साहित्य

जज ने मुझसे यह बयान लिया है  धोती-कुर्ता क्यों पहन लिया है...

जज ने मुझसे यह बयान लिया है धोती-कुर्ता क्यों पहन लिया है...

जज ने मुझसे यह बयान लिया है 
धोती-कुर्ता क्यों पहन लिया है।

यदि कथाकार और उपन्यासकार मित्र मनोज रुपड़ा ने सुरेन्द्र कुमार के बारे में बताया नहीं होता तो शायद जिंदगी की तपिश और उबड़-खाबड़ रास्तों से हर रोज़ गुजरने वाले एक उम्दा ग़ज़लकार से मेरा परिचय नहीं हो पाता। सुरेन्द्र कुमार उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक छोटे से गांव अहमदपुर में रहते हैं। बचपन में ही पोलियो की वजह दोनों पैर में जान गंवा बैठे सुरेन्द्र कुमार महज प्रायमरी ( पांचवीं ) पास है और अपना जीवन-यापन करने के लिए लोगों के कपड़े सिलते हैं। ऐसे समय जबकि बाजार में पसरे फैशन और अत्याधुनिक मशीनों से तैयार किए जा रहे रेडीमेड कपड़ो ने दर्जियों के सामने भी रोजी-रोटी का बड़ा संघर्ष खड़ा कर दिया है तब यह यह सोचा जा सकता है कि सुरेन्द्र कुमार को अपने जीवन की गाड़ी चलाने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता होगा? यह सोचकर ही रुह कांप जाती एक इंसान व्हील चेयर पर है और उसके पास वह पैर भी नहीं है कि वह पेट भरने के लिए सिलाई मशीन के पहियों को तेजी से घूमा सकें, लेकिन सुरेन्द्र कुमार पैरों का काम अपने हाथों से लेते हैं। वे हर रोज तीन- चार जोड़ी कपड़ों की सिलाई कर लेते हैं। सुरेन्द्र कुमार अपना काम दिल से करते हैं इसलिए यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि वे कपड़े नहीं पेंटिंग बनाते हैं।

मैं यहां उनके बारे में यहां इसलिए लिख रहा क्योंकि उनकी लिखी गजलों की एक किताब- खिड़की पर गुलाब रखता हूं... मेरे हाथ में है। इस किताब को नई दिल्ली के अयन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। किताब में कुल 94 ग़ज़लें हैं और सभी एक से बढ़कर एक। इन ग़ज़लों को पढ़कर दुष्यंत कुमार, अदम गोडवी की याद तो आती है, लेकिन किसी भी बात को कहने का सुरेन्द्र कुमार का अपना एक अलग अंदाज है जो भीतर तक हिला देता है। उनकी ग़ज़लों का स्वर आम-आदमी की पीड़ा को व्यक्त तो करता ही है। यह स्वर हमें यह झूठ-फरेब और चालाक लोगों की दुनिया से भी दो-चार करता है।

मैं पढ़ने- लिखने वाले मित्रों से यह गुजारिश करना चाहूंगा कि वे सुरेन्द्र कुमार को अवश्य पढ़े। उन्हें खोजना न पड़े इसलिए यहां उनका मोबाइल नंबर 8865852322 भी दे रहा हूं। उनकी ग़ज़लों के चंद शेर भी यहां पेश हैं-

बरसों से बन्द पड़ा है मकान चाचा 
फसाद में किधर गया रहमान चाचा। 
खेलने का था जहां मकान चाचा 
उन्होंने बना ली वहां दुकान चाचा।

वो मुझे पहनने की कमीज समझ बैठा
दुकान में रक्खी कोई चीज समझ बैठा
आई तो थी मैं सात फेरे लेकर
वो एक दिन मुझे कनीज समझ बैठा

ऐसी कुछ पश्चिम की हवा चली
डिस्को पर नाचने लगी चंपा कली
गयी पथरा आंख मेरी मां की
इस कदर तहजीब की होली जली

जज ने मुझसे यह बयान लिया है 
धोती-कुर्ता क्यों पहन लिया है। 
इस तरक्की को पहचान लिया है 
मैंने भी शहर में मकान लिया है। 
उसने भी जवानी के मुताबिक 
रंगीन तस्वीर, खैनी- पान लिया है। 
भेद डालूंगा उस बाजार की आंख
जब हाथ में तीर-कमान लिया है।

जब बाबा हुक्का गुड़गुड़ाता था 
बेशर्म धुआं मुझ पर आता था। 
बेरोजगारी जिंदगी कोठे पर गयी
कोई आता था, कोई जाता था 
उसका चेहरा नहीं सुहाता था 
जब मैं खाली कनस्तर बजाता था।

कहने को औकात रखता हूं 
फटी जेब में हाथ रखता हूं। 
आखिर तू पढ़े या न पढ़े
सामने खुली किताब रखता हूं। 
तू घर आकर देख लेना 
मैं खिड़की पर गुलाब रखता हूं।

हमेशा उलझन मेरी, चूल्हा जलाती है
उस पर तल्ख हकीकत रोटी पकाती है। 
बेरोजगार हुई बिटिया की खातिर 
वक्त की वालिदा, सीना दिखाती है। 
जब जिंदगी की किताब पढ़ने बैठता हूं 
वक्त की हवा लालटेन बुझाती है।

दिल की छत पर इधर-उधर भागने वाला
किसी का आशिक है रात भर जागने वाला
दोनों हाथ फैलाए आज खड़ा है क्यों 
भेड़-बकरी की तरह हमें हांकने वाला।

जबसे बटन लाल- पीले हो गए 
कमीज के काज ढीले हो गए। 
जिंदगी की सुई में धागा पिरोते
मेरी आंख के कोर गीले हो गए।

खुद को हथियार होने से बचा लिया 
खुद को गुनाहगार होने से बचा लिया। 
आंगन की नजरों में गिर जाता मैं 
खुद को दीवार होने से बचा लिया।

 

मूल रूप से हरियाणा के पानीपत जिले के रहने वाले बलबीर 

 

मूल रूप से 

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