साहित्य
बस्तर के धुर माओवाद प्रभावित इलाके बीजापुर में रहने वाली पूनम वासम की कविताओं ने मचाई धूम
कार्ल मार्क्स, संविधान, फाड़ पोलका तुम हमारा, आग जैसी कविताएं लिखने वाली दोपदी सिंघार के बारे में यह कहा गया था वह बस्तर में ही कहीं रहती है और खुद को व्यवस्था के भेड़ियों से बचाने के लिए छिपकर कविताएं लिखती है. साहित्य के बहुत से जानकारों ने दोपदी की खोजबीन की, लेकिन कोई भी यह पता नहीं लगा पाया कि वास्तव में कोई दोपदी है भी या नही ? कवियित्री पूनम वासम भी बस्तर के धुर माओवाद प्रभावित इलाके बीजापुर से आती है. पूनम के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि उन्होंने सृजन को सामने लाने के लिए अपनी पहचान नहीं छिपाई. पूनम इन दिनों आदिवासी विमर्श की कविताएं लिख रही है और खूब लिख रही है. पूनम की कविताएं बस्तर में जो कुछ मौजूद है. जो कुछ घट रहा है... उसका दस्तावेज है. यहां प्रस्तुत है उनकी पांच कविताएं-
( एक ) बारूद पानी पानी हो जाये
तुम्हारा हाथ थामे बैठी हूँ मैं नम्बी जलप्रपात की गोद में जहाँ तितलियाँ मेरे खोसे में लगे कनकमराल के फूलों से बतिया रही हैं
तुम हौले से मीठे पान का एक टुकड़ा धर देते हो, मेरी जीभ पर
और मैं अपनी मोतियों की माला को भींचकर दबोच लेती हूँ मुठ्ठी में
तुम कहते हो कानों के करीब आ कर
चाँद को हथेलियों के बीच रखकर वक्त आ गया है
मन्नत माँगने का
टोरा तेल से चिपड़े बालों के कालेपन को देखकर
तुम मुस्कुरा देते हो
मेरे खोसे से पड़िया निकालकर प्लास्टिक की कंघी खोंच
प्रेम का इज़हार करते तुम्हें देखकर
मैं दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में खोजती हूँ अपना नाम
खुशी के मारे मेरे हाथ
गुड़ाखू की डिबिया से निकाल बैठते हैं
अपने हिस्से का सुकून
पानी की तेज धार से तुम झोंकते हो अपनी हथेलियों में
मेरा चेहरा धोने लायक ठंडा पानी
ठीक उसी वक्त
तुम चाहते हो मेरे साथ मांदर की थाप पर
कुछ इस तरह नृत्य करना
कि पिछले महीने न्यूनरेन्द्र टॉकीज की बालकनी में बैठकर देखी गई शाहरुख, काजोल की फ़िल्म का कोई हिस्सा लगे
तुम्हारे चेहरे को पढ़ रही हूँ ऐसे
जैसे ब्लैकबोर्ड पर इमरोज़ की अमृता के लिए लिखी कोई कविता
तुम हँसते हो जब
पगडंडियों की जगह मैं दिखाती हूँ तुम्हें
डामर की सड़कों पर दौड़ती कुशवाहा की बसें
तुम गुनगुनाने लगते हो तब
तुम-सा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है
कि तुम जान हो मेरी तुम्हें मालूम नहीं है
और खिलखिलाहट के साथ लाल हो उठता है मेरा चेहरा शर्म से
तुम कसकर मुझे बाँहों में धर लेते हो कि
तभी बारूद की तीखी गंध से मेरा सिर चकराने लगता है
घनी झाड़ियों ऊँचे पहाड़ों को चीरती
एक गोली तुम्हारे सीने के उस हिस्से को भेदती हुई गुजर जाती है
स्वप्न की उसी टेक पर जहाँ अभी -अभी मैंने अपना सिर टिकाया था
यह स्वप्न है या दुःस्वप्न कहना मुश्किल है
मैं चीख -चीख कर तुम्हें पुकारती हूँ तुम कहीँ नहीं हो
मैं चाहती हूँ लौट आओ तुम पाकलू
किसी ऐसे मंतर जादू- टोने के साथ
कि तमाम बंदूकों का बारूद पानी-पानी हो जाये
( दो ) मछलियों का शोक गीत
झपटकर धर नही लेती कुटुमसर की गुफा में दुबक कर बैठी अंधी मछलियां अपनी जीभ पर
समुद्र के खारे पानी का स्वाद
इनकी गलफड़ों पर अब भी चिपका है वहीं
हजारों वर्ष पूर्व का इतिहास!
कि कांगेर घाटी में उड़ने वाली गिलहरी के पंखों पर
अक्सर उड़ेल आती हैं मछलियां,
संकेत की भाषा में लिखी अपनी दर्द भरी पाती की स्याही ताकि बचा रहे गिलहरी के पंखों का चितकबरापन
बोलने वाली मैना को सुबक-सुबक कर सुनाती हैं
काली पुतलियों की तलाश में भटकती अपनी नस्लों के संघर्ष की कहानी.
ताकि मैना का बोलना जारी रहे पलाश की सबसे ऊंची टहनी से
मछलियां तो अंधी हैं पर,
लम्बी पूँछ वाला झींगुर भी नही जान पाया अब तक कुटुमसर गुफा के बाहर ऐसी किसी दुनिया के होने का रहस्य
कि जहाँ बिना पूँछ वाले झींगुर चूमते हैं सुबह की उजली धूप
और टर्र टर्र करते हुये गुजर जाते है
कई कई मेढकों के झुंड
गुफा के भीतर
शुभ्र धवल चूने के पत्थरों से बने झूमरों का संगीत सुनकर
अंधी मछलियां भी कभी-कभी गाने लगती है
घोटुल में गाया जाने वाला
कोई प्रेम गीत!
गुफा के सारे पत्थर तब किसी वाद्ययंत्र में बदल उठते है
हाथी की सूंड की तरह बनी हुई
पत्थर की सरंचना भी झूम उठती है
संगीत कितना ही मनमोहक क्यों न हो
पर एक समय के बाद
उसकी प्रतिध्वनियां कर्कशता में बदल जाती है
मछलियां अंधी हैं
बहरी नही,
कि मछलियां जानती है सब कुछ
सुनती है सैलानियों के पदचाप
सुनती हैं उनकी हँसी ठिठोली
जब कोई कहता है
देखो-देखो यहां छुपकर बैठी है
ब्रम्हाण्ड की इकलौती रंग-बिरंगी मछली.
तब भले ही कुटुमसर गुफा का मान बढ़ जाता हो
अमेरिका की कार्ल्सवार गुफा से तुलना पर कुटुमसर फूला नही समाता हो
तब भी कोई नहीं जानना चाहता
इन अंधी मछलियों का इतिहास
कि
जब कभी होती है एकान्त में
तब दहाड़े मार कर रोती है मछलियां
इनकी आंखों से टपकते आँसुओं की बूंद से चमकता है गुफ़ा का बेजान सा शिवलिंग!
कोई नही जानता पीढ़ियों से घुप्प अंधेरों में छटपटाती
अंधी मछलियों का दर्द
कि
लिंगोपेन से मांग आई अपनी आजादी की मन्नतें
कई-कई अर्जियां भी लगा आई बूढ़ादेव के दरबार में
अंधी मछलियां जानती हैं
उनकी आजादी को हजारों वर्ष का सफर तय करना
अभी बाकी है
इसलिए भारी उदासी के दिनों में भी
कुटुमसर की मछलियां
सायरेलो-सायरेलो जैसे गीत गाती हैं।
( तीन ) जंगल है हमारी पहली पाठशाला
माँ नही सिखाती उंगली पकड़कर चलना
सुलाती नही गोद में उठाकर लोरिया गाकर
चार माह के बाद भी दाल का पानी सेरेलेक्स ज़रूरी नही होता हमारे लिए
जॉन्सन बेबी तेल की मालिश और साबुन के बिना भी
हड्डियां मज़बूत होती है हमारी
हम नही सीखते माँ की पाठशाला में ऐसा कुछ भी
जो साबित कर सके कि हम गुजर रहे हैं
बेहतर इंसान बनने की प्रक्रिया से!
स्कूल भी नही सिखा पाता हमे 'अ से अनार' या 'आ से आम' के अलावा कोई दूसरा सबक
ऐसा नही है कि हममें सीखने की ललक नही, या हमे सीखना अच्छा नही लगता
हम सीखते है
हमारी पाठशाला में सबकुछ प्रयोगिक रूप में
'नम्बी जलप्रपात' की सबसे ऊंची चोटी से गिरती तेज पानी की धार
हमे सिखाती है संगीत की महीन धुन,
'चापड़ा' की चटपटी चटनी सिखाती है
विज्ञान के किसी एसिड अम्ल की परिभाषा!
अबूझमाड़ के जंगल सबकुछ खोकर भी
दे देते हैं अपनी जड़ों से जुड़े रहने के 'सुख का गुण-मंत्र'
तीर के आखरी छोर पर लगे खून के कुछ धब्बे सुनाते है 'ताड़-झोंकनी' के दर्दनाक क़िस्से!
बैलाडीला के पहाड़ संभाले हुए हैं
अपनी हथेलियों पर आदिम हो चुके संस्कारों की एक पोटली
धरोहर के नाम पर पुचकारना, सहेजना, संभालना और तन कर खड़े रहना
सीखते है हम बस्तर की इन ऊँची ऊंची पहाड़ियो से!
कुटुम्बसर की गुफा में,
हजारों साल से छुपकर बैठी अंधी मछलियों को देखकर
जान पाएं हम गोंड आदिवासी अपने होने का गुण-रहस्य!
माँ जानती थी सब कुछ
किसी इतिहासवेत्ता की तरह
शायद इसलिए
माँ हो ही नही सकती थी हमारी पहली पाठशाला
जंगल के होते हुए!
जंगल समझता है हमारी जंगली भाषा माँ की तरह
( चार ) तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी
पूजा घर मे रखे ताँबे और काँसे के पात्र से
कहीं ज्यादा, यूँ कहे कि
रसोईघर के बर्तनों से भी ज्यादा प्रिय है
हमारे लिए तूम्बा
पेज, ताड़ी, महुआ और दारू
यहाँ तक की पीने का पानी रखने का सबसे सुगम व सुरक्षित पात्र के रूप में चिन्हाकित है तूम्बा!
तूम्बा का होना हमारी धरती पर जीवन का संकेत है
जब हवा नहीं थी, मिट्टी भी नहीं थी
तब पानी पर तैरते एकमात्र तूम्बे को
भीमादेव ने खींच कर थाम लिया था
अपनी हथेलियों पर
नागर चला कर पृथ्वी की उत्पत्ति का
बीज बोया भीमादेव ने
तब से पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां, घास-फूस
इस धरती पर लहलहा रहे है
वैसे ही तूम्बा हम गोंड आदिवासियों के जीवन में
हवा और पानी की तरह शामिल है
तूम्बा मात्र पात्र नही, हमारी आस्था का केंद्रबिंदु भी है
जब तक तूम्बा सही-सलामत
ताड़ी ,सल्फ़ी, छिंद-रस से लबालब भरा हुआ
हमारे कांधे पर लटक रहा है
तब तक हमारा कोई कुछ नही बिगाड़ सकता.
बचा रहेगा तूम्बा, तो कह सकते हैं
कि बची रहेगी आदि-जातियाँ
गोंड-भतरा, मुरिया
और वजूद में रहेगी जमीन और जंगल की संस्कृति
खड़ा ही रहेगा अमानवीयता के विरुद्ध बना मोर्चा
तूम्बा किसी अभेदी दीवार तरह
कि तूम्बा का खड़ा रहना प्रतीक है मानवीय सभ्यता का
दुनिया भले ही चाँद-तारों तक पहुँचने के लिए
लाख हाथ-पैर मार ले
पर हमारे लिए सबसे ज्यादा जरूरी है
तूम्बे को बचायें रखना
हर हाल में, हर परिस्थिति में
क्योकि तूम्बा का फूटना
अपशुकुन है हम सबके लिए!
( पांच ) गमपुर के लोग
हम तलाश रहे हैं
मंगल ग्रह पर पानी के बड़े-बड़े तालाब.
हम ढूँढ रहे हैं वर्षो से एलियन होने के सबूत!
दुःखी हैं हम
धरती से डायनासोर की प्रजाति के विलुप्त होने पर
हमने ब्रह्मांड के चप्पे-चप्पे पर किसी न किसी रूप में
दर्ज करवाई है अपनी उपस्थिति.
हमने साधा है विज्ञान को
कुछ इस तरह कि जरूरत के वक्त
पूरी धरती विस्थापित कर सके किसी अन्य ग्रह पर
वो भी बिना किसी खरोंच के
खुश हैं दुनिया के तमाम लोग
अंतरिक्ष से चीन की दीवार देखकर
मोहित हैं पृथ्वी के नीले रंग पर
हरे रंग का मोह अब नहीं रहा पहले जैसा!
ऐसी किसी दूरबीन का अविष्कार क्यों नहीं किया तुमने गैलेलियो.
जिसमें दिखाई देता
गमपुर भी देश के नक्शे पर!
लोग जान पाते
एक गाँव की आत्महत्या की कहानी.
अरे मैं सच कह रही हूँ गाँव भी आत्महत्या करते है भई
ऐसे ही जैसे गमपुर ने ले ली है जंगल-समाधि.
गमपुर को कोई नहीं जानता
और गमपुर भी किसी को नहीं जानता.
गमपुर के लोगो की प्यास नदिया बुझा देती हैं.
भूख जंगल का हरापन देखकर मिट जाता है .
जीने के लिए
इन्हें कुछ और चीजों की जरूरत ही नहीं
गमपुर के लोगो को सूरज के चमकने और बुझने के विषय में कोई जानकारी नहीं.
इन्हें लगता है दुनिया इतनी ही बड़ी है
जितनी उनकी जरूरतें.
कभी-कभी लगता है
इनका नामकरण कोई सोची-समझी साज़िश तो नहीं!
न राशन-कार्ड
न आधार-कार्ड
न अक्षर-ज्ञान
उनके कहकहों के बीच पता नहीं कहाँ से आकर गिर पड़ती है मूक उदासियां!
ये लोग हवा में उच्छ्वास छोड़ते हैं और देखते हैं
आकाश की ओर
इन्हें लगता है कि आकाश की आँखे हैं.
आकाश अपनी आँखों से निहारता है गमपुर को
ऐसे जैसे एक वही जानता हो गमपुर को!
इस बीच जब कोई उन्हें हिलाता है तो वह चौक पड़ते है और हँस देते हैं
चूँकि उन्हें कठिन दिनों में हँसने के सिवा कुछ नही आता
इसलिए वह बहुत बार
कुछ भी न कह कर बस हँस देते हैं.
हँसी उनकी भाषा का सबसे सुंदर शब्द है जिसके लिए बहुत बार उन्हें जरूरत नही पड़ती संसार की किसी भी भाषा की.
गमपुर के लोग अ-परिचय को पछाड़ कर
ढूंढ लेते हैं परिचय से भरा हुआ
एक ब्रह्माण्ड!
वह ढूंढने की तमाम प्रक्रियाओं में बार-बार ढूंढ लेते हैं 'खुद' को
और तब एक बहुत बड़ी दुनिया बेहद मामूली हो जाती है उनके लिए
उच्छ्वासों और हँसी की भाषा से वह बार-बार हरा देते हैं उस राजकीय अभिलेख को,
जिसमे एक भाषा थोड़ी बेहया होते हुए बहुत कठोरता से कहती है
कि उदंड हैं गमपुर के लोग!
( गमपुर बीजापुर से 65 किलोमीटर दूर एक गांव हैं. जहाँ किसी भी तरह का विकास नही हुआ है सरकार ने उस गाँव को उसकी किस्मत पर छोड़ दिया है. )
नाम - पूनम वासम
शिक्षा -एम. ए . (समाजशास्त्र,अर्थशास्त्र ) वर्तमान में बस्तर विश्वविद्यालय से शोध कार्य.
सम्प्रति - शासकीय शिक्षिका बीजापुर
निवास - बीजापुर बस्तर (छत्तीसगढ़)
मूलतः आदिवासी विमर्श की कविताओं का लेखन,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित,
युवा कवि संगम 2017 बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रतिभागी,लिटरेरिया कोलकाता 2017 के कार्यक्रम में शामिल,भारत भवन भोपाल में कविता पाठ, रज़ा फाउंडेशन के कार्यक्रम युवा 2018 में शामिल, बिटिया उत्सव ग्वालियर में कविता पाठ साहित्य अकादेमी में कविता पाठ.