिर जैसे-तैसे उन्होंने अपने आपको संभाला और अब इन दिनों एक बार फिर से सक्रिय है. चाहे राजू श्रीवास्तव हो या फिर कॉमेडी किंग जॉनी लीवर...सब मानते हैं कि अगर केके नायकर नहीं होते तो वे यह कभी नहीं जान पाते कि स्टैंडअप कॉमेडी क्या होती है. इप्टा के वरिष्ठ साथी दिनेश चौधरी उन पर एक किताब लिखने जा रहे हैं. हाल के दिनों में उन्होंने पर अपने फेसबुक वॉल पर दो किस्त लिखी है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के पाठकों के लिए यहां वह किस्तें प्रस्तुत हैं-

( एक ) जर्रा बुलंदी को छूने निकला था

एक बार चार्ली चैपलिन के अभिनय की नकल करने की प्रतियोगिता रखी गई । नजरें बचाकर खुद चार्ली भी इस में शामिल हो गए। चार्ली चैपलिन को इस प्रतियोगिता में तीसरा स्थान मिला। किसना की कथा भी कुछ यूँ ही है।

अपने जमाने में किसना का रुतबा किसी सुपर स्टार से कम नहीं था। उन दिनों जब कैसेट प्लेयर गलियों और नुक्कड़ों के पान ठेलों में बजते थे तब गब्बर सिंह के साथ एक आवाज और सुनाई पड़ती थी। इस एक आवाज में कई आवाजें होती थीं। यह एक तरह से कई किस्म की आवाजों का कोलाज होता था। आवाजें कुछ ऐसी जीवंत होतीं कि साफ-साफ दिखाई पड़ने लगतीं। कुछ यूँ कि इतने साफ दृश्य भी नज़र न आते हों। फिर न जाने क्या हुआ कि यह आवाज एक चुप्पी में बदल गई। बहुत गहरी और लम्बी चुप्पी। लोगों ने इस आवाज को ढूंढने की बहुत कोशिश की, पर वह कहीं नजर नहीं आई। इस गुमशुदगी की वजह से खाली हुई जगह को भरने के लिए फिर बहुत से लोग आए। ये वही लोग थे जो चार्ली की नकल करने आए थे और नकल करने का उनका फन असल से बेहतर माना गया। 

यह वह दौर था जब एक तिलस्मी बक्सा लोगों के घरों में घुस आया था और जब तक इसका तिलिस्म टूटता, लोगों के पाँवों में जंजीर पड़ चुकी थी।लोग अपने ही घरों में अपनी मर्जी से कैद हो गए। सामूहिकता खत्म हो गई और सब तरह की महफिलें सूनी हो गईं। बक्से के रास्ते बाजार ने घरों में सुरंग बना ली और फिर पूरे समाज को एक ओर धकिया दिया। वह खेल, संस्कृति व उत्सवों से लेकर कलाओं की दुनिया में काबिज हो चुका था। जो चारण नहीं थे उन्हें कला की दुनिया से बाहर धकेलना का सिलसिला शुरू हो गया था और समझदारों ने अपनी कमीज जानबूझकर थोड़ी मैली कर ली थी। कलाफरोश ही कला के सबसे उत्कृष्ट आलोचक मान लिए गए थे और इसके नाम पर जो कुछ भी परोसा जाने लगा वह फूहड़, सुरुचिहीन और एक हद तक अश्लील होने लगा था। 

ठीक इसी दौर में किसना एकाएक सड़क पर आ गया था। गाड़ी-बंगला सब धरे रह गए। ऊपर, बहुत ऊपर छत के नाम पर आसमान रह गया था और पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी। बाहरी दुनिया से सम्पर्क कट गया, जैसे डूबे हुए जहाज से बचा हुआ कोई सैलानी किसी अनजान टापू की शरण में जा पहुँचा हो। टेलीफोन- मोबाइल कुछ नहीं। सिर्फ एक अटैची, जो एक परिचित के यहाँ धरी थी। जेब में फ़क़त 80 रुपये। सोना-नहाना रेलवे स्टेशन में। कोई परिचित देखता तो सोचता कि कहीं प्रोग्राम करने जा रहे होंगे। ये दिन देखना भी शायद उनकी नियति में बदा था, जो इंसान के वश में नहीं होता। जीवन में सब कुछ वैसा नहीं चलता, जैसा आप सोचते या चाहते हों। कभी-कभी जिंदगी आपको अपने तरीके से हाँकती है और उसका रुख क्या होगा, यह पहले से पता नहीं होता। 

दुनिया को हँसने-हँसाने का हुनर बाँटने वाले किसना उर्फ कृष्णा भैया उर्फ के के नायकर अगर अपनी निजी जिंदगी में एक त्रासदी का शिकार न होते, तो लोग भी अपने जीवन के कुछ बेहतरीन पलों से महरूम न होते। के के नायकर हिंदुस्तान में बस एक ही है। ये जबलपुर के पानी की खासियत है कि यहाँ जो हुआ एक ही हुआ, कोई जोड़ नहीं। एक ओशो, एक परसाई, एक योगी, एक नायकर। यह वो शहर है, जहाँ मुर्गी के अंडों का अविष्कार भी दुबेजी करते हैं। 

नायकर के माता-पिता तमिलनाडु से यहाँ आ बसे थे। शुरुआती पढ़ाई 'लाल स्कूल' में हुई। स्कूल की दीवार के रंग के कारण यह नाम रख दिया गया था और प्रचलित भी हुआ। इसी लाल स्कूल के नाम पर एक रोचक वाकया हुआ। हिंदी के एक हास्य-कवि को अपनी किताब का विमोचन मशहूर फ़िल्म निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी से कराना था। हृषिकेश तब 80 की उम्र में पहुँच चुके थे और बिस्तर पर थे। कविवर अपने चार मित्रों के साथ, जिनमें एक नायकर भी थे, मुखर्जी दा के फ्लैट में पहुँचे। उन्होंने अपना बंगला बेच दिया था और फ्लैट के एक कमरे में नर्सेस उनकी तिमारदारी में लगी हुई थीं। कुल 5 मिनटों का समय दिया था। विमोचन की कारवाई के लिए रिबन खोला गया। ताली बजी। परिचय हुआ। सबसे आखिर में नायकर का। जबलपुर के नाम से उनके कान खड़े हो गए। कहा, " जबलपुर के गुरन्दी मार्केट में चूसने वाले आम अब भी मिलते हैं? तब दो रुपये में एक टोकरी मिल जाया करती थी।" नायकर ने कह,"हाँ, पर अब थोड़े महंगे हो गए हैं।" फिर उन्होंने पूछा, " अच्छा, गढ़ा में सीताफल मिलते हैं?" नायकर ने कहा, " हाँ! पर दादा....जबलपुर में भेड़ाघाट है, धुंआधार है, पास में कान्हा किसली है.. आप उन्हें छोड़कर गुरन्दी मॉर्केट, चूसने वाले आम और सीताफल के बारे में पूछ रहे हैं।" मुखर्जी दा ने कहा, "चौथी कक्षा तक मेरी पढ़ाई लाल स्कूल में हुई थी..।" नायकर ने उनके पैर पकड़ लिए और कहा कि, " आप मेरे सीनियर हुए, मैंने भी यहीं पढ़ाई की है।" 5 मिनटों की मुख्तसर मुलाकात कोई घण्टे भर तक फैल गई। आगे नायकर के किसी कैसेट का राज भी खुला जो मुखर्जी दा ने सुन रखा था। कहा, " बॉम्बे में पहले लक चलता है, फिर टैलेंट.. अगर पहले मिलते तो तुम मेरी फिल्मों में होते।"

यों नायकर ने मुंबई की ओर रुख करने के बारे में कभी सोचा भी नहीं। एक तो पारिवारिक जिम्मेदारियां बड़ी थीं। दूसरे सिने इंडस्ट्री की कला 'मांग और आपूर्ति' के सिद्धांत पर चलती है। वे अपनी कला को खुदा की नेमत मानते हैं, सो इसकी शुद्धता के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। जिन्होंने उन्हें देखा-सुना है, वे जानते हैं कि उन्होंने अपने कंटेंट में कभी भी अश्लील अथवा फूहड़ चीजों का समावेश नहीं किया। इन्हें वे उथले पानी के बुलबुले की तरह कहते हैं, जो बस कुछ ही पल में हमेशा के लिए खत्म हो जाते हैं। दूसरी ओर झील की गहराई में फेंका गया कंकड़ जो लहरें पैदा करता है, वे दूर तक जाती हैं और देर तक रहती हैं।

उन्होंने अपने आत्म-सम्मान के साथ भी कभी समझौता नहीं किया। इसी वजह से शादी-ब्याह में कार्यक्रम वाले न्योतों को भी ठुकराते रहे। बस दो मौके ऐसे आए जब वे इंकार न कर सके। एक तो एक लड़के के बाप ने बताया कि लड़के ने कसम खा रखी है कि शादी तभी करेगा, अगर नायकर साहब आएंगे। यह धर्मसंकट था। वे नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से एक लड़का आजीवन कुंआरा रह है। उन्होंने शर्त रखी कि कार्यक्रम बरातियों-घरातियों के लिए नहीं होगा। जब वे खाना खाकर विशुद्ध दर्शक में तब्दील हो जाएँ, तभी होगा। शर्त मान ली गई पर लड़के के बाप ने मानी थी, बाकियों को क्या मतलब। रात्रि-भोज देर तक चलता रहा। कोई एक बजे के आसपास जब फुर्सत हुई तो कार्यक्रम शुरू हुआ। शादी में दूल्हा बेचारा सबसे दयनीय प्राणी होता है। सब घेरे हुए होते हैं। कुदरती आवाजों को भी अनसुना करना पड़ता है। बेतरह थका हुआ था। इधर कार्यक्रम शुरू हुआ और उधर आँखे मूँदने लगीं। नायकर साहब ने दूल्हे के बाप को यह नजारा दिखाया और यह कहते हुए कि 'कसम तो पूरी हो गई', अपनी दुकान समेट ली।

दूसरा मौका ऐसा था, जब इनकार करना मुमकिन न था। बुलावा मुंबई से हाजी मस्तान का था। बताने की जरूरत नहीं कि तब हाजी मस्तान का रसूख क्या हुआ करता था। कलाकार को पकड़ लाने के एक आदमी को जबलपुर भेज दिया गया था। जहाँ ठहराया गया वहाँ खिड़की से झाँककर देखा तो पाया कि मेहमान खाने-पीने में मस्त हैं और फ़िल्म अभिनेता जॉनी लीवर उनके मनोरंजन में मस्त हैं। साथ वाले सिपहसालार ने पूछा, 'भाई, तुमको भी प्रोग्राम करना मांगता क्या?' नायकर साहब का गला सूख गया। कहा, 'नहीं, मुझे थोड़े ज्यादा स्पेस की जरूरत होती है।' भाई ने कहा, ' बोले तो स्टेज माँगता?' नायकर ने कहा, 'हाँ।' जवाब मिला, 'कल मिलेंगा!' किसी तरह जान बची। जिज्ञासावश भाई से पूछा, ' मस्तान साहब का घर कहाँ है?' जवाब मिला, ' अख्खा मुंबई में उनका घर है। कौन-सा देखना मांगता?'

अगले दिन स्टेज पर पहुँचे तो दिलीप कुमार और सायरा बानू सामने बैठे हुए थे। साथ में संजय खान भी थे। दमकता हुआ स्टेज, भारी चकाचौंध, कैमरे और कैमरे। जब तक उन्होंने माइक सम्भाला, हाजी मस्तान ने दिलीप कुमार और सायरा को दोनों बाहों में समेट लिया। बेटी से मिलवाया और इसी तरह विदा भी किया। अभी उन्हें छोड़ा भी न था कि नायकर के गले से इंदिरा गांधी की आवाज फूटने लगी। हाजी मस्तान की आँखे बदहवास यहाँ-वहाँ दौड़ने लगी। यह दिल्ली वाली आवाज कहाँ से आ रही है? जब मुआमला समझ में आया तो मंच पर आकर नायकर को समेट लिया। दर्जनों कैमरों के फ्लैश चमक उठे। कोई और होता तो इस मौके को फिल्मी दुनिया में प्रवेश के लिए भुना लेता। नायकर ने अगले दिन अपना बोरिया-बिस्तर समेटा और वहाँ से निकल लिए।

इंदिरा गांधी की आवाज उनके गले से बाकमाल निकलती है। मीना कुमारी, वहीदा रहमान और सायरा बानू को भी सुना जा सकता है। फेहरिश्त बनाने से बेहतर है यह कहना कि दुनिया की ऐसी कोई आवाज नहीं है, जो उनके कंठ से न फूटती हो। हाँ, कभी-कभी वे अपनी आवाज भूल जाते हैं। बचपन में उन्हें संगीत सीखने का शौक चर्राया। बाकायदा संगीत विद्यालय में दाखिला भी ले लिया। कोई शर्मा जी थे, जिन्होंने सारेगामा का अभ्यास कराया। फिर उन्हें कोई काम आन पड़ा तो एक अन्य उस्ताद की शरण मे भेज दिया। उस्ताद जी ने कहा, चलो आज तुम्हें राग यमन बताते हैं। जैसे में गाऊँ, वैसे तुम भी गाना। शागिर्द ने सिर हिलाकर उस्ताद की बातों का अनुमोदन किया। उस्ताद ने एक टुकड़ा गाया। शागिर्द ने हू-ब-हू उसकी नकल की। उस्ताद ने फिर से गाया। शागिर्द ने फिर नकल की। उस्ताद ने हारमोनियम एक तरफ रखकर कहा, "सुर मेरे जैसे लगाओ पर आवाज अपनी!" शागिर्द के गले से सुर तो सही निकलते रहे पर आवाज उस्ताद की ही निकलती रही। हारकर उस्ताद ने शागिर्द से तौबा कर ली और शागिर्द ने संगीत से। एक महान गायक की भ्रूण- हत्या हो गई!

 

( दो ) बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले

 

वह कयामत की रात थी। जुलाई 79 की उस रात को भारत सरकार ने सभी राज्यों की पुलिस को हाई एलर्ट पर रखा था। तब अपन कच्ची उम्र में थे और यह समझने के काबिल नहीं थे कि स्काई लैब गिरेगा तो पुलिस क्या करेगी? हालांकि अब इस उम्र में भी यह समझना आसान नहीं है कि सचमुच ही स्काईलैब उस तरह गिर जाता, जैसा प्रचारित हुआ था, तो उसमें पुलिस की क्या भूमिका होती? पर अपनी जनता को आश्वस्त करने के लिए सरकारों को कुछ तो करना ही पड़ता है। 

अफवाहें उस जमाने में भी खूब फैलती थीं, जबकि तब व्हाट्सएप नहीं था। तरह-तरह की बातें चलती थीं, कयास लगाए जाते थे और जीवन व संसार की निःसारता की दुहाई दी जाने लगी थी। कहते हैं कि तब कुछ लोग अपनी ज़मीनें भी कौड़ियों के मोल बेच रहे थे और कुछ कौड़ियों के मोल खरीद रहे थे। जो बेच रहे थे, जरूर उन्होंने अपनी अक्ल भी बेच खाई होगी, क्योंकि जब दुनिया ही खत्म होने वाली हो तो कोई जमीन खरीद कर भला करेगा क्या? 

जैसे कभी-कभी इंसान अपनी राह से भटक जाता है, अमेरिका का यह यान भी अपनी कक्षा से भटक गया था। भटके हुए इंसान का कोई ठिकाना नहीं होता। स्काईलैब का भी कुछ पता नहीं था कि वह कहाँ गिरेगा। जबलपुर वालों ने सोचा कि वह अपने ऊपर गिरेगा। जबलपुर में गिरने-उठने की सबसे उपयुक्त जगह मालवीय चौक है। यहाँ से उठकर कई नेताओं ने अपार ख्याति अर्जित की है। कुछ का पतन भी हुआ है। 

तो लोगों ने सोचा कि मरना ही है तो क्यों न हँसते-हँसते मरा जाए और हँसने-हँसाने का सबसे बढ़िया काम नायकर ही कर सकते थे। सो उस रात मालवीय चौक में 'मिलन' संस्था ने 'स्काईलैब नाइट' का आयोजन रखा । इस आयोजन के लिए नायकर ने एक विशेष कार्यक्रम तैयार किया था जो किन्हीं कारणों से आज तक प्रस्तुत नहीं किया जा सका। 'स्काईलैब' अलबत्ता आशु रचना थी जो खूब पॉपुलर हुई। यह नायकर की बहुत बाद की रचना है। उनकी शुरुआती रचनाओं को जानने-समझने के लिए बीते हुए दिनों की ओर लौटना होगा जब जिंदगी आज की तरह साँस-दर-साँस मशीनों पर टिकी हुई नहीं थी और दुनिया में बहुत कुछ था, जो मौलिक, पारदर्शी और साफ-शफ्फाक था!

उन दिनों आसमां में इतनी सादगी और सूनापन नहीं होता था। मौसम न होने पर भी एकाध पतंग डोलती हुई नज़र आ जाती थी और मौसम आने पर आसमां रंगों से भर जाता था। रंग-बिरंगी पतंगे, कितने ही आकारों में, कितनी सारी शक्लों में उड़ती दिखाई पड़तीं। प्रोफेशनल किस्म के पतंगबाज पारम्परिक चौकोर आकार वाली पतंगें पसन्द करते थे, जिसके पीछे एक बहुत छोटी तिकोनी दुम होती थी। इनका मुख्य मकसद औरों की पतंग काटना होता था। पतंग जब कट जाती और बल खाती हुई हवा में लहराती तो उन्हें वैसी ही प्रसन्नता हासिल होती जैसे एक कवि को दूसरे कवि की आलोचना पर होती है। कटी हुई पतंग को हासिल करने के लिए अच्छा- खासा हुजूम दौड़ पड़ता था और जिस किसी को मिल जाए, वह अपने आपको ओलिम्पिक मैडल विजेता से कम नहीं समझता था। एक सच्चा पतंगबाज उस आशिक की तरह होता था, जिसकी निगाह हर पल माशूका पर होती। इस मोहब्बत में वह यह भी भूल जाता था कि उसके पैरों तले जमीन नहीं है और पतंगबाजी के फेर में खुली छत से गिर पड़ने के कई वाकये सुनाई पड़ते थे। शौकिया किस्म के पतंगबाज अलबत्ता सिर्फ इन्हें उड़ाने में यकीन रखते थे और इस काम के लिए 'फैंसी' पतंगे उपयोग में लाई जाती थीं। इन पतंगों में पुछल्ले वाली, बगैर पुछल्ले वाली, हीरों के आकार वाली, मछली अथवा जहाजनुमा पतंगे हुआ करती थीं। कभी-कभी इनका आकार भी अप्रत्याशित रूप से बड़ा हुआ करता था। 

तब जबलपुर में पतंग एक पैसे में मिल जाया करती थी। हालांकि इन पतंगों को बहुत अच्छे किस्म की नहीं माना जाता था। अच्छी पतंगें इलाहाबाद- बरेली से आती थीं। हरेक मोहल्ले में एक न एक नामी पतंगबाज हुआ करता था। जब उसकी पतंग उड़ती तो पीछे अच्छा-खासा मजमा जुट जाता। इस भीड़ में एक छोटी-मोटी विशेषज्ञ समिति भी होती थी जो नाजुक मौकों पर बहुत उपयोगी सलाह देती थी, जिसे कोई सुनता नहीं था। महिलाएं छत और आंगन में निकल आती थीं.. वो रही माशाखां की पतंग, वो दासू की और वो डॉ. खान की। कोई ज्यादा रसिक हुआ तो पार्श्व-संगीत के रूप में चुंगे में गाना बजाने लगता.."उड़ी उड़ी रे पतंग मेरी चली रे!" इन्हीं पतंगों में से कोई एक नायकर की भी हुआ करती थी। 

जीसीएफ के लाल स्कूल वाले दिनों में ही पतंगबाजी की इब्तिदा हो गई थी, लेकिन जेब हल्की होने के कारण एक पैसे की पतंग से काम चलाना पड़ता था। पतंग आ भी गई तो सिर्फ उड़ाई जाती थी, पतंगबाजी का जोखिम लेने का सवाल ही नहीं उठता था। एक पतंग कई-कई दिनों तक चलाई जाती थी। पतंग उड़ाने के अलावा उड़ती हुई पतंगों को देखने का भी नशा था। दर्जे में बड़ी बहनजी से 'नेचरल कॉल' का बहाना कर निकल जाते थे और लोटा लेकर बड़े इत्मीनान से बैठे हुए पतंगों को निहारा करते थे। 'फेक कॉल्स' की वजह से दो-चार बार अच्छी कुटाई भी हुई।

बाद में जब रेलवे में नौकरी लगी तो इलाहाबाद-बरेली जाना आसान हो गया। वापसी में इतनी पतंगें होती थीं कि डिब्बे में साथ वाले यात्री उन्हें पतंग बेचने वाला समझते थे। अच्छी पतंगों के साथ पतंगबाजी का हुनर भी अच्छा हुआ। किसना ने एक बार लगातार 8 पतंगें काट डालीं। तब जो पतंगबाज एक साथ 9 पतंगें काट लेता था, उसे 'नौशेरवां' की उपाधि मिलती थी। वे नौशेरवाँ से बस एक कदम की दूरी पर थे। पर डॉ खान ने, जो उस समय नौसिखुआ थे, आश्चर्यजनक ढंग से उनकी पतंग काट डाली और वे नौशेरवाँ होते-होते रह गए। अलबत्ता पतंग उड़ाने वाली कोई पचास साल पुरानी चकरी उन्होंने अब भी सहेज कर रखी हुई है।

दिन का वक्त अक्सर पतंगबाजी या कबड्डी में गुजरता। नायकत्व का स्वाद मिमिक्री से पहले कबड्डी में चख लिया था। शत्रु दल किसना के नाम से डरता था। थोड़ी पहलवानी के साथ ऊँची छलाँग उनकी अतिरिक्त योग्यता थी। छलाँग कबड्डी में बड़े काम की चीज होती है। सर्विस करते हुए अंदर प्रवेश कर जाना और छलाँग मारकर निकल जाने में दो-चार खिलाड़ी ढेर हो जाते। खेल का असली मजा तो तब आता है जब हार रही टीम आखिरी क्षणों में क्रॉसिंग बन्द कर देती। ऐसे ही किसी नाजुक मौके पर एक बार नायकर ने सर्विस कर रहे वसीम खां नामक खिलाड़ी को अपनी मिमिक्री से हँसा दिया, जिससे उसकी 'कबड्डी कबड्डी' वाली लय टूट गई और उसे दबोच लिया गया। अगर यह अंतरराष्ट्रीय मैच होता तो इंटरनेशनल कबड्डी एसोसिएसन इस खेल में  मिमिक्री को प्रतिबंधित करने की एडवाइजरी जारी करता। कबड्डी या पतंगबाजी से फुर्सत मिल जाती तो एक पैसे में एक पूरा गन्ना मिल जाता था। गन्ना उसी मनोयोग से चूसा जाता था, जैसे सरमायेदार मजलूमों को चूसते हैं। 

रातों में अक्सर कव्वाली या नौटँकी का आनन्द लिया जाता था। दुर्गा पूजा के समय रात-रात भर कव्वाली का चलन था। रेत में सेंकी जाने वाली मूँगफली, पकौड़े और चाट के ठेले लगते थे। कव्वाली रात भर इसलिए चलती थी कि जिसे घर जाना है, सुबह ही जाए ताकि ख़ामोखां किसी की नींद खराब न हो। तब के सामाजिक ताने-बाने में इस तरह की बारीक सोच देखी जा सकती थी, वह आज की तरह आत्मकेंद्रिन्त नहीं था। जानी बाबू कव्वाल वगैरह का नाम तब नहीं  था। ज्यादातर लखनऊ -कानपुर से आते थे। गर्मियों के दिनों में नौटंकी चलती थी। तब का थियेटर वही था। साज-सज्जा, सेट, गीत-संगीत, नृत्य, अभिनय देखते ही बनता था। नायकर नौटंकी के दीवाने हो गए थे पर घर मे इसकी अनुमति नहीं थी। मौका देखकर धीरे से निकल जाते और दरवाजे को बस खींचकर धर दिया जाता ताकि सुबह होने से पहले चुपके से दाखिला मिल जाए। एक बार पिता को भनक लग गई तो लौटने पर दरवाजा बंद मिला। गर्मियों के बावजूद सुबह की हवा ठंडी थी। नींद लग गई। नींद में ही थोड़ी देर बाद पिता ने कूटना चालू कर दिया था पर नौटंकी का नशा टूटा नहीं। घर के पिछवाड़े में चारदीवारी के भीतर एक आम का पेड़ था। पेड़ की उपयोगिता अब बढ़ गई थी। वह दिन में आम खाने के काम आता था और रात में दीवार फाँदने के। दीवार फाँदकर नौटंकी देखने में परम-आनंद की अनुभूति प्राप्त होती थी।

कालोनी की संस्कृति विविधता वाली थी। देश के सभी हिस्सों के लोग यहाँ बसर करते थे। एक फैक्ट्री कोलकाता में भी थी तो बहुत से बंगाली लोग स्थानांतरित होकर यहाँ आ गए थे। घर के आगे देवेंद्र बंगाली क्लब हुआ करता था, जिसे संक्षेप में डीबी क्लब कहा जाता था। पानी की आपूर्ति सीधे घरों तक नहीं थी। घर के आगे कालोनी के दोनों छोरों पर सार्वजनिक नल लगे हुए थे और इस पनघट की डगर बहुत कठिन न थी। यह महिलाओं का सामुदायिक मिलन केंद्र था। वे यहीं मिलती थीं, बतियाती थीं, हँसती थीं, शिकवे-शिकायत करती थीं और मौका पड़ने पर झगड़ भी लेती थीं। इन सारी गतिविधियों को नायकर आँखों से देखते थे, कानों से सुनते थे और सारा ऑडियो-विजुअल डाटा मस्तिष्क के एक कोने में लगे चिप में स्थानांतरित कर देते। उनकी प्रदर्शनकारी कला की शुरुआत यहीं से होती है।

घर के बगल में फोरमेन सियाराम दुबे का क्वार्टर था। उनकी पत्नी प्रेमवती विदुषी महिला थीं। उनका हास्य-बोध भी अच्छा था। और बच्चों के साथ नायकर भी उन्हें अम्मा कहकर पुकारते थे। घर में काम करने वाली महिला बहुत सपाटे व फूर्ति के साथ काम को अंजाम देती थी, इसलिए अम्मा ने उनका नाम 'हवाई जहाज' रखा हुआ था। जब वे काम पर न आएं तो कहा जाता था कि आज 'हवाजहाज' नहीं आया है। इसी 'हवाई जहाज' के एक संवाद के कारण नायकर को जिंदगी में पहली और आखिरी बार मंच से धकिया कर बाहर किया गया।

नायकर दरअसल मोहल्ले की महिलाओं का खिलौना बन गए थे। जैसे ही मौका मिलता, महिलाएँ उन्हें घेर लेतीं और किसी न किसी की नकल करने को कहा जाता। नकल करने के लिए गुड़-रोटी का प्रलोभन मिलता था और न करने पर 'मिर्चा ठूंसने' को धमकी दी जाती थी। मिमिक्री वाली यह कला अभी तक कुटीर उद्योग की तरह चल रही थी, पर ख्याति धीरे-धीरे अपने मुहल्ले से होते हुए बाहर तक फैलने लगी थी। इन्हीं दिनों प्राइमरी स्कूल में सोशल गैदरिंग का आयोजन था। उन दिनों इस तरह के आयोजनों में भी भारी भीड़ जुटा करती थी। प्राइमरी स्कूल के मास्टर छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय नहीं थे। बच्चे उन्हें लड़ैया गुरुजी के नाम से पुकारते थे। इन्हीं लड़ैया गुरुजी ने बड़े सम्मान के साथ, भारी भीड़ के समक्ष किसना को खड़ा कर दिया। किसना ने वही सब किया जो अब तक घर में करता आया था। कुटीर उद्योग का माल सार्वजनिक हो गया। लोगों को मजा आने लगा। फिर किसना ने 'हवाई जहाज' की नकल की पर न जाने क्यों, जिस तरह हिंदी सिनेमा का सेंसर बोर्ड कभी-कभी बिला वजह तुनक जाता है, लड़ैया गुरुजी भी तैश में आ गए और किसना को लगभग धकेलते हुए मंच से बाहर कर दिया। 

अगले दिन घर के आगे मिलिट्री की एक गाड़ी खड़ी हो गई। कोई मेजर साहब थे, जो किसना को पूछ रहे थे। किसना ने डर के मारे घर के पिछवाड़े से दौड़ लगा दी और भागकर एक दोस्त के घर में शरण ली। मेजर साहब ने घर वालों से कहा कि कल किसना ने बहुत बढ़िया शो किया था। हम चाहते हैं कि आज शाम वो हमारे खमरिया वाले बंगाली क्लब में कार्यक्रम करे। खबर किसना तक पहुँची कि बात वैसी नहीं है, वो प्रोग्राम के लिए ढूँढ रहे हैं!

उस दिन सरस्वती पूजा थी। बंगाली क्लब में बड़ा आयोजन था। एक नाटक भी होना था। किसना ने अब तक जो किया था वो घरेलू चुहल थी। कोई नियोजित कार्यक्रम नहीं था। कोई स्क्रिप्ट नहीं थी। आनन-फानन में एक तख्त का मंच जैसा तैयार किया गया। इसके आगे एक लाठी में एक गिलास को रस्सी से बांध दिया गया ताकि माईक वाली अनुभूति मिल सके। 'पृथ्वीराज कपूर के सिगरेट की चोरी' वाला प्रहसन रचा गया, जिसमें एक-एक कर सारे फ़िल्म अभिनेता और अभिनेत्रियां आकर अपनी-अपनी आवाज में अपनी सफाई पेश करते हैं। बाकी कुटीर उद्योग वाला तैयार माल तो था ही। शाम को मिलिट्री का 'निशान' ट्रक घर के आगे खड़ा हो गया। किसना ट्रक में सवार हुआ और बंगाली क्लब के स्टेज में पर्दों के आगे खड़ा हो गया। पर्दे के पीछे नाटक की तैयारी चल रही थी। पीछे से कोई कहता है, "किसना जल्दी खत्म करना! इसके बाद हमारा नाटक है।" 

मगर तब तक लम्बी दौड़ का धावक हवाओं से बातें करने लगा था। अंदर कुछ ज्वालामुखी-सा था जो फट गया था। लावा बाहर निकल रहा था। इसमें कुछ बेशकीमती खनिज पदार्थ भी थे। भीड़ किसी सम्मोहन में थी और वह बढ़ती जा रही थी। लोग आते हुए तो दिखाई पड़ रहे थे, कोई उल्टे पाँव लौट नहीं रहा था। पीछे थोड़ा-सा पर्दा हटा और एक आवाज सुनाई पड़ी, "नायकर साहब! आप अपना प्रोग्राम कंटीन्यू कीजिए। नाटक हम बाद में कर लेंगे।"

किसना एक झटके में 'नायकर साहब' में तब्दील हो चुका था।

 

लेखक दिनेश चौधरी का दूरभाष नंबर है- 9407944700

 

 

 

 

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