साहित्य

रमेश शर्मा की 17 कविताएं

रमेश शर्मा की 17 कविताएं

छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में जन्मे और पेशे से व्याख्याता रमेश शर्मा की कविताएं मौजूदा खौफनाक समय से मुठभेड़ करती है. वे अपनी कविताओं को हथियार बनाकर लड़ते हैं और अपने पाठकों को भी लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं. उनकी हर कविता विद्रूप समय में जरूरी हस्तक्षेप करती है. अपना मोर्चा के पाठकों के लिए हम यहां उनकी सभी 17 कविताओं को प्रकाशित कर रहे हैं.

 

 

1.यह चुप्पियों को ही हथियार बना लेने का समय है 

 

चुपचाप रहना होगा 

चुपचाप सहना होगा 

चुपचाप चलना होगा 

चुपचाप रूकना होगा 

चुपचाप सोना होगा 

चुपचाप जागना होगा 

चुपचाप रोना होगा 

चुपचाप हँसना होगा 

चुपचाप जीना होगा 

चुपचाप मरना होगा 

चुपचाप बोलना होगा 

चुपचाप सुनना होगा 

 

मुखर होना मना है इस समय में !

 

यह नापसंद है उन्हें 

जिन्होंने चुप्पियाँ परोसीं  !

 

यह चुप्पियों को ही चुपचाप हथियार बना लेने का समय है 

समय है चुप्पियों को उनके ही बिरूद्ध चुपचाप इस्तेमाल करने का !

 

 

तो इस हथियार का इस्तेमाल करो 

लड़ो चुपचाप उनके विरूद्ध 

जिन्होंने हर जगह तुम्हारे ऊपर पहरेदार बिठा दिए हैं !

 

2. बिना आंखों वाला समय 

 

कई कई लहुलूहान पैरों के जोड़े हैं 

जो चलते हुए दीख रहे 

लेकिन उनके नीचे की सड़क गायब है दृश्य से !

स्कूल खड़े हैं खंडहरों की शक्ल में 

पढने वालों के साथ 

पर नहीं हैं पढ़ाने वाले 

उनके आने की प्रतीक्षा में 

धूल की कई कई परतें जमा हो चुकीं उनके चेहरों पर !

 

बूत की तरह वर्षों से खड़े हैं बिजली के खम्भे 

जिन्हें बिजली के आने का इंतजार है बस !

 

रोशनी की प्रतीक्षा में 

गाँव के गाँव अस्त हो चुके 

मानों अंधेरों में डूबे हुए हों सदियों से !

 

भूख है जो किसी गरीब के गले में अटकी हुई 

और भात का पता पूछ रही इनदिनों !

 

घड़ियां तो चल रहीं 

पर समय की साँसों में कहीं आवाज नहीं 

मानों थम जाएंगीं चलते चलते कभी भी !

 

दृश्य अदृश्य के बीच 

सत्ता की 

कई कई आंखें हैं 

जिनसे सब कुछ ठीक ठीक देख लेने के 

दावों का शोर उठ रहा हर घड़ी !

 

झूठ और सच 

इन दावों के बीच भेद खो रहे हर घड़ी 

नहीं पकड़ पा रहीं हमारी आंखें जिन्हें !

क्या हमारी आंखों की रोशनी छीन ली है किसी ने ?

क्या यह समय बिना आंखों वाला समय हो गया है ?

जूझ रहा हर आदमी इन सवालों से 

पढ़ रहा इन झूठी कथाओं को हर घड़ी 

जो इस बिना आंखों वाले समय के 

गर्भ से जन्म लेकर 

हमें अंधा कर देने की जुगत में लगी हुई हैं हर घड़ी ! 

 

3. क्या तुम मुझे वहां तक छोड़कर आओगे

 

क्या तुम छोड़कर आओगे मुझे उस जगह 

जहाँ मैं पहुँचना चाहता हूँ पर पहुंच नहीं पा रहा

जहां मैं रह नहीं पा रहा पर रहना चाहता हूँ 

एक चाह है भीतर जो एक उम्मीद की तरह आती है रोज

मैं छूता हूँ उसे   

इस छुवन में एक दुनियाँ आकार लेती है 

उस दुनियाँ में फिर कई कई उम्मीदें जन्मती हैं !

 

उम्मीद भी तो एक जिंदा शब्द है 

जो हमें जिंदा रखता है 

तुमने ही कहा था कभी 

और रूके हुए कदमों को कहीं से गति मिल गई थी 

रास्ते यूं ही तो मिला करते हैं 

जब कोई अंगुली पकड़ कुछ दूर छोड़ आता है !

 

हम हर वक्त क्यों चाहते हैं साथ 

हमें खुद भी तो आना चाहिए अकेले चलना

तुमने यूं ही तो नहीं कहा होगा ऐसा

जैसा कि किसी दिन कहा था तुमने  

तुम्हारे इस कथन में 

हमारे समय की त्रासदियों की गूँज है

यह साथ देने का समय तो रहा ही नहीं  

साथ पाने का समय भी नहीं रहा 

मानो हम गुम हो रहे हर घड़ी खुद से 

मानो किसी ने हमारा अपहरण कर लिया है !

 

जीवन की धरती पर 

खुद को खोजना है हमें ही 

जीना है अगर 

 

पाना है उनका साथ 

खोजना है उन्हें जो दूर दूर जा चुके !

 

यह खोज भी कितना कठिन है 

झरोखों के उस पार से आती हुईं किरणें 

बिना थके उम्मीद जगाने ही तो आती हैं उनमें 

जो दिनोंदिन अकेले हो रहे 

हो रहे झूठ फरेब घृणा का शिकार 

यह खोज दरअसल अकेले होते मनुष्य को बचा लेने की खोज है 

इस खोज में हमारे बचे रहने की उम्मीदें शेष हैं 

मैं उन उम्मीदों के बीच बचा रहना चाहता हूँ !

क्या इस खोज में तुम साथ दोगे ?

क्या तुम मुझे वहां तक छोड़ कर आओगे ? 

 

4. सबसे कठिन दिनों में 

 

मैं उस समय में 

तुमसे बातें कर रहा था 

जब कह देना आसान था 

कि ये तुम ठीक नहीं कह रहे 

ये तुम ठीक नहीं कर रहे 

आसान था तुम्हारे लिए 

तुम्हारी अपनी गलतियों को मान लेना 

सुधार लेना अपने को अपने समय के भीतर ही  !

 

ये अब हम कहां आ गए 

समय के इस बियाबान में 

कि घड़ी की सुईयों पर भी पहरे हैं 

और सबकी जुबान में ताले लटक रहे 

कि वह आसान समय हमारे हाथों से छिटक गया जैसे 

कि मैं कह सकूँ कि मुझे तुमसे प्यार है 

और यह सुनकर हौले से तुम मुस्करा सको !

अब तो घुसपैठिये आ गए आततायी बन 

इस समय में 

और घृणा की बंदूकें चलने लगीं !

सबसे कठिन समय में 

उन आसान दिनों की तलाश में 

मैं भटक रहा हूँ 

सिर्फ इसलिए

कि पुनः पुनः कह सकूँ 

मुझे तुमसे प्यार है !

मुझे तो बस हर घड़ी 

तुम्हारे उस हौले से मुस्करा देने वाले 

समय भर का इंतजार है !

 

5. वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम 

 

अपने हिस्से की धरती जिसे वे कहते आ रहे थे 

उस पर ही खड़े होकर  

वे खोज रहे थे उसे !

वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम !

जिसे होना था उनके हिस्से का प्रेम 

वह भी तो नजर आता नहीं दीख रहा था 

दूर दूर तक कहीं !

इस धरती पर गुमी हुई वस्तुओं की 

एक लंबी फेहरिस्त थी उनके पास 

उनके हिस्से का उजाला भी गुम हो चुका था कहीं 

और अंधेरों से ही अब 

गुजारा कर रहे थे वे !

उनके हिस्से की धरती भी उनकी नहीं रह गई थी 

वह भी गुम हो चुकी थी कहीं !

वे खोज रहे थे 

उस धरती को 

जो कभी उनकी थी 

उस उजाले को 

जो कभी उनका था 

उस प्रेम को 

जिसमें डूबकर वे जीते आ रहे थे अब तक 

उनके हिस्से में 

कुछ भी तो नहीं था अपना कहने को 

जैसे सबकुछ गुम हो चुका था इसी धरती पर कहीं 

जैसे सबकुछ अपहृत कर लिया था किसी ने !

 

6. ऐसा लगना ही गांधी का हमारे आसपास होना है

 

मुझे ऐसा क्यों लगता है

कि कुछ लोग होंगे जो 

लालच को किसी बीहड़ में तड़प कर मरने को 

छोड़ आए होंगें !

कुछ लोग होंगे 

जिनके जीवन की गाड़ी इस समय की धरती पर

अल्प जरूरतों और कम संसाधनों के बीच 

आज भी सरपट दौड़ रही होगी !

कुछ लोग होंगे 

जिनकी आंखों में हर आदमी के लहु का रंग 

दिखता होगा एक जैसा ही !

कुछ लोग होंगे 

जिनके लिए हर दिल के दरवाजे प्रेम से खुलते होंगे 

और बेरोकटोक वे कर लेते होंगे अपनी रोज की यात्राएं !

कुछ लोग होंगे 

जो खुद से ज्यादा जीते होंगे दूसरों के लिए 

और ऐसा जीना भरपूर जीने की तरह लगता होगा उन्हें !

चैन की नींद सोते या जागते न जाने क्यों 

अक्सर ऐसा लगता है मुझे

कि ऐसे कुछ लोगों की उपस्थिति ही 

हमारे समय की घड़ियों को गतिमान किए हुए है !

किसी सुबह जब आप जागते हैं 

और किसी हिंसा की खबर के बिना 

आपका दिन बीत जाता है शुभ शुभ

तो क्या आपको भी ऐसा नही लगता 

कि दुनियां कितनी खूबसूरत है ?

ऐसा लगने को हर दिन हर जगह तलाशिए 

ऐसा लगना ही तो शायद 

गांधी का हमारे आस पास होना है ! 

 

7.यह रोना सिर्फ एक कवि का रोना नहीं था 

(कवि इब्बार रब्बी को याद करते हुए)

 

किसी कवि का रोना कौन समझ पाया 

कि तुम्हारा रोना कोई समझ सके !

यह रोना किसी मनुष्य का रोना तो नहीं ही था 

यह रोना वह रोना भी नहीं था 

जहां एक चेहरा होता है 

दो आंखें होती हैं और झर उठते हैं आंसू !

यह रोना जैसे समूचे शब्दों का रो उठना था एक साथ

जैसे कोई कविता भीग उठी हो आंसूओं से 

यह रोना समूचे समय का रो उठना था 

जैसे घड़ी की सुईयां भींग कर धीरे धीरे चल रहीं हों 

और इस सुस्त रफ्तार वाले समय की पीड़ा में 

कवि ने आंसुओं से रच दी हो कोई कविता !

यह रोना सिर्फ एक कवि का रोना नहीं था 

यह रोना एक चिड़िया का भी रोना था 

जिसके घोसले नष्ट कर दिए गए थे

यह रोना एक नदी का भी रोना था 

जिसका जल एकाएक खारा कर दिया गया था 

यह रोना एक दुधमुंहे बच्चे का भी रोना था 

जिसकी मां अचानक कहीं गायब कर दी गई थी 

यह रोना सचमुच कई कई चीजों का एक साथ रोना था 

और इस रूदन में 

हमारे समय की त्रासदियों को 

एक कवि रोते हुए सुन रहा था !

 

8.तुम्हारा इस तरह उठ खड़ा होना 

(बी. एच. यू. में आंदोलनरत आकांक्षा के लिए) 

 

तुमने ठीक जगह मारा था मुक्का 

और ठीक जगह लगी थी चोंट

एक छटपटाहट पसर गई थी 

इस तरह तुम्हारे उठ खड़े होने से 

तुमसे ही सीखेंगे लोग

कि जीतने की पहली सीढ़ी है उठ खड़ा होना

जिन्हें मालूम ही नहीं 

कि जीतने के लिए 

उठकर खड़ा भी होना होता है तुम्हारी तरह 

उन मुर्दों में भी 

जान फूकेंगी तुम्हारी ये निराली हरकतें

जिसे कभी दिल से स्वीकारा नहीं किसी ने 

और मुर्दों सा जिया जीवन

तुम्हारी हिम्मत के बीज 

धरती पर रोपित होंगे एक दिन 

और तुम्हारी तरह हजार आकांक्षाएं लहलहा उठेंगी यहां

अलग अलग रूप लिए

तुम इसी तरह आते रहना 

इस धरती को हरा भरा करने

वरना यह धरती 

कितनी बेजान , मुर्दा और बंजर ही लगती रहेगी 

तुम्हारे आए बिना ।

 

9.चिट्ठियां

 

कुछ दिनों बाद इस शहर में लौटना हुआ 

कुछ दिनों बाद फिर से मिलना हुआ इस शहर से 

बहुत कुछ हुआ 

कुछ दिनों बाद इस शहर में 

बारिश भी हुई 

बारिश में भीगने से 

बचने की कोशिशें भी हुईं

बारिश नहीं 

यह इस शहर का प्रेम था 

और उससे बचने की कोशिश में 

प्रेम छूटता रहा हथेलियों से ।

कई बार ऐसी ही नासमझी में छूट जाती हैं चीजें 

गुजर जाती है उम्र यूं ही 

और प्रेम है कि उम्र की गली से कब गुजर जाता

कुछ पता ही नहीं चलता 

नहीं चलता पता 

कि हमारे जीवन के पते पर आयी हुई चिट्ठियां

कब लौट जाती हैं हमसे बिना मिले ही 

फिर उसे ढूंढते हुए 

इस शहर से उस शहर 

यह भटकाव फिर कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेता! 

 

10.पुराना केलेंडर 

 

पुराने केलेंडर की 

पुरानी तारीखों में 

कई बार आंखें ठहर जाती हैं इन दिनों

ठहरा हुआ न होकर भी 

ठहरा हुआ लगता है वह समय

ठहरी हुईं न होकर भी 

पुरानी तारीख की पुरानी घटनाएं 

ठहरी हुई लगती हैं उनमें 

तैर जाता है आंखों में एक शुकून 

उन्हें याद कर जैसे !

अच्छे और बुरे दिनों से परे

कितना ठीक था सबकुछ 

कि प्रेम बचा था दिलों में 

और लहु की बून्दों को 

यूं ही जाया होते नहीं देखा आंखों ने कभी !

हर चीज व्यापार नहीं था उनमें 

कि आमद की गुंजाइशें 

इस कदर ढूंढे जाने की मारामारी न थी 

व्यापार को लोगों के बीच बिछने से 

हमेशा रोके रहा वह समय !

पुराने केलेंडर की पुरानी तारीखों को 

नए केलेंडर की नईं तारीखें 

धीरे धीरे निगल गईं जैसे 

कि कुछ भी नहीं बचा इन आँखों के लिए 

जिसे देख थोड़ा शुकून मिले

जैसे नई तारीखों ने छीन ली मुस्कान सबके चेहरों से 

और इस समय ने उन्हें हिंसक और क्रूर बना दिया !

 

11.कला 

 

जुल्म सहना भी कला है 

कला है जुल्म करना भी 

जुल्म सहना सहने का आभास न दे 

जुल्म करना न दे करने का आभास 

तो ऐसी कलाएं अमर हो जाती हैं 

पाती हैं ऊंचाईयां 

समय गौरवान्वित होता है ऐसी कलाओं से !

अमर होना है गर हमें 

तो मैं जुल्म करूं और तुम सहते जाओ 

फिर कौन रोकेगा हमें अमर होने से 

यह कला एक रोचक खेल बन जाएगी 

सदियाँ बीत जाएंगी इसी खेल में 

मैं जुल्म करता रहूंगा 

और तुम जुल्म सहने का मजा 

लेते रहोगे इसी तरह चुपचाप 

जैसे कि इन दिनों ले रहो हो 

और उफ्फ..भी नहीं कर रहे !

 

12.जब बचने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं 

 

तुमने पहचान ली हैं हमारी कमजोरियां 

कि भूल जाना हमारी रगों में है 

गलतियां कितनी भी हो जाएं तुमसे !

 

हमारी कमजोरियों से उपज  

बच निकलने की उम्मीदें 

जब से मिली हैं सौगात में तुम्हें 

गलतियों को अपनी आदत बना ली है तुमने 

और हम सचमुच भूलने लगे हैं तुम्हारी गलतियां !

दोष किसका है ?

कौन किसको सजा देगा ?

कौन किसको माफ करेगा ?

इन सवालों के जवाब कभी ढूंढे ही नहीं गए !

किसी दिन ढूंढे गए इनके जवाब 

तो संभव है भूलने की बीमारियां भी पहचानी जाएंगी 

और संभव होगा उस दिन उनका इलाज !

पहचान ही किसी बीमारी के इलाज की शुरूवात है 

चाहो तो तुम भी पहचान लो अपनी बीमारियां 

ये जो बार बार गलती कर बच निकलने की बीमारी है 

नासूर बन जाती है उस वक्त 

नासूर बन जाता है समय 

जब बचने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं !  

 

13.एक बेसुरी आवाज से रोज सामना होता है 

 

वह बिगाड़ देता है सबकुछ और कहता है सब ठीक-ठाक है 

उसकी आवाज उस वक्त कितनी बेसुरी हो जाती है

वह गाने लगता है भीड़ में और कहता है ताली बजाओ 

लोग ताली बजाते हैं 

और वह मान लेता है कि वह सबसे अच्छा गवैय्या है

सबसे अच्छा गा लेने का गुमान हो जाए किसी बेसुरे को 

फिर भी दुनियां सुनती रहे उसे

फिर तो किसी बेसुरे को 

अच्छा गायक मान लेने की मजबूरियां जन्म ले चुकी होती हैं लोगों में !

 

यह मजबूरियों के जन्म लेने का मौसम है 

जो जन्मने लगा है हर घड़ी भीतर हमारे 

घड़ियों के टिक टिक की आवाजों के साथ 

एक बेसुरी आवाज से रोज सामना होने लगा जैसे !

 

यह कैसा समय है जो सभ्यता के किसी हिस्से से मेल नहीं खाता 

जैसे किसी नई सभ्यता के उदय का समय है यह 

इस समय में गा रहा है वह अपनी बेसुरी आवाज में हर घड़ी 

और हमें मानकर चलना है कि हम तानसेन को सुन रहे हैं !

 

14 . बचाने आ रहे हैं हत्यारे ! 

 

घटनाएं कुछ यूं आभास देने लगीं हैं

कि अनपढ़ पढ़ाने आ रहे हैं 

और बचाने आ रहे हैं हत्यारे !

पढ़ाने और बचाने जैसे 

शब्दों का झूला झुलते हुए

आप खुश होने लगे हैं 

उछल पड़े हैं 

मानो खुश होना आपकी नियति बन चुकी 

अपनी इन हरकतों से 

हमारे समय के सबसे सौभाग्यशाली लोगों में 

आपकी गिनती होने लगी है !

 

आपको खुश होता देख 

मिटने लगे हैं भेद 

अनपढ़ पढ़े लिखे लगने लगे हैं 

और रक्षक लगने लगे हैं हत्यारे !

यह समय आभासी घटनाओं का समय है

आभासी समय की आभासी घटनाएं 

आपको इस कदर भाने लगी हैं 

कि आपकी आखों से 

हर सच्चाई अब कितना दूर जाने लगी है

आप हैं कि खुश हैं 

और इतने खुश हैं कि नाच भी रहे हैं और गा भी रहे हैं !

 

15 . ऐसे ही पागलों से अब तक बची हुई है यह धरती 

 

हम रोएंगे 

किसी दुःख की घड़ी में 

और पेड़ शांत हो जाएंगे !

किसी विपत्ति में 

देखेंगे इधर-उधर 

और नदियाँ बहना छोड़ 

रुक कर देखेंगी हमें !

वह इसी तरह सोचता है 

देखता है इसी तरह दुनियां को 

किसी चमत्कार की उम्मीद में 

और पागल करार दे दिया जाता है !

कोई रोए 

कोई देखे 

तो हो जाना पेड़ 

कितना मुश्किल है 

कितना मुश्किल है 

बन जाना नदी !

फिर भी देखना और सोचना इस तरह 

अपने पागलपन में 

एक उम्मीद का टिमटिमाना है धरती पर 

धकेलना है उस भय को इस धरती से 

जिसे आधी रात शराबी

वहशियों ने चस्पा कर दिया लड़कियों की पीठ पर !

जिन वहशियों से पटती जा रही यह धरती 

दुआ करो उन्हें खदेड़ उनकी जगह ले लें ये पागल सभी

दरअसल जिन्हें पागल कहा जा रहा 

वे पागल नहीं 

सच्चे मनुष्य हैं 

और सच्चे मनुष्य को पागल करार देना वहशियों की पुरानी आदत है !

 

 

16. बिसरा देने लायक पात्र ही बन सके अगर 

 

किसी दिन किसी कहानी में 

बिसरा देने लायक पात्र ही बन सके अगर 

तो क्या होगा 

अच्छी घटना नहीं तो बुरी घटना भी नहीं कहा जाएगा इसे 

कहीं जगह मिलेगी कम से कम 

और थोड़े समय के लिए पढ़ा जाएगा हमें !

अपनी अपनी कहानियों में 

अपने अपने दुःख-सुख में सने 

पात्रों के संग 

रह लेने को भी 

कम नहीं आंका गया कभी !

इतिहास की इन कहानियों को पढ़ते हुए 

बूझते समझते इन्हें 

अजीब अनुभवों से गुजरना हुआ 

यहाँ पात्र भी बड़े अजीब लगे 

उनकी बातें लगीं उनसे भी अजीब 

कि हम होते हैं जब जब तो बिसराए जाते हैं उस घड़ी उनसे 

और जब जब नहीं होते वहां 

तो सबसे अधिक याद आते हैं उन्हें !

 

17 .दृश्य 

 

झरोखे के उस पार की दुनियां को 

बंद कमरे में बैठ

कभी उस तरह उसने देखा नहीं था 

जैसा कि उसे देखा जाना चाहिए था !

यूं भी एक नईं दुनियां को देखने के लिए 

वह नजर मिली नहीं थी कहीं से उसे  

पर उसे इस बारिश ने वह भी दे दिया था 

और वह ठहरकर देख रहा था झरोखे के उस पार की दुनियां को !

 

इस देखने में विस्मय था 

शोक था 

दुःख और सुख दोनों थे साथ !

 

रेनकोट को शरीर में लपेटे 

आधे भीग चुके बच्चों का काफिला 

स्कूल के लिए जा रहा था !

भरी बारिश में नगर निगम की जेपीसी 

सड़क चैडीकरण के लिए गरीबों की झोपड़ियां गिराने आयी थी !

 

खेतों में काम रूका नहीं था 

भींगते हुए धान का रोपा लगाने में आज भी मगन थे मजदूर !

 

दूध वाले ने आज भी नागा नहीं किया था 

अभी-अभी भीगा हुआ अखबार 

आज भी डाल गया था हाकर 

उसकी आँखों के सामने !

रूकावटें बहुत थीं 

पर कुछ भी तो रूका नहीं था इस बारिश में 

जीवन गतिमान था जैसा कि उसे होना चाहिए था 

बस एक सुविधा भोगी आदमी 

भींगने से डरा हुआ रुक गया था बंद कमरे में 

और झरोखे के उस पार की दुनियां 

उतरती चली जा रही थी उसकी आँखों में

वह देख रहा था चीजों को ठहरकर पहली बार 

और बैचेनी से भर उठा था  !

 

 

 

परिचय 

नाम: रमेश शर्मा 

जन्म: छः जून छियासठ , रायगढ़ छत्तीसगढ़ में .

शिक्षा: एम.एस.सी. , बी.एड. 

सम्प्रति: व्याख्याता 

सृजन: दो कहानी संग्रह “मुक्ति” 2013 में तथा “एक मरती हुई आवाज” 2018 में एवं एक कविता संग्रह “वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम” 2018 में प्रकाशित .

कहानियां: समकालीन भारतीय साहित्य , परिकथा, गंभीर समाचार, समावर्तन, ककसाड़, कथा समवेत, हंस, पाठ, परस्पर, अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, माटी, हिमप्रस्थ  इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित . 

कवितायेँ: हंस ,इन्द्रप्रस्थ भारती, कथन, परिकथा, सूत्र, सर्वनाम, समावर्तन, अक्षर पर्व, माध्यम, मरूतृण, लोकायत, आकंठ, वर्तमान सन्दर्भ इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित   

संपर्क : 92 श्रीकुंज , शालिनी कान्वेंट स्कूल रोड़ , बोईरदादर , रायगढ़ (छत्तीसगढ़), मोबाइल 9752685148, 9644946902 

 

 

 

 

 

ये भी पढ़ें...