साहित्य
हरिओम राजोरिया की तीन कविता- आठ बजे, लाठी और अपरिचय
हरिओम राजोरिया
।। आठ बजे ।।
आठ बजने का मतलब क्या है
रोज ही बजते हैं आठ
अभी रात के तीन बजे है
अभी सुबह के आठ बज जाएंगे.
एक रोग के वायरस की पूर्व पीठिका को
प्रतीदिन आठ बजे याद कीजिये
ठीक से सावधानियों का पालन कीजिये
माननीय को पूरी गम्भीरता से लीजिये
आठ बजे का इंतजार कीजिये
और
धीरे से आठ को बज ही जाने दीजिये
नींद न आये तो आठ बजे से ही
नींद का इंतजार कीजिये
रात के आठ और दिन के आठ का
फर्क करना भूल जाइये
कांख में दबीं घोषणाओं का
आदर कीजिये तनिक सम्मान दीजिये
आठ बजे की स्मृति में कोई गीत लिखिए
आठ को आठ की तरह देखने का
प्रतिदिन सघन अभ्यास कीजिये
चाहो तो आप भी अपने
मन की बात मन में कर सकते हो
आठ बजे अपना पक्ष रखिये
सुबह आठ तक कल्पनाओं के पंख फैलाइये
सिर दर्द को मत रोइये
लाल-लाल आंखों को पानी से धोइये
रात आठ से सोचना शुरू कीजिये
सुबह आठ तक सो जाइये
बाकी अपना ध्यान रखिये
मेहनत-मजूरी करने वाले लाखों लोग
अभी रास्ते में हैं
उन्हें रास्ते में ही रहने दीजिये
शुक्र मनाइये ऊपर वाले का
आप रास्ते में नहीं घर में हैं
आपके पैरों में छाले नहीं
न पिंडलियों पर पुलिस की लाठियों के नील
इतने छोटे जीवन में सुबह आठ बजे
आप अपने हाथ की बनी चाय पी रहे हैं
आपके सामने न पहाड़ सा रास्ता है
न ही पहाड़ सा इंतजार
चैन से आठ को बज ही जाने दीजिये
सुबह आठ के बाद अब
रात के आठ की तो बात ही मत कीजिये ।
।। लाठी ।।
लाठियां बजाने पर भी
कविता होनी चाहिए
कहाँ-कहाँ बजी लाठी
किस-किस पर बजी
देश भर में बजी
गरीब-गुरबों पर बजती आई है
गरीब -गुरबों पर ही बजी
दौड़ा-दौड़ा कर बजी
मुर्गा बनाकर बजी
जमीन पर लिटाकर बजी
देखने वाले तक की रूह कांप गई
ऐसी जबर लहरा के बजी
पीटने वाले को सम्मान मिला
पिटने वाले को बदले में ज्ञान मिला
धीरे-धीरे हुआ इस परंपरा का विकास
देश भर में हुआ लाठी का प्रकाश
विश्वविद्यलय लाठियो पर जाकर टंग गए
रोग से लड़ रहे नागरिकों के
रास्ते में आ गईं लाठियां
निर्दोष नागरिकों की पीठ पर जब बरसीं
तो इतिहास बन गईं लाठिया
नागरिक समाज लाठियों के नीचे दबा था
लठ्ठम लट्ठ का हुआ नाच
लाठियां स्वर लहरियों पर थिरकीं
कला - संस्कृति के रास्तों पर
लगा दिया गया लाठियों का पहरा
पिटाई की प्रस्तुतियों का हुआ भव्य आयोजन
हास्य अभिनेताओं की भी विषयवस्तु बनीं लाठियां
देश भर में हुआ लाठी युग का आगाज
नागरिक होने का जमकर हुआ उपहास
चालाकी से लाठी को मिला सम्मान
सत्ता की मक्कारी का
लाठी ही थी एक बड़ा प्रमाण
साधारण घरों के लोग थे पीटने वाले
साधारण घरों के नागरिक थे पिटने वाले
लाठियों की मार ने रच दिया इतिहास
लाठियों की कलंक कथाओं पर
मीडिया हाऊसों का रहा बायकाट
सरकार में कुछ लोग बोले कि
जरूरी हो जाता है ऐसा करना
मजबूर और परेशान लोगों को पीटकर ही
व्यावस्था बनाई जाती है
जो कुछ भी हुआ देशहित में हुआ
देशहित में देश के पक्ष में
इस नए लाठी युग का स्वागत है ।
।। अपरिचय ।।
सुबह रास्ते में कुछ स्त्रियों को देखा
छोटे-छोटे झुंडों में
होने को सब अलग-अलग
पर एक ही तरह से
एक ही रास्ते पर
एक ही काम को जातीं
हाथ में पुराने कपड़ों के सिले
एक जैसे झोले कांख में दबाये
अज्ञात भय लिए सड़क पर मैं भी
और वे भय रहित
महामारी वाले वायरस से परे
जिससे भयभीत दिग-दिगन्त
दूर घर में बैठे परिजनों से आंख बचा
टेबुल पर फेंक आया चलित फोन
निकल आया सड़क पर
जो माने जैसा मानने को स्वतंत्र
भला कोई कब तक
बन्द रह सकता दीवारों से घिरा
उनके चेहरों पर नहीं उदासी का भाव
न थकन आंखों में
श्रम करने को तैयार
काम की हुक और हुलस भीतर
पहिये भले ही रुक गए हों देश में
पर चल रहे इन स्त्रियों के पाँव
किसी के पास नही जा सकता
रोककर पूछ नहीं सकता कुछ बात
मज़दूर स्त्रियों के सापेक्ष
सड़क पर खड़े बिजली के खंभे के
होने की तरह ही मेरा होना
अपने इस तरह होने से एकबारगी
कोई भी हो सकता भयभीत
कि आपका होना भी उसी तरह
जैसे अकेली एक सड़क
बबूल का एक पेड़
आराम पसंद काम करने वालों और
कठोर श्रम के बीच
अपरिचय की इतनी बड़ी दीवार
डर था मेरे भीतर
और सुबह का सूरज निकल रहा था
चलता चला जाता आगे और आगे
छोटे छोटे झुंडों में मिलते जाते
स्त्रियों के और नए समूह
अलग-अलग दबे रंगों के झोलों के साथ
एक स्त्री झोले के साथ
हाथ में टूटी चप्पल लिए चल रही
खेतों में खड़ी फसलों के स्वभाव
खेत , हँसिया , गेहूं की सूखी बाल
और इन स्त्रियों के बारे मे
कितना कम जानता
जबकि अज्ञात वायरस के बारे में
कितना कुछ जान गया हूँ
जिसका भय लिए चल रहा रास्ते पर
इस समय क्या बात कर रही होंगी
दुनिया रुक सी गई है
पर ये कहां जा रही हैं रोटी बांधकर
चैत काटने निकली इन स्त्रियों से
कितना कम परिचय एक कवि का
कैसे झिझकते हुए कविता में प्रवेश
इन स्त्रियों के बारे में
दुख-दुख जीवन का
कितना कम ज्ञान
इनके लिए कितने कम शब्द
एक कवि के शब्दकोश में
कहने को कहता रहता हूँ
कि कितना प्यार हमे वतन से
पर कितना कम जानते हम वतन को
और वतन में रहने वाले बहुसंख्यक
श्रमशील स्त्री समाज को.
संपर्क- 94251 34462