साहित्य

अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों

अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों

अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों

तो कोई अपनी मौत नहीं मरेगा
कोई किसी को मार देगा
पर मैं स्वाभाविक मौत मरने तक
जिन्दा रहना चाहता हूं.
दूसरों के मारने तक नहीं

और रोज की तरह अपना शहर
रोज घूमना चाहता हूं.


शहर घूमना मेरी आदत है
ऐसी आदत कि कर्फ्यू के दिन भी
किसी तरह दरवाजे खटखटा कर
सबके हालचाल पूछूं.


हो सकता है हत्यारे का
दरवाजा भी खटखटाऊं
अगर वह हिन्दू हुआ
तो अपनी जान
हिन्दू कह कर न बचाऊं
मुसलमान कहूं.


अगर मुसलमान हुआ
तो अपनी जान
मुसलमान कह कर न बचाऊं
हिन्दू कहूं.


हो सकता है इसके बाद भी
मेरी जान बच जाय
तो मैं दूसरों के मारने तक नहीं
अपने मरने तक जिन्दा रहूं

 

विनोद कुमार शुक्ल

 

 

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