अंदरखाने की बात
शिक्षामंत्री के निवास पर गोपीचंद जासूस
आदिवासी सीधे और सरल ही होते हैं सो शिक्षामंत्री भी सीधे और सरल हैं. हर कोई उनकी सरलता और सहजता का फायदा उठाना चाहता है. आप कभी शिक्षामंत्री के बंगले जाइए... वहां का नजारा देखकर आपका माथा घूम जाएगा. कोई मंत्री को इस कोने में ले जाकर बात करते मिलेगा तो कोई दूसरे कोने में. हर कोई उनसे बड़ी आसानी से कोन्टागिरी कर लेता है. इधर उनके स्टाफ के कर्मठ लोग इस बात को लेकर परेशान है कि बंगले में जो कुछ भी घटता है उसकी खबर बाहर कैसे लीक हो जाती है. काफी खोजबीन के बाद मंत्री जी के करीबी यह पता लगाने में कामयाब हो गए हैं कि आखिर वह गोपीचंद जासूस कौन है. अंदरखाने की खबर है यह कि शिक्षा विभाग को लेकर विशेष रुचि रखने वाले एक मूर्धन्य ने बंगले में अपना जासूस तैनात करवा दिया है. यहां बताना लाजिमी है कि शिक्षा विभाग में हर दूसरे-तीसरे महीने सैकड़ों तरह के काम जारी होते हैं. कभी प्रश्नपत्र की छपाई का तो कभी टेबल-कुर्सी की सप्लाई का. प्रकाशक और ठेकेदार तो काम हासिल करने के लिए दौड़-भाग करते ही है, लेकिन इधर खबर है कि आनन-फानन दर पर सामानों की सप्लाई में रुचि रखने वाले एक शख्स ने पल-पल की खबरें हासिल करने के लिए बंगले में अपने खास आदमी को फिट कर दिया है. अब जासूस अल-सुबह आ जाता है. मंत्री जी का पैर छूता है और फिर तभी घर वापस जाता है जब सभी फाइलें आलमारी में जाकर सो जाती है. कब... किस वक्त क्या होता है... कौन सी फाइल आगे बढ़ रही है. किस फाइल पर आपत्ति लगी है आदि-आदि यानी पल-पल की खबर संबंधित को पहुंचते रहती है.
पाठकों को याद होगा कि अभी चंद रोज पहले एक खबर कुछ जगह पर छपी थीं.इस खबर में कहा गया था कि मंत्री के एक अत्यंत करीबी ने सभी जिलों के डीओ को किसी खास व्यक्ति से ही सामानों की खरीदी करने का निर्देश दिया है. बाद में पता चला कि यह खबर भी जशपुर के रोशनलाल नामक एक साइकिल विक्रेता और डीओ के साथ मिलकर जासूस ने ही फैलाई थीं. रोशनलाल भाजपा के शासनकाल में भी सप्लाई का काम करता था, लेकिन इधर जब उसकी दाल गलनी बंद हो गई तब उसने जासूस के साथ एक और एक मीडियाकर्मी का सहारा लेकर यह खबर फैला दी कि सारे जिले के डीओ परेशान है. खबर है कि रोज सुबह-सुबह हाजिरी बजाने वाला जासूस बंगले में आने-जाने वाले प्रत्येक शख्स का अच्छे ढंग से हिसाब-किताब रखता है. मनीष पारख कौन है. उसे कुल कितने का काम मिला है. अशोक और कुमार साहब ने कितने कार्यकर्ताओं को कितने करोड़ का काम बांटा. किसको किसके कहने पर उपकृत किया. वैभव अग्रवाल को दस जिलों में प्रश्नपत्र की छपाई का काम कैसे मिला. धर्मेंद्र और शैलेश पांडे ने अपने किस प्रिय को बगैर प्रिटिंग मशीन के कैसे काम दिलवाया. कोरबा का पंकज कब बंगले आएगा... आएगा तो क्या लाएगा. जासूस की जासूसी और निष्ठा देखकर लगता है कि मंत्री का विभाग हथियाने के लिए कोई शख्स गहरी साजिश रच रहा है. अब मंत्री जी जितनी जल्दी समझ जाय तो उतना अच्छा है. मंत्री जी को याद रखना होगा कि कमल छाप वालों इसी तरह की जासूरी के चलते कांग्रेस को पन्द्रह साल तक सत्ता से दूर रखा था. कमल से बचकर रहना ही ठीक होगा अन्यथा कमल की परिक्रमा मंत्री जी को भारी पड़ सकती है.
छत्तीसगढ़ के संपादक परेशान, लेकिन पत्रकार खुश
छत्तीसगढ़ के अमूमन सभी ( इक्का-दुक्का को छोड़कर ) अखबारों और चैनलों के संपादक इन दिनों परेशान चल रहे हैं. उनकी परेशानी की वजह यह नहीं है कि काम का बोझ बढ़ गया है. बल्कि वे इसलिए परेशान चल रहे हैं कि अब उन्हें मुख्यमंत्री सचिवालय से किसी चमन-फमन सिंह का फोन नहीं आ रहा है. अब से ठीक दो-ढाई महीने पहले तक स्थिति काफी बुरी थीं. मुख्यमंत्री सचिवालय से हर दूसरे-तीसरे दिन संपादकों ( कई बार तो मालिकों के पास ) खबर को रोक देने... फलांनी खबर को ढिकांनी कर देने... मतलब एंगल बदल देने, अमकां रिपोर्टर को ठिकाने लगा देने के लिए फोन आया करता था. संपादक और मालिक इस बात के लिए आत्ममुग्ध रहते थे कि चलो चमन सिंह ने उन्हें अपने बगीचे का फूल तो माना. वैल्यू बनी रहती थीं तो फोकट फंट में हवाई जहाज की टिकट से लेकर और भी दस तरह के काम वे करवा लेते थे, लेकिन उनकी वैल्यू के चक्कर में रिपोर्टर को बलि चढ़ जाती थीं. अब संपादकों को बलि चढ़ाने का मौका नहीं मिल रहा है. पिछले दो-ढाई महीनों से अखबारों और चैनलों में पिछले पन्द्रह साल से चल रही बलि प्रथा पर विराम लग गया है.
अंदरखाने की खबर यह है कि पिछले दिनों कुछ संपादकों ने एक जगह एकत्र होकर इस बात के लिए विचार-विमर्श किया कि वैल्यू में इजाफा कैसे और किस तरह से किया जाय. पूर्व मुख्यमंत्री भी वैल्यू एडीशन पर काफी जोर दिया करते थे सो एक संपादक ने सुझाव दिया- अब तक मुख्यमंत्री जी संपादकों को आमंत्रित करते थे... क्यों न इस बार सारे संपादक मिलकर मुख्यमंत्री को लंच पर आमंत्रित करें. एक ने कहा- यह काम अलग-अलग रहकर भी किया जा सकता है. सब अपने-अपने अखबार में आमंत्रित करते हैं. एक ने पकी-पकाई सलाह दी- क्यों ने मुख्यमंत्री को एक दिन का एडिटर बना दिया जाय. जिस रोज वे एडिटर बनेंगे उस रोज सारी खबरें वे तय करेंगे यहां तक हैडिंग भी. सुझाव देने के लिए मशहूर एक संपादक ने अपना दर्द बयां किया- यार... हर रिपोर्टर आंख दिखाता है. कहता है- खबर छापना है तो छापो... नहीं तो भाड़ में जाओ... कोई भी अखबार दशा और दिशा तय नहीं करता है. अब अखबार से ज्यादा सोशल मीडिया हावी है. एक संपादक की पीड़ा थीं- रिपोर्टरों पर पकड़ तब तक रहती है जब तक उनके भीतर नौकरी का डर रहता है. थोड़ा-बहुत भी समझाओ तो रिपोर्टर कहता है- अभी वेज बोर्ड के हिसाब से वेतन नहीं मांगा है. हम किसी खबर पर कार्रवाई करने के बारे में सोचते ही रहते हैं उससे पहले सरकार ही निपटा देती है. साला... खबर का असर लिखने का मौका भी नहीं मिल पा रहा है.