देश

जलवायु परिवर्तन के नाम पर आदिवासियों के भोजन पर सीधा हमला

जलवायु परिवर्तन के नाम पर आदिवासियों के भोजन पर सीधा हमला

रायपुर. भोजन के अधिकार अभियान सम्मेलन में छत्तीसगढ़ वनाधिकार मंच की ओर से आयोजित परिचर्चा में भोजन सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और वन अधिकार विषय पर चर्चा की गई. इस परिचर्चा में  बैगा, पहाड़ी कोरवा महापंचायत व अन्य आदिवासी समाज ने अपनी हिस्सेदारी दर्ज की.

वनाधिकार मंच के संयोजक विजेंद्र अजनबी ने बताया कि सम्मेलन में विभिन्न प्रदेशों में भोजन के अधिकार अभियान से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता चर्चा करने के लिए राजधानी रायपुर में एकत्रित हुए हैं. इस सम्मेलन में एक सत्र जंगल से भोजन और पोषण की सुरक्षा तथा वन अधिकार पर आसन्न चुनातियों पर केन्द्रित रखा गया था. इस सत्र में मध्यप्रदेश के नरेश बिश्वास ने बहुत रोचक अंदाज में जानकारी दी. उन्होंने बताया कि जंगल से वननिर्भर समुदाय 163 किस्म के खाद्य पदार्थ हासिल करते हैं. इनमे से बहुत से खाद्य पदार्थों में पाए जाने वाले पोषक तत्व, बाज़ार में बिकने वाले या खेतों में उगने वाले अन्न के मुकाबले कहीं ज्यादा होते है. जंगल में खाना, सिर्फ कंद-मूल में ही नहीं, बल्कि, फूल, कली, बीज, गोंद, बेलें और कवकों के रूप में भी होते हैं. सिर्फ आदिवासी ही है, जो इनका महत्त्व समझ सकते हैं, और इन्हें बचाकर ही जंगल को बचाया जा सकता है. 

महाराष्ट्र के शोषित जनांदोलन से जुड़ी मुक्ता श्रीवास्तव ने बताया कि वर्ष 1927 में बने भारतीय वन कानून में प्रस्तावित संशोधन वनों पर अपने भोजन और आजीविका पर निर्भर समुदाय के लिए बेहद खतरनाक है. एक तरफ वन अधिकार कानून होने के बावजूद उक्त संशोधन, आदिवासियों को जंगल में प्रवेश करने से रोकेगा और उन पर अत्याचार बढ़ जाएंगे. उन्होंने कहा कि वन विभाग के पास आधुनिक हथियार रखने और किसी के शक के आधार पर बंदी बनाने की गैर-जरुरी शक्तियां आ जाएगी.    

झारखण्ड वनाधिकार मंच से  संबंद्ध मिथिलेश कुमार ने बताया कि झारखण्ड में भी वनाधिकार कानून का बदहाल है. लोगों को जंगल पर बेहद कम अधिकार मिले हैं, और उनके ज्यादातर दावे लटकाए रखे गए हैं. उन्होंने पलामू जिले का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां रेल परियोजना के लिए वनभूमि का बगैर ग्रामसभा की सहमति के आसानी से डाइवर्ट कर दिया गया पर वही, वनाधिकार के लंबित दावों को नहीं निपटाया गया. ऐसी परिस्थिति में आदिवासी समाज अपनी भोजन की जरूरतों के लिए जंगल से विमुख होने के लिए मजबूर हो गया है. 

विजेंद्र ने बताया कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की कार्ययोजना में जंगलों को निजी भागीदारी से सिर्फ लकड़ी उत्पादन करने वाली ईकाई के रूप में बदले जाने का खतरा बढ़ गया है, जिससे वहां की जैव-विविधता संकट में पड़ जाएगी और वन-निर्भर समाज पर बेदखली की तलवार लटकने लगेगी, जिसके परिणामस्वरूप, उनके भोजन की स्वतंत्रता और स्वायत्ता ख़त्म हो जाएगी. सिर्फ प्राकृतिक जंगलों से और सामुदायिक प्रबंधन से ही जंगलों से खाद्य सुरक्षा मिल सकती है. 

परिचर्चा में गढ़चिरोली, महाराष्ट्र में ग्रामसभाओं के वन-प्रबंधन के प्रयोग से जुड़े केशव गुरनुले, खोज-गरियाबंद के बेनीपुरी, कवर्धा से इतवारी बैगा ने भी अपने विचार प्रकट किए.

 

ये भी पढ़ें...