साहित्य
आरती तिवारी की छह कविताएं
पचमढ़ी में जन्मी और फिलहाल मंदसौर में निवासरत आरती तिवारी की कविताएं भयावह समय में उम्मीद और भरोसा जगाती है. अपना मोर्चा डॉट कॉम के लिए फिलहाल उनकी छह कविताएं यहां प्रस्तुत है. उम्मीद है पाठक उनकी कविताओं को पसन्द करेंगे.
( एक ) स्वागत
हमने देखा कल सपना
जो पलकों की चिलमन से उठाया
पपोटों की सूजन से दुलराया गया था
सपने में
नई सदी का स्वागत
इस विश्वास के साथ
नष्ट हो जायेगा वो कूड़ा करकट
जो सड़ाता रहा
सभ्यता के,विराट खजाने
जीवाश्म बन चुकी
दफ़्न अनेक ज़िंदा देहों के
काले इतिहास को भुला
हम सबक लेंगे
स्वागत करेंगे उस सदी का
जिसमें नही रोयेगी नदी
जिस्म में समेटे कलुष
हमारे अपशिष्टों का
हम स्वागत करेंगे
उस सदी का
जिसमे पहाड़ों की
कराहें न शामिल हों
सुराखों से छलनी ह्रदय पहाड़
नही गाते हों
उत्पीड़न का विदारक गान
जंगलों में नही उतरता हो
हरीतिमा विहीन मटमैला सा उजाला
हिरणियों की कुलांचे विहीन
खरगोशों की दौड़ रहित
डरावने दृश्य नही होते हों जहाँ
हाँ हम स्वागत करेंगे उस सदी का
जहाँ बच्चे जा रहे होंगे स्कूल
कोखों में अंगड़ाइयाँ लेंगी
नन्ही कोंपले
स्त्री मुस्कुराएगी सचमुच में
बिना किसी लाचारी के
हम स्वागत करेंगे
उस नई सदी का
( दो ) उम्मीद
जैसे एक नदी गुज़र जाती है
एक शहर से
एक उम्मीद लिए
एक उम्मीद जगा कर
भविष्य की ओर बढ़ते क़दम
पर नहीं भूलते
पीछे मुड़कर देखना
जैसे जड़ें खींचती हैं
पेड़ को अपनी नमी से
एक सदी को जिलाये रखने के लिए
जैसे पृथ्वी खींचती है
अपने गुरुत्वाकर्षण से
हर अपनी तरफ आती चीज़ को
भले ही फेंकी गई हो
वो विपरीत दिशा में
वैसे ही जनवरी भी फ़रवरी में
क़दम रखते हुए बंधा जाती है
एक उम्मीद साल दर साल
( तीन ) रिश्ते
कैसे / किससे/क्यों
बनते/ मिटते/दम तोड़ते
वजह..........
निर्दयी अपेक्षाएं
कद्दावर की कमज़ोर से
सक्षम की अक्षम से
अमीर की गरीब से
प्रदर्शन.......
अपने वैभव का/ऐश्वर्य का
स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने का
दूसरों को नीचा दिखाने का
इस सब में सफल व्यक्ति
निरन्तर ऊगा रहे
एक विकृति जो करती जा रही
ध्वस्त संस्कृति को प्रतिपल
रिश्ते सिसक सिसक के
तोड़ रहे दम
जैसे मुरझा जाते हैं पौधे
जिन्हें नहीं मिलती
ज़मीन की पोषकता
हवा का माधुर्य
पानी की तृप्ति
सूर्य के प्रकाश का भोजन
मर जाते हैं
वैसे ही मरते जाते रिश्ते
धन के भोंडे प्रदर्शन और
अवसरवादिता से
( चार ) क़ुबूलनामा
पिता की तस्वीर पर चढ़ी
प्लास्टिक की माला के फूल उदास
आँखों पर चढ़ा चश्मा शर्मिन्दा
माथे की सिलवटें अनमनी
भाई के कांपते होंठ
टूटती आवाज़ आँखों की लाली
भींच कर खोली जाती मुट्ठियाँ
खुद पर व्यक्त
आक्रोश की निशानियाँ
चेहरे पर उभरी लकीरें
खा रही हैं चुगलियाँ
माँ की तस्वीर के गिर्द
सिसकता सन्नाटा
गवाह है कुतरी गई ममता का
वे सिसकियाँ जो घोंट दी गईं
गले में ही
विजातीय प्रेम की भ्रूण हत्या
पनपने से पहले
बांध कर बेमेल गठजोड़
विदा हुई कहीं एक और सुकुमारी
साथ ले चली
प्रेम की कल्पना के गुनाह पर
बरसाये गए थप्पड़ लातें जूते
गालियों की बौछार
तुम्हारी पगड़ी उछलने से
बचाने के लिए
सांसें रोके चली
( पांच ) अब नहीं डरतीं लड़कियाँ
उन्हें बताया गया
कि गुनाह है उनका हर क़दम
ज़माने के फ़रमान के खिलाफ
मगर लड़कियाँ गुज़र रही हैं शान से
कंधे पर टांगे बस्ते
उन्हीं सड़कों से होकर
जहाँ उन्हें कल
सबक सिखा देने की बात कही गई थी
वे आज भी
वहीं खड़े होकर बतिया रही हैं
जहाँ से कल धकियायी गईं थीं
बस्ते छीन कर
वे नही रोतीं अब
बुक्का फाड़ कर
कि आंसुओं के खारेपन के साथ
उनका डर भी बह गया
अब मीठे पानी की झीलों में
तैर रही हैं
उनके बचपन की बेलौस नावें
खौफ़नाक मंज़र के बदलने पर
वे बदल गई हैं
खिलखिलाती कहकशाओं में
रख कर हाशिए पर
उन्होंने भुला दिए
बेबसी के किरदार
अब वे गाती हैं
आज़ादी के तराने
मुस्कुराती गुनगुनाती
बेख़ौफ़ बेबाक लड़कियाँ
लड़कियाँ अब नहीँ डरतीं।
( छह ) सबूत
मौका-ए-वारदात से मिले कुछ सबूतों में
एक टूटा हुआ कड़ा
नींद की गोलियों की खाली शीशी
और एक पुरानी डायरी तो मिली
जिसमें सूखे हुए आंसुओं से
खरोंचे अक्षर चस्पा थे
पर कहीं नही मिले
उदास तराने, घुटी हुई सिसकियाँ
बेआवाज़ पुकार, खाली मुट्ठियाँ
भोगे जाने के बाद
ठुकराये जाने के बेहिसाब दर्द
आत्महत्या के लिए
पथराये सबूत ही काफी थे
पर जिलाये रखने को
नाकाफी थे,.फरेबी दिलासे
ढोंगी थपकियाँ और अंतहीन प्रतीक्षा
ये आत्महत्या काफ़ी नही थी क्या ?
सिखाने को सबक
कुछ और भी ज़िन्दगियाँ
कुछ घुटी घुटी सिसकियाँ
घासलेट की खाली बोतलें
मज़बूत रस्सियाँ,बिना मुंडेरों के कुए
और कितने और कब तक
सुरंगें या दीवारें
ज़िल्ले इलाही
परिचय-
आरती तिवारी- जन्म-08 जनवरी पचमढ़ी
शिक्षा- बी एस सी एम ए बीएड
वर्तमान में मन्दसौर में निवासरत
प्रकाशन- अक्सर' निकट, कादम्बिनी, अक्षरपर्व ,कृतिओर, जनपथ ,कथादेश ,जनसत्ता ,यथावत, बया, इंद्रप्रस्थ भारती, दुनिया इन दिनों, कविता विहान ,आकंठ,आजकल,गंभीर समाचार, साक्षात्कार ,साहित्य सरस्वती ,विश्वगाथा ,पंजाब टुडे ,समकालीन कविता खण्ड प्रथम ,विभोम स्वर, पुरवाई, शब्द संयोजन ,रविवार ,सबलोग, किस्सा कोताह, विपाशा ,बाखली ,माटी,दो आबा, कथाक्रम, नवयुग, नई दुनिया, दैनिक भास्कर ,राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण, जनसंदेश ,सुबह सवेरे स्दिसृजन सरोकार त महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ कहानी आलेख संस्मरण यात्रा वृत्तान्त एवं अनुदित कविताएँ निरन्तर प्रकाशित
प्रसारण- आकाशवाणी इंदौर से एकल काव्य पाठ कहानी पाठ एवं काव्य गोष्ठियां वार्ताएं प्रसारित
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन
मोबाइल-09407451563
रमेश शर्मा की 17 कविताएं
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में जन्मे और पेशे से व्याख्याता रमेश शर्मा की कविताएं मौजूदा खौफनाक समय से मुठभेड़ करती है. वे अपनी कविताओं को हथियार बनाकर लड़ते हैं और अपने पाठकों को भी लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं. उनकी हर कविता विद्रूप समय में जरूरी हस्तक्षेप करती है. अपना मोर्चा के पाठकों के लिए हम यहां उनकी सभी 17 कविताओं को प्रकाशित कर रहे हैं.
1.यह चुप्पियों को ही हथियार बना लेने का समय है
चुपचाप रहना होगा
चुपचाप सहना होगा
चुपचाप चलना होगा
चुपचाप रूकना होगा
चुपचाप सोना होगा
चुपचाप जागना होगा
चुपचाप रोना होगा
चुपचाप हँसना होगा
चुपचाप जीना होगा
चुपचाप मरना होगा
चुपचाप बोलना होगा
चुपचाप सुनना होगा
मुखर होना मना है इस समय में !
यह नापसंद है उन्हें
जिन्होंने चुप्पियाँ परोसीं !
यह चुप्पियों को ही चुपचाप हथियार बना लेने का समय है
समय है चुप्पियों को उनके ही बिरूद्ध चुपचाप इस्तेमाल करने का !
तो इस हथियार का इस्तेमाल करो
लड़ो चुपचाप उनके विरूद्ध
जिन्होंने हर जगह तुम्हारे ऊपर पहरेदार बिठा दिए हैं !
2. बिना आंखों वाला समय
कई कई लहुलूहान पैरों के जोड़े हैं
जो चलते हुए दीख रहे
लेकिन उनके नीचे की सड़क गायब है दृश्य से !
स्कूल खड़े हैं खंडहरों की शक्ल में
पढने वालों के साथ
पर नहीं हैं पढ़ाने वाले
उनके आने की प्रतीक्षा में
धूल की कई कई परतें जमा हो चुकीं उनके चेहरों पर !
बूत की तरह वर्षों से खड़े हैं बिजली के खम्भे
जिन्हें बिजली के आने का इंतजार है बस !
रोशनी की प्रतीक्षा में
गाँव के गाँव अस्त हो चुके
मानों अंधेरों में डूबे हुए हों सदियों से !
भूख है जो किसी गरीब के गले में अटकी हुई
और भात का पता पूछ रही इनदिनों !
घड़ियां तो चल रहीं
पर समय की साँसों में कहीं आवाज नहीं
मानों थम जाएंगीं चलते चलते कभी भी !
दृश्य अदृश्य के बीच
सत्ता की
कई कई आंखें हैं
जिनसे सब कुछ ठीक ठीक देख लेने के
दावों का शोर उठ रहा हर घड़ी !
झूठ और सच
इन दावों के बीच भेद खो रहे हर घड़ी
नहीं पकड़ पा रहीं हमारी आंखें जिन्हें !
क्या हमारी आंखों की रोशनी छीन ली है किसी ने ?
क्या यह समय बिना आंखों वाला समय हो गया है ?
जूझ रहा हर आदमी इन सवालों से
पढ़ रहा इन झूठी कथाओं को हर घड़ी
जो इस बिना आंखों वाले समय के
गर्भ से जन्म लेकर
हमें अंधा कर देने की जुगत में लगी हुई हैं हर घड़ी !
3. क्या तुम मुझे वहां तक छोड़कर आओगे
क्या तुम छोड़कर आओगे मुझे उस जगह
जहाँ मैं पहुँचना चाहता हूँ पर पहुंच नहीं पा रहा
जहां मैं रह नहीं पा रहा पर रहना चाहता हूँ
एक चाह है भीतर जो एक उम्मीद की तरह आती है रोज
मैं छूता हूँ उसे
इस छुवन में एक दुनियाँ आकार लेती है
उस दुनियाँ में फिर कई कई उम्मीदें जन्मती हैं !
उम्मीद भी तो एक जिंदा शब्द है
जो हमें जिंदा रखता है
तुमने ही कहा था कभी
और रूके हुए कदमों को कहीं से गति मिल गई थी
रास्ते यूं ही तो मिला करते हैं
जब कोई अंगुली पकड़ कुछ दूर छोड़ आता है !
हम हर वक्त क्यों चाहते हैं साथ
हमें खुद भी तो आना चाहिए अकेले चलना
तुमने यूं ही तो नहीं कहा होगा ऐसा
जैसा कि किसी दिन कहा था तुमने
तुम्हारे इस कथन में
हमारे समय की त्रासदियों की गूँज है
यह साथ देने का समय तो रहा ही नहीं
साथ पाने का समय भी नहीं रहा
मानो हम गुम हो रहे हर घड़ी खुद से
मानो किसी ने हमारा अपहरण कर लिया है !
जीवन की धरती पर
खुद को खोजना है हमें ही
जीना है अगर
पाना है उनका साथ
खोजना है उन्हें जो दूर दूर जा चुके !
यह खोज भी कितना कठिन है
झरोखों के उस पार से आती हुईं किरणें
बिना थके उम्मीद जगाने ही तो आती हैं उनमें
जो दिनोंदिन अकेले हो रहे
हो रहे झूठ फरेब घृणा का शिकार
यह खोज दरअसल अकेले होते मनुष्य को बचा लेने की खोज है
इस खोज में हमारे बचे रहने की उम्मीदें शेष हैं
मैं उन उम्मीदों के बीच बचा रहना चाहता हूँ !
क्या इस खोज में तुम साथ दोगे ?
क्या तुम मुझे वहां तक छोड़ कर आओगे ?
4. सबसे कठिन दिनों में
मैं उस समय में
तुमसे बातें कर रहा था
जब कह देना आसान था
कि ये तुम ठीक नहीं कह रहे
ये तुम ठीक नहीं कर रहे
आसान था तुम्हारे लिए
तुम्हारी अपनी गलतियों को मान लेना
सुधार लेना अपने को अपने समय के भीतर ही !
ये अब हम कहां आ गए
समय के इस बियाबान में
कि घड़ी की सुईयों पर भी पहरे हैं
और सबकी जुबान में ताले लटक रहे
कि वह आसान समय हमारे हाथों से छिटक गया जैसे
कि मैं कह सकूँ कि मुझे तुमसे प्यार है
और यह सुनकर हौले से तुम मुस्करा सको !
अब तो घुसपैठिये आ गए आततायी बन
इस समय में
और घृणा की बंदूकें चलने लगीं !
सबसे कठिन समय में
उन आसान दिनों की तलाश में
मैं भटक रहा हूँ
सिर्फ इसलिए
कि पुनः पुनः कह सकूँ
मुझे तुमसे प्यार है !
मुझे तो बस हर घड़ी
तुम्हारे उस हौले से मुस्करा देने वाले
समय भर का इंतजार है !
5. वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम
अपने हिस्से की धरती जिसे वे कहते आ रहे थे
उस पर ही खड़े होकर
वे खोज रहे थे उसे !
वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम !
जिसे होना था उनके हिस्से का प्रेम
वह भी तो नजर आता नहीं दीख रहा था
दूर दूर तक कहीं !
इस धरती पर गुमी हुई वस्तुओं की
एक लंबी फेहरिस्त थी उनके पास
उनके हिस्से का उजाला भी गुम हो चुका था कहीं
और अंधेरों से ही अब
गुजारा कर रहे थे वे !
उनके हिस्से की धरती भी उनकी नहीं रह गई थी
वह भी गुम हो चुकी थी कहीं !
वे खोज रहे थे
उस धरती को
जो कभी उनकी थी
उस उजाले को
जो कभी उनका था
उस प्रेम को
जिसमें डूबकर वे जीते आ रहे थे अब तक
उनके हिस्से में
कुछ भी तो नहीं था अपना कहने को
जैसे सबकुछ गुम हो चुका था इसी धरती पर कहीं
जैसे सबकुछ अपहृत कर लिया था किसी ने !
6. ऐसा लगना ही गांधी का हमारे आसपास होना है
मुझे ऐसा क्यों लगता है
कि कुछ लोग होंगे जो
लालच को किसी बीहड़ में तड़प कर मरने को
छोड़ आए होंगें !
कुछ लोग होंगे
जिनके जीवन की गाड़ी इस समय की धरती पर
अल्प जरूरतों और कम संसाधनों के बीच
आज भी सरपट दौड़ रही होगी !
कुछ लोग होंगे
जिनकी आंखों में हर आदमी के लहु का रंग
दिखता होगा एक जैसा ही !
कुछ लोग होंगे
जिनके लिए हर दिल के दरवाजे प्रेम से खुलते होंगे
और बेरोकटोक वे कर लेते होंगे अपनी रोज की यात्राएं !
कुछ लोग होंगे
जो खुद से ज्यादा जीते होंगे दूसरों के लिए
और ऐसा जीना भरपूर जीने की तरह लगता होगा उन्हें !
चैन की नींद सोते या जागते न जाने क्यों
अक्सर ऐसा लगता है मुझे
कि ऐसे कुछ लोगों की उपस्थिति ही
हमारे समय की घड़ियों को गतिमान किए हुए है !
किसी सुबह जब आप जागते हैं
और किसी हिंसा की खबर के बिना
आपका दिन बीत जाता है शुभ शुभ
तो क्या आपको भी ऐसा नही लगता
कि दुनियां कितनी खूबसूरत है ?
ऐसा लगने को हर दिन हर जगह तलाशिए
ऐसा लगना ही तो शायद
गांधी का हमारे आस पास होना है !
7.यह रोना सिर्फ एक कवि का रोना नहीं था
(कवि इब्बार रब्बी को याद करते हुए)
किसी कवि का रोना कौन समझ पाया
कि तुम्हारा रोना कोई समझ सके !
यह रोना किसी मनुष्य का रोना तो नहीं ही था
यह रोना वह रोना भी नहीं था
जहां एक चेहरा होता है
दो आंखें होती हैं और झर उठते हैं आंसू !
यह रोना जैसे समूचे शब्दों का रो उठना था एक साथ
जैसे कोई कविता भीग उठी हो आंसूओं से
यह रोना समूचे समय का रो उठना था
जैसे घड़ी की सुईयां भींग कर धीरे धीरे चल रहीं हों
और इस सुस्त रफ्तार वाले समय की पीड़ा में
कवि ने आंसुओं से रच दी हो कोई कविता !
यह रोना सिर्फ एक कवि का रोना नहीं था
यह रोना एक चिड़िया का भी रोना था
जिसके घोसले नष्ट कर दिए गए थे
यह रोना एक नदी का भी रोना था
जिसका जल एकाएक खारा कर दिया गया था
यह रोना एक दुधमुंहे बच्चे का भी रोना था
जिसकी मां अचानक कहीं गायब कर दी गई थी
यह रोना सचमुच कई कई चीजों का एक साथ रोना था
और इस रूदन में
हमारे समय की त्रासदियों को
एक कवि रोते हुए सुन रहा था !
8.तुम्हारा इस तरह उठ खड़ा होना
(बी. एच. यू. में आंदोलनरत आकांक्षा के लिए)
तुमने ठीक जगह मारा था मुक्का
और ठीक जगह लगी थी चोंट
एक छटपटाहट पसर गई थी
इस तरह तुम्हारे उठ खड़े होने से
तुमसे ही सीखेंगे लोग
कि जीतने की पहली सीढ़ी है उठ खड़ा होना
जिन्हें मालूम ही नहीं
कि जीतने के लिए
उठकर खड़ा भी होना होता है तुम्हारी तरह
उन मुर्दों में भी
जान फूकेंगी तुम्हारी ये निराली हरकतें
जिसे कभी दिल से स्वीकारा नहीं किसी ने
और मुर्दों सा जिया जीवन
तुम्हारी हिम्मत के बीज
धरती पर रोपित होंगे एक दिन
और तुम्हारी तरह हजार आकांक्षाएं लहलहा उठेंगी यहां
अलग अलग रूप लिए
तुम इसी तरह आते रहना
इस धरती को हरा भरा करने
वरना यह धरती
कितनी बेजान , मुर्दा और बंजर ही लगती रहेगी
तुम्हारे आए बिना ।
9.चिट्ठियां
कुछ दिनों बाद इस शहर में लौटना हुआ
कुछ दिनों बाद फिर से मिलना हुआ इस शहर से
बहुत कुछ हुआ
कुछ दिनों बाद इस शहर में
बारिश भी हुई
बारिश में भीगने से
बचने की कोशिशें भी हुईं
बारिश नहीं
यह इस शहर का प्रेम था
और उससे बचने की कोशिश में
प्रेम छूटता रहा हथेलियों से ।
कई बार ऐसी ही नासमझी में छूट जाती हैं चीजें
गुजर जाती है उम्र यूं ही
और प्रेम है कि उम्र की गली से कब गुजर जाता
कुछ पता ही नहीं चलता
नहीं चलता पता
कि हमारे जीवन के पते पर आयी हुई चिट्ठियां
कब लौट जाती हैं हमसे बिना मिले ही
फिर उसे ढूंढते हुए
इस शहर से उस शहर
यह भटकाव फिर कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेता!
10.पुराना केलेंडर
पुराने केलेंडर की
पुरानी तारीखों में
कई बार आंखें ठहर जाती हैं इन दिनों
ठहरा हुआ न होकर भी
ठहरा हुआ लगता है वह समय
ठहरी हुईं न होकर भी
पुरानी तारीख की पुरानी घटनाएं
ठहरी हुई लगती हैं उनमें
तैर जाता है आंखों में एक शुकून
उन्हें याद कर जैसे !
अच्छे और बुरे दिनों से परे
कितना ठीक था सबकुछ
कि प्रेम बचा था दिलों में
और लहु की बून्दों को
यूं ही जाया होते नहीं देखा आंखों ने कभी !
हर चीज व्यापार नहीं था उनमें
कि आमद की गुंजाइशें
इस कदर ढूंढे जाने की मारामारी न थी
व्यापार को लोगों के बीच बिछने से
हमेशा रोके रहा वह समय !
पुराने केलेंडर की पुरानी तारीखों को
नए केलेंडर की नईं तारीखें
धीरे धीरे निगल गईं जैसे
कि कुछ भी नहीं बचा इन आँखों के लिए
जिसे देख थोड़ा शुकून मिले
जैसे नई तारीखों ने छीन ली मुस्कान सबके चेहरों से
और इस समय ने उन्हें हिंसक और क्रूर बना दिया !
11.कला
जुल्म सहना भी कला है
कला है जुल्म करना भी
जुल्म सहना सहने का आभास न दे
जुल्म करना न दे करने का आभास
तो ऐसी कलाएं अमर हो जाती हैं
पाती हैं ऊंचाईयां
समय गौरवान्वित होता है ऐसी कलाओं से !
अमर होना है गर हमें
तो मैं जुल्म करूं और तुम सहते जाओ
फिर कौन रोकेगा हमें अमर होने से
यह कला एक रोचक खेल बन जाएगी
सदियाँ बीत जाएंगी इसी खेल में
मैं जुल्म करता रहूंगा
और तुम जुल्म सहने का मजा
लेते रहोगे इसी तरह चुपचाप
जैसे कि इन दिनों ले रहो हो
और उफ्फ..भी नहीं कर रहे !
12.जब बचने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं
तुमने पहचान ली हैं हमारी कमजोरियां
कि भूल जाना हमारी रगों में है
गलतियां कितनी भी हो जाएं तुमसे !
हमारी कमजोरियों से उपज
बच निकलने की उम्मीदें
जब से मिली हैं सौगात में तुम्हें
गलतियों को अपनी आदत बना ली है तुमने
और हम सचमुच भूलने लगे हैं तुम्हारी गलतियां !
दोष किसका है ?
कौन किसको सजा देगा ?
कौन किसको माफ करेगा ?
इन सवालों के जवाब कभी ढूंढे ही नहीं गए !
किसी दिन ढूंढे गए इनके जवाब
तो संभव है भूलने की बीमारियां भी पहचानी जाएंगी
और संभव होगा उस दिन उनका इलाज !
पहचान ही किसी बीमारी के इलाज की शुरूवात है
चाहो तो तुम भी पहचान लो अपनी बीमारियां
ये जो बार बार गलती कर बच निकलने की बीमारी है
नासूर बन जाती है उस वक्त
नासूर बन जाता है समय
जब बचने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं !
13.एक बेसुरी आवाज से रोज सामना होता है
वह बिगाड़ देता है सबकुछ और कहता है सब ठीक-ठाक है
उसकी आवाज उस वक्त कितनी बेसुरी हो जाती है
वह गाने लगता है भीड़ में और कहता है ताली बजाओ
लोग ताली बजाते हैं
और वह मान लेता है कि वह सबसे अच्छा गवैय्या है
सबसे अच्छा गा लेने का गुमान हो जाए किसी बेसुरे को
फिर भी दुनियां सुनती रहे उसे
फिर तो किसी बेसुरे को
अच्छा गायक मान लेने की मजबूरियां जन्म ले चुकी होती हैं लोगों में !
यह मजबूरियों के जन्म लेने का मौसम है
जो जन्मने लगा है हर घड़ी भीतर हमारे
घड़ियों के टिक टिक की आवाजों के साथ
एक बेसुरी आवाज से रोज सामना होने लगा जैसे !
यह कैसा समय है जो सभ्यता के किसी हिस्से से मेल नहीं खाता
जैसे किसी नई सभ्यता के उदय का समय है यह
इस समय में गा रहा है वह अपनी बेसुरी आवाज में हर घड़ी
और हमें मानकर चलना है कि हम तानसेन को सुन रहे हैं !
14 . बचाने आ रहे हैं हत्यारे !
घटनाएं कुछ यूं आभास देने लगीं हैं
कि अनपढ़ पढ़ाने आ रहे हैं
और बचाने आ रहे हैं हत्यारे !
पढ़ाने और बचाने जैसे
शब्दों का झूला झुलते हुए
आप खुश होने लगे हैं
उछल पड़े हैं
मानो खुश होना आपकी नियति बन चुकी
अपनी इन हरकतों से
हमारे समय के सबसे सौभाग्यशाली लोगों में
आपकी गिनती होने लगी है !
आपको खुश होता देख
मिटने लगे हैं भेद
अनपढ़ पढ़े लिखे लगने लगे हैं
और रक्षक लगने लगे हैं हत्यारे !
यह समय आभासी घटनाओं का समय है
आभासी समय की आभासी घटनाएं
आपको इस कदर भाने लगी हैं
कि आपकी आखों से
हर सच्चाई अब कितना दूर जाने लगी है
आप हैं कि खुश हैं
और इतने खुश हैं कि नाच भी रहे हैं और गा भी रहे हैं !
15 . ऐसे ही पागलों से अब तक बची हुई है यह धरती
हम रोएंगे
किसी दुःख की घड़ी में
और पेड़ शांत हो जाएंगे !
किसी विपत्ति में
देखेंगे इधर-उधर
और नदियाँ बहना छोड़
रुक कर देखेंगी हमें !
वह इसी तरह सोचता है
देखता है इसी तरह दुनियां को
किसी चमत्कार की उम्मीद में
और पागल करार दे दिया जाता है !
कोई रोए
कोई देखे
तो हो जाना पेड़
कितना मुश्किल है
कितना मुश्किल है
बन जाना नदी !
फिर भी देखना और सोचना इस तरह
अपने पागलपन में
एक उम्मीद का टिमटिमाना है धरती पर
धकेलना है उस भय को इस धरती से
जिसे आधी रात शराबी
वहशियों ने चस्पा कर दिया लड़कियों की पीठ पर !
जिन वहशियों से पटती जा रही यह धरती
दुआ करो उन्हें खदेड़ उनकी जगह ले लें ये पागल सभी
दरअसल जिन्हें पागल कहा जा रहा
वे पागल नहीं
सच्चे मनुष्य हैं
और सच्चे मनुष्य को पागल करार देना वहशियों की पुरानी आदत है !
16. बिसरा देने लायक पात्र ही बन सके अगर
किसी दिन किसी कहानी में
बिसरा देने लायक पात्र ही बन सके अगर
तो क्या होगा
अच्छी घटना नहीं तो बुरी घटना भी नहीं कहा जाएगा इसे
कहीं जगह मिलेगी कम से कम
और थोड़े समय के लिए पढ़ा जाएगा हमें !
अपनी अपनी कहानियों में
अपने अपने दुःख-सुख में सने
पात्रों के संग
रह लेने को भी
कम नहीं आंका गया कभी !
इतिहास की इन कहानियों को पढ़ते हुए
बूझते समझते इन्हें
अजीब अनुभवों से गुजरना हुआ
यहाँ पात्र भी बड़े अजीब लगे
उनकी बातें लगीं उनसे भी अजीब
कि हम होते हैं जब जब तो बिसराए जाते हैं उस घड़ी उनसे
और जब जब नहीं होते वहां
तो सबसे अधिक याद आते हैं उन्हें !
17 .दृश्य
झरोखे के उस पार की दुनियां को
बंद कमरे में बैठ
कभी उस तरह उसने देखा नहीं था
जैसा कि उसे देखा जाना चाहिए था !
यूं भी एक नईं दुनियां को देखने के लिए
वह नजर मिली नहीं थी कहीं से उसे
पर उसे इस बारिश ने वह भी दे दिया था
और वह ठहरकर देख रहा था झरोखे के उस पार की दुनियां को !
इस देखने में विस्मय था
शोक था
दुःख और सुख दोनों थे साथ !
रेनकोट को शरीर में लपेटे
आधे भीग चुके बच्चों का काफिला
स्कूल के लिए जा रहा था !
भरी बारिश में नगर निगम की जेपीसी
सड़क चैडीकरण के लिए गरीबों की झोपड़ियां गिराने आयी थी !
खेतों में काम रूका नहीं था
भींगते हुए धान का रोपा लगाने में आज भी मगन थे मजदूर !
दूध वाले ने आज भी नागा नहीं किया था
अभी-अभी भीगा हुआ अखबार
आज भी डाल गया था हाकर
उसकी आँखों के सामने !
रूकावटें बहुत थीं
पर कुछ भी तो रूका नहीं था इस बारिश में
जीवन गतिमान था जैसा कि उसे होना चाहिए था
बस एक सुविधा भोगी आदमी
भींगने से डरा हुआ रुक गया था बंद कमरे में
और झरोखे के उस पार की दुनियां
उतरती चली जा रही थी उसकी आँखों में
वह देख रहा था चीजों को ठहरकर पहली बार
और बैचेनी से भर उठा था !
परिचय
नाम: रमेश शर्मा
जन्म: छः जून छियासठ , रायगढ़ छत्तीसगढ़ में .
शिक्षा: एम.एस.सी. , बी.एड.
सम्प्रति: व्याख्याता
सृजन: दो कहानी संग्रह “मुक्ति” 2013 में तथा “एक मरती हुई आवाज” 2018 में एवं एक कविता संग्रह “वे खोज रहे थे अपने हिस्से का प्रेम” 2018 में प्रकाशित .
कहानियां: समकालीन भारतीय साहित्य , परिकथा, गंभीर समाचार, समावर्तन, ककसाड़, कथा समवेत, हंस, पाठ, परस्पर, अक्षर पर्व, साहित्य अमृत, माटी, हिमप्रस्थ इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित .
कवितायेँ: हंस ,इन्द्रप्रस्थ भारती, कथन, परिकथा, सूत्र, सर्वनाम, समावर्तन, अक्षर पर्व, माध्यम, मरूतृण, लोकायत, आकंठ, वर्तमान सन्दर्भ इत्यादि पत्रिकाओं में प्रकाशित
संपर्क : 92 श्रीकुंज , शालिनी कान्वेंट स्कूल रोड़ , बोईरदादर , रायगढ़ (छत्तीसगढ़), मोबाइल 9752685148, 9644946902
संतोष श्रीवास्तव की कविताएं
मध्यप्रदेश के जबलपुर में जन्मी संतोष श्रीवास्तव की काव्य यात्रा काफी लंबी है. उनकी कविताओं में हमारे आसपास की विडंबनाओं का गहन चित्रण देखने को मिलता है. वे स्रियों के पक्ष में विमर्श तो करती है, लेकिन नारेबाजी से दूर रहती है. उनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वे हमें सचेत करती है.
एक-कब तक छली जाओगी द्रौपदी
तुम समय सीमा से
परे हो द्रौपदी
द्वापर युग से अनवरत
चलते चलते
आधुनिक युग में
आ पहुंची हो
इतने युगों बाद भी
तुम अपनी मर्जी से
अर्जुन का वरण कहाँ कर पाती हो खाप अदालत का ख़ौफ़ तुम्हें
पुरुष सत्ता के आगे
बिखेर देता है
तुम बिखर जाती हो द्रौपदी
दुर्योधन की जंघा पर
बलपूर्वक बिठाई जाकर
रिश्तो की हार ,क्रूरता की जीत
देखने पर विवश हो द्रौपदी
गलता है तुम्हारा शरीर
आहिस्ता आहिस्ता
स्वर्ग की राह पर
एक प्रतिरोध गुजरता है
तुमसे होकर
पर तुम अपने इंद्रप्रस्थ
अपने पांचों पति ह्रदय में धारे
पूरी तरह
गल भी नहीं पातीं द्रौपदी
आज भी कितने समझौतों से
गुजरती हो तुम
तब बख्शी जाती है पहचान
आज भी क्रूरता का तांडव जारी है
चीर हरण का तांडव जारी है
अनचाहे रिश्तो का बोझ
आज भी ढो रही हो तुम
कब तक छली जाओगी द्रौपदी ?
दो-नमक का स्वाद
देखा है कभी
नमक के खेतों के बीच
उन कामगारों को
जो घुटने तक प्लास्टिक चढ़ाए
चिलचिलाती धूप में
ढोते हैं नमक
दूर-दूर तक कहीं
साया तक नहीं होता
पल भर बैठ कर सुस्ताने को
अगर साया होता
तो क्या बनता नमक
तो क्या मिलती कामगारों को
दो वक्त की सूखी रोटी
शाम के धुंधलके में
अपने गले हुए पांवों को सिकोड़
चखता है वह
हथेली पर रखी रोटी
और रोटी के संग
नमक की डली का स्वाद
सत्ता ने जो बख्शा है उसे
दूसरों के भोजन को
सुस्वादु बनाने के एवज
मरहूम रखकर सारे स्वादों से
तीन- गीत चल पड़ा है
मेरे मन के कोने में
इक गीत कब से दबा हुआ है
सुना है
जल से भरे खेतों में
रोपे जाते धान के पौधों की कतार से
होकर गुजरता था गीत
बौर से लदी आम की डाल पर
बैठी कोयल के
कंठ से होकर गुजरता था गीत
गाँव की मड़ई में
गुड़ की लईया और महुआ की
महक से मतवाले ,थिरकते
किसानों के होठों से
होकर गुजरता था गीत
अब गीत चल पड़ा है
सरहद की ओर
प्रेम का खेत बोने
ताकि खत्म हो बर्बरता
अब गीत चल पड़ा है
अंधे राजपथ और
सत्ता के गलियारों की ओर
ताकि बची रहे सभ्यता
चार-नदी तुम रुको
नदी तुम रुको
तो मैं लहरों पे लिख दूँ
सँदेशे सभी
लेके उस पार तुम
देना प्रिय को मेरे
कहना कदमों को उनके भिगोते हुए
इस बरस खिल न पाई है सरसों यहाँ
इस बरस बिन तुम्हारे हूँ गुमसुम यहाँ
नदी तुम रुको
क्यों हो आतुर बहुत
जानती हूँ मिलन के हैं अँदाज़ ये
जानती हूँ समँदर की दीवानगी
जाते जाते बताना
पिया को मेरे
हथेली पे मेरे
जो मेंहदी रची
नाम तेरा लिखा
आस अब भी बँधी
नदी तुम रुको
सुनो तो ज़रा
चाँद का अक्स
मुझको उठाने तो दो
सितारों से बिंदिया
सजाने तो दो
नदी तुम रुको
बस, ज़रा सा
पांच-किसे आवाज़ दूं
जिंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे
मैं किसे अपना कहूं
किसको पुकारुं?
है दरो-दीवार
पर यह घर नहीं है
सूनी सूनी जिंदगी की
अब कोई सरहद नहीं है
है यहां सब कुछ मगर कुछ भी नहीं है
जिंदगी के मायने बदले हुए हैं
मैं किसे आवाज़ दूं किसको पुकारूं?
रात आती है दबे पांव यहां
और नींदों को लिए
करती प्रतीक्षा सुबह तक
सुबह आती है सहन में कांपती सी
मैं किसे अपना कहूं किसको पुकारूं?
आज वीरां हैं मेरे शामो सहर
हीर सा मन और मैं हूं दरबदर
बांसुरी चुप है
मेरा रांझा कहां है
मैं कहां ढूंढू उसे कैसे बुलाऊं?
जिंदगी छलती रही
हर पल मेरा ठगती रही
अब हुआ दिन शेष
मेला भी खतम
मै किसे आवाज़ दूं किसको पुकारूं ?
छह-बंद लिफाफा
उन दिनों
हम मिला करते थे
चर्च के पीछे
कनेरों के झुरमुट में
विदाई के वक्त
हमारी अपार खामोशी में
तुमने दिया था लिफाफा
इसे तब खोलना जब
हरकू के खेतों में
धान लहलहाए
उदास चूल्हे में
रोटी की महक हो
फाकाकशी से कंकाल काल हुए
बच्चों की आँखों में
तृप्ति की चमक हो
ठिठुरती सर्दियों में
गर्म बोरसी हो
बरसात में टूटे छप्पर पर
नई छानी हो
बस तभी खोलना इसे
बंद लिफाफे को खोलने की
जद्दोजहद में
उम्र गुज़र गई
आज जब खुला तो
उसमें तुम्हारे जाते हुए
कदमों की केवल पदचाप दर्ज़ थी
परिचय-
संतोष श्रीवास्तव
जन्म....23 नवम्बर जबलपुर
शिक्षा...एम.ए(हिन्दी,इतिहास) बी.एड.पत्रकारिता में बी.ए
कहानी,उपन्यास,कविता,स्त्री विमर्श पर अब तक पन्द्रह किताबें प्रकाशित।
दो अंतरराष्ट्रीय तथा सोलह राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित
डीम्ड विश्वविद्यालय राजस्थान से पीएचडी की मानद उपाधि। "मुझे जन्म दो मां "रिफरेंस बुक के रुप में सम्मिलित।
कहानी " एक मुट्ठी आकाश "SRM विश्वविद्यालय चैन्नई में बी.ए. के कोर्स में ।
महाराष्ट्र के एसएससी बोर्ड में 11 वीं के कोर्स में लघुकथाएं और कविताएं शामिल
राही सहयोग संस्थान रैंकिंग 2018 में वर्तमान में विश्व के टॉप 100 हिंदी लेखक लेखिकाओं में नाम शामिल।
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा विश्व भर के प्रकाशन संस्थानों को शोध एवं तकनीकी प्रयोग( इलेक्ट्रॉनिक्स )हेतु देश की उच्चस्तरीय पुस्तकों के अंतर्गत "मालवगढ़ की मालविका " का चयन
विभिन्न भाषाओं में रचनाएँ अनूदित,पुस्तकों पर कई विश्वविद्यालयों में एम फिल तथा शाह्जहाँपुर की छात्रा द्वारा पी.एच.डी,रचनाओ पर फिल्माँकन,कई पत्र पत्रिकाओ में स्तम्भ लेखन व सामाजिक,मीडिया,महिला एवँ साहित्यिक सँस्थाओ से सँबध्द
22 वर्षीय कवि पुत्र हेमंत की स्मृति में हेमंत फाउंडेशन की स्थापना "प्रतिवर्ष हेमंत स्मृति कविता सम्मान तथा "विजय वर्मा कथा सम्मान" का मुम्बई में आयोजन।
अंतरराष्ट्रीय संस्था " विश्व मैत्री मंच "की संस्थापक अध्यक्ष।
केंद्रीय अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार मित्रता संघ की मनोनीत सदस्य । जिसके अंतर्गत 25 देशो की प्रतिनिधि के तौर पर हिंदी के प्रचार,प्रसार के लिए यात्रा ।
सम्प्रति स्वतंत्र पत्रकारिता.
सम्पर्क 09769023188 [email protected]
505 सुरेन्द्र रेज़िडेंसी, दाना पानी रेस्टारेंट के सामने,
बावड़ियां कलां, भोपाल 462039 (मध्य प्रदेश)
आभा दुबे की सात कविताएं
आभा दुबे की पहचान एक प्रतिबद्ध कवयित्री के तौर पर कायम है. उनकी कविताओं का मुहावरा बेहद अलग है. वे निजी दुनिया से ज्यादा समाज के पीड़ित और वंचित तबके की चिंता करती है. अपनी कविताओं में वे सत्ती शौरीं,निर्भया , जेसिका, इरोम , आरुषि, शलभ श्रीराम को ससम्मान याद करती है तो आदिवासी लड़की हिसी के लिए भी प्यार उड़ेलकर खुश होती है. अपना मोर्चा के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी सात कविताएं.
एक-संभावनाओं के बीच
वह एक अकेला पेड़ है शहर में,जो बच गया है
वहाँ बैठी शहर में बच गयी अंतिम गोरैया बहुत उदास है
गोरैये को बताया गया था शहर अब भी संभावना है
जिसकी तलाश में वह रोज देखती है
रौशनी से नहाये इस शहर में संभावनाओं का शव
जो हर शख्श के सिरहाने तकिये की जगह पड़ा है
सिरहाना छूटता नहीं
नींद आती नहीं
पूरी रात चमगादड़ प्रेम की बीन बजाता है
उसी शहर में आजकल रौशनी ,गोरैया और संभावनाओं के शव से इतर
सिरहाना ,नींद और प्रेम में गुम
खुद को खोजता कवि
शब्दों में शहर और शहर में प्रेम की संभावना ढूंढता है .
मगर कलम उठाते ही वह काशी के मणिकर्णिका में बदल जाता है.
दो- तुम्हारे सुख की खातिर
जब चलना छोड़ चुकी थी तब तुम मिले
कहा - सफ़र ख़त्म नहीं होता
जब मैंने अपनी आवाज खो दी
तुमने भीतर से आवाज लगाई
कि आवाज ही पहचान है
मेरी हथेलियों पर मौजूद पहले की लकीरों को मिटाकर
तुम कुछ नया लिखते रहे
अचानक उभर आये वहाँ कई नाम
सत्ती शौरीं,निर्भया , जेसिका, इरोम , आरुषि........और भी कई
इन नामों में समाया पृथ्वी का दर्द
पहले मेरी आँखों में उतर, आँसू बना
फिर ग्लेशियर बन पिघलता रहा
तुमने उसे नदी कहा
गंगा-कावेरी-अलकनंदा-कोसी ......
तुम डूबकर नहाये और पवित्र हो गए
तुम्हारी हर डुबकी से नदी की पीड़ा बढती रही
वह सूखती गई
सिमटती गई
तुम्हारे सुख की खातिर
मगर तुम्हारे लिए हर बार मैं सिर्फ नदी ही रही
तीन- अनगढ़ता
कोई पत्थर
तब तक शिकार नहीं होता एकरूपता का
जिसे गढा नहीं गया हो
तराशकर दिया नहीं गया हो कोई रूप जिसे
नष्ट हो जाती है उसकी अनगढ़ता
किसी आकार में ढलते ही
मौजूदा दौर
मुफीद है गढ़ने और गढ़े जाने के विकल्पों के इस्तेमाल के लिए
मनमाफिक रूप , मनचाहा आकर देने की जिद में
खत्म की जा रही है अनगढ़ता अब दुनिया से
गढ़ा जा रहा है सब कुछ जुनून भरे हाथों से
सत्य भी गढ़ा जा रहा है झूठ की मिट्टी से
पत्थर हो कि हो आदमजात
आज चुनौती है
अपनी अनगढ़ता बचाए रखने की
समायी रहती है जिसमें कितने ही विराट रूपों की असीम संभावनाएं
जो पृथ्वी को सूरज से बड़ा साबित करने की कोशिश के खिलाफ
सबसे मजबूत हथियार है
पूरी पृथ्वी पर तारी बचने-बचाने के कोहराम के बीच
ये दौर मक्का-मदीना , मंदिर-मस्जिद ,नूतन-पुरातन
यहाँ तक कि प्रेमपत्र बचाने का भी नहीं
अनगढ़ता बचाने का है
बचा सको तो बचा लो इसे
फिर बच जायेगा वो सब कुछ
जो तुम बचाने को बेचैन हो.
चार- दुनिया उतनी ही नहीं है
दुनिया उतनी ही नहीं है जितनी फ्रेम में है
फोटो के फ्रेम से बाहर रह गए चेहरे
ज्यादा दिखाई देते हैं
जिन्दगी वही नहीं जो जी जाती है
पहचान उतनी ही नहीं जो आधारकार्ड में दर्ज है
इतिहास वही नहीं जो किताबों में सहेजा गया है
प्रेम जितना दिल में है
उससे कहीं ज्यादा बाहर ,
पृथ्वी पर पसरा और आसमान में फैला हुआ है
सफ़र में सिर्फ वे ही नहीं जिनका आरक्षण चार्ट में नाम है
रेलवे चार्ट बन जाने के बाद भी नहीं होता है जिनका टिकट कन्फर्म
वो करते हैं मेरी ही बर्थ पर सफ़र
मेरी जगह
मानसून में झमाझम बारिश के बाद भी
जो कोना रह जाता है सूखा
संविधान के पन्नों और संशोधनों में नहीं सिमटती जिनकी व्यथा कथाएं
ऐसे फ्रेम से बाहर और सूची से दूर
अधिकार से वंचित रह गए लोग
दरअसल आदमी नहीं कविता हैं !
पांच- आँखों का सच
फ्रेम चाहे लकड़ी की हो या सोने की
उसमें जड़ा आईना कभी झूठ नहीं बोलता
देह चाहे चीथड़ों में लिपटी हो
कि सजी हो मखमली पोशाक में
बेपर्द आँखें कभी झूठ नहीं बोलतीं
सच झूठ के तराजू पर तुलती हर चीज
बनावटी या नकली हो सकती है
सिवा आंखों के
बस आँखें ही किसी की भी अपनी और सच्ची हैं
उतनी
जितनी उनकी अंतरात्मा
कोई पढ़ न ले उनके भीतर की सच्चाई
इसलिए लोग आंख मिलाने से बचते हैं
काश आदमी केवल आंख होता
उसमें खून नहीं प्यार का पानी होता.
छह- हमें बख्श दो
नहीं की जा सकती कल्पना उस दिन की
कि दूर हो जायें हम हमारे ही अपनों से
सोचा नहीं जा सकता कभी एक पल को भी
कि छूट जाये हमारी नौकरी किसी दिन
जानलेवा है ये ख्याल
कि नहीं रहे कोई प्यार करनेवाला हमारे जीवन में
सिहर उठेगा रोम-रोम उसी एक क्षण में
कि क्या हो जब छोड़ दिए जाएँ हम हमारे ही हाल पर
उस बुरे दिन की कल्पना करके
नहीं बनना है हमें पागल
चंद शब्दों से लगाकर आग किसी के जेहन में
नहीं हत होना है किसी के भी हाथों
किसी बुरे सपने की तरह डराता है यह ख्याल
कि निरपराध जला दिए जाएँ चौराहे पर किसी दिन
सिर्फ इसलिए कि हमने एक अच्छी कविता लिखी है ?
हमें बख्शो
हम पर रहम करो
भावों से भरे हम साधारण मनुष्य हैं
नहीं बनना ईश्वर कुछ अच्छी कविताएँ लिखकर .
(श्रीराम शलभ सिंह को याद करते हुए )
सात- चुप्पी की विरासत
किताबों के काले अक्षरों को चीटियों की कतार बताने वाली
हिसी पुडुंगी स्कूल नहीं जाती
वह अखबार नहीं पढ़ती
पर अखबारी कागजों से ठोंगे गजब के बनाती है
वह सिनेमा नहीं देखती
मगर सुनाती है घोटुल , मुटियारिनों
और सैकड़ों जागृत देवी-देवताओं की कहानियाँ और दन्तकथाएँ
विचारों की परिष्कृत दुनिया को दूर से सलाम करती हिसी
किसी बातचीत या बहस में भी शामिल नहीं होती
इतिहास पढ़ा न भूगोल जाना
मगर जानती है वह सागौन , सखुआ , महुआ, इमली , तेंदुपत्ता उगाना और सहेजना
कला का क अक्षर भैंस बराबर है उसके लिए
पर मांदर की थाप पर पंथी ,सुआ , राउत , सैला नाच में सानी नहीं उसकी
चाँद से चेहरे पर चन्दा सी गोल बिंदी लगाती हिसी के लिए
रोटी ही उसका भूगोल है और जिन्दगी किताब
उसके जंगल की चौहद्दी ही देश है उसका
जिसे वो प्यार करती है और चुप रहती है
ये चुप्पी विरासत है
जिसे तारीख दर तारीख ढोती हिसी
जनतंत्र की सबसे विश्वासी नागरिक कहलाती है
(आदिवासी लड़की के लिए )
परिचय --
आभा दुबे
जन्म -- किशनगंज बिहार
मनोविज्ञान से स्नातक
प्रकाशन -- एक कविता संग्रह ' हथेलियों पर हस्ताक्षर '
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता , कहानी , लेख इत्यादि प्रकाशित
सम्मान -- शीला सिद्धान्तकर सम्मान से सम्मानित.
पता-
आभा सदन
मकान नंबर - A /29
सड़क नंबर - 2
विद्या विहार कालो नी
नेहरू नगर पश्चिम
दुर्ग- भिलाई
49 00 20
इ मेल -- [email protected]
मोबाइल नंबर -- 98 93 32 18 93
मधु सक्सेना की दस कविताएं
मधु सक्सेना हमारे समय की एक महत्वपूर्ण कवयित्री है. अपने आसपास को वे बेहद संवेदना के साथ देखती है. उनकी कविताओं में हम एक शांत ठहराव देखते हैं तो अजीब तरह की छटपटाहट भी. फिलहाल अपना मोर्चा के पाठकों के लिए हम यहां उनकी दस कविताएं प्रकाशित कर रहे हैं. इन कविताओं में प्रेम और विद्रोह दोनों हैं. कविताएं खौफनाक समय में हस्तक्षेप करती है.
एक- गोधूलि
नही लौटती अब गायें रंभाती हुई
धूल उड़ाती
थनों में दूध भरे अपने बछड़ों को पुकारती हुई
कोई बेला नही गोधूलि की ...
नही लौटता किसान
काँधे पर हल रखे ..
नही आती गौरैया चहचहाती हुई
अपने घोंसले में ..
बड़ी इमारतों के नीचे छुप गया गांव
दब गए खेत
भूख ने हथियार उठा लिए
सीमेंट और डामर की बड़ी सड़कों में
पॉलीथिन चबाती ,भारी वाहनों से बचती
अपना अस्तित्व बचा रही कुछ गायें ..
निबंध में लिखी जा रही माता ..।
कुछ गो भक्त उगाह रहे चंदा
भर रहे अपनी तोंद ...
अब बच्चे गाय नही ,काऊ जानते है
धुंए से भरी हवा अब धूल नही उड़ा पाती
गायों के खुर डरे सहमे भटकते हैं
अपनी उन्मुक्तता खोकर बेचेंन है
गोधूलि अब मात्र पोथियों में
सिमट कर रह गई ..
दो- चाकू की धार
गुनगुनाते हुए ....
चाकू की धार से ही काटे थे
नन्हे की पसन्द केआलू के चिप्स
'उनके' लिए लौकी
अचार के लिए केरी और कटहल
त्योहारों पर मठरी के दुकड़े
बेसन चक्की में लगाये चाक बराबर दूरी पर
सबकी जीभ और खुशी में शामिल है
चाकू का धारदार होना ...
मुश्किलों की सान पर घिसते हुए
तेज करना ज़िन्दगी के चाकू की धार
काट देना जिससे
लड़की के बंधन की रस्सी
चीर देना है क्रूरता भरे हृदय
भोंक देना अन्याय के दैत्य के सीने में .
हर चाकू का चाकू हो जाना ही
सबसे बड़ा भरोसा है ......
तीन- साज़िशें
भुरभुरा कर गिरते रहे दिन
रातें घटनाओं की चादर ओढ़ छटपटाती रही ..
मन डोलता रहा ..भटकता रहा
आकाश ,पिंडीय उल्काओं से
धरती ज्वालामुखियों से पटी रही
इन झुलस भरे समय मे
बाढ़ सी आ गई
चीत्कार और ललकार की
विद्रोह ने सांस ली
सूरज ने फैला दी किरणे
ये गर्म हवा भर गई सांसों में
परमाणु की सक्रियता
नाभिकीय हलचल से
डर गया आदिम
खोजने लगा नए उपाय
खोखली हँसी के साथ
सौहाद्र के गीत गाते हुए
रचने लगा नयी साजिशें ..
चार- तुम आये
तुम आये ...
एक झोंका पुरवाई बन
बून्द भर पानी लिए मेघ
इंद्र धनुष का एक रंग बिखरते
कहीं दूर सितार बज उठा ......
तुम आये जीवन मे
एक खगोलीय घटना की तरह
और ठहर गए टूटे तारे की तरह ....
पांच- उमस
भीगना भी न हुआ
सूखे भी न रहे
तभी तो आ बैठी है 'उमस'
अधखुली खिड़की से ..
ना छूट पाए , ना बंध पाए
कोई राह ही तो नही खोजी
गड़ी ही रही 'उमस'
छाती में ठुकी कील की तरह .....
'उमस' ही तो है खड़ी है बेचैनी का लबादा ओढ़े
प्यास का कटोरा लिए
पर बात प्यास की नही
तृप्ति की है ....
विकल्प मौजूद है ,
निकल जाओ बाहर
झमाझम बारिश के हवाले कर खुद को
तृप्त हो जाओ ..
मिट्टी और हवा की उन्मुक्तता को पहन कर
नृत्य में डूब जाओ
या कमरे में जा कर बच जाओ बारिश से
रह सको तो रह लो घुटनो के बल
'उमस' को काँधे पर टांग कर
प्यास और तृप्ति
के बीच की खाली जगह पर ..
अनिर्णय को थामे हुए .......
छह- कपड़े
खोज रही हूँ बहुमंजिला इमारतों के जंगल मे
घर की बड़ी सी छत पर वो सूखते कपड़े
हवा में झूमते , गलबहियां डाले, छत को भिगोते
लाल, पीली, नीली लहराती वो साड़ियां
ये माँ की ,ये काकी की, ये भाभी की ..
भाभी की लाल साड़ी के कोर से ही दिखा वो
दूसरी छत पर किताब लिए
माँ की साड़ी के पीछे से कई बार ताका
काकी की साड़ी की ओट लिए घण्टो खड़ी रही
एक झलक के लिए
तेज हवा के झोंके ने खोल दी थी पोल
शर्म और मुस्कान बिखर गई पीली धूप सी ..
हाथ मे किताब, पर अक्षर आखों -आंखों के पढ़े जाते
पापड़, बड़ियों के साथ सपने भी महफ़ूज किये जाते रहे
हवा में उड़ते और बरसात में भीगते कपड़े
अपनी रंगत पर इतराते रहे
लिखते रहे एक प्रेम कहानी
।
कहानी भले ही अधूरी रही
प्रेम अधूरा नही रहा
जिम्मेदारियों की ताल के साथ
सुर मिलाता रहा सदा
करता रहा मज़बूत ..
अब मशीन के निचुड़े
और छोटी सी बालकनी में
स्टैंड पर सूखते कपड़ों ने
न जाने कितनी प्रेम कहानियों को
विज्ञापनों के हवाले कर दिया ।
सात- चीख़
दबी पड़ी है कुछ चीखें
महलों के खंडहरों में
किले की दीवारों में
तहखाने की सांकलों में
बन्द कर दिए गए सूराख़
कैद हो गई हवा ...
कुछ चीखें दबी रह गई
लाल इमारत में
भारी बस्ते के नीचे
अपनी भाषा मे बोलते बतियाते
दूसरी भाषा से कुचली गई
नन्ही चीख सिसकियों में बदल गई ..
कुछ चीखें घरों में कैद हो गई
चाचा ,मामा जैसे आवरणों में
सात फेरों में या घुट गई दूध भरे बर्तन में
निकाल दी है गई बाहर
सफेद कपड़े में लपेटकर
या लाल जोड़े में ...
चीख तो चीख ही है आखिर
कभी नदी से तो कभी पहाड़ से फूटती है
धुंए से भरी बैठ जाती है पेड़ों की फुनगी पर
या चल पड़ती है कोई प्यासी चीख
नापने पानी की गहराई ..
चीख की अपनी भाषा होती है
ये मात्र कोई शब्द नही
अपने इतिहास और भूगोल के साथ
होती है पूरी एक कहानी
एक क्रांति की शुरुआत है
एक चीख का हज़ारों चीखों में बदल जाना ...
आठ- वक्र रेखा
त्रिभुज, आयत और समकोण में
समा जाती हैं सरल रेखाएं
जिसने जैसी खींची
बनी रहती है अपनी सीमा में
स्टेचू कह कर भूल भी जाओ तो
शिकायत नही करती ..
वक्र रेखाएं
नही सुनती किसी की
नही मानती कोई हद
छू ही लेती है चलते चलते
किनारों की पीठ
परिंदों के पर और आकाश के तारे
क़दम दर क़दम
लहराते हुए
बिछा देती है आकाश सी नीली चुनरी
हरियाई घास पर
जिसका क्षेत्रफल कोई नही जानता
लाल चुनरी के किनारों को उधेड़ कर
लगा देती है
नीली सितारों वाली किनार
एक छोर हाथ मे थाम
दूसरा छोर उछाल देती है
अनन्त की ओर ..…...
गणित की होकर भी
नही रहती गणित में
जमाने की थू थू के बाद भी
होठों पर आकर बैठ जाती हैं
ये वक्र रेखाएं ....
नौ- त्यागपत्र
माँ और बाबा ने लिखा था
मेरा नियुक्ति पत्र ...
मेरी पहली धड़कन के सम्मान में
अधिकारों की लम्बी फेहरिस्त के साथ
गोदी मेरी , आंगन मेरा
खिलखिलाना मेरा
बचपन मेरा
सब मेरे .....
समय बीता ..बचपन ने दिया त्यागपत्र
चुपके से एक कोना फाड़ लाई
जवानी के नियुक्ति पत्र के साथ ही
सपने सजे ..
कर्म भूमि की गोद मे
समय फिर चल पड़ा
अपने से भी ऊंचे होते
अपने ही दरख़्त को
सौंप दिया अपने हिस्से का खाद-पानी ..
अब फिर से नया नियुक्ति पत्र
जवानी के त्यागपत्र के साथ
चुपके से फिर फाड़ लिया कोना
जाते बचपन और जवानी के
चुराए टुकड़ो को सम्हाल रही हूँ
सहजता और हौसले कि पतवार के सहारे
पहुंचना है जीवन नदी के अंतिम घाट पर
मृत्यु का नियुक्तिपत्र पाते ही
समाप्त हो जायेगें सारे बदलाव
फिर कोई त्याग पत्र नही देना होगा ..
दस- कभी तो आओ
मेरी स्मृतियों से निकल कर
कभी तो आओ सामने
इतने बरसों बाद देखो तो मुझे ...
बालों में चाँद और चांदनी दोनो
शबाब पर है ..
झुर्रियों ने आसन जमा लिया
न जाने के लिए
बल्कि उनके सम्बन्धी बढ़ते जा रहे ..
दिखने के दांत सलामत
पर दाढ़ें हिलने डुलने लगी
घुटनों की तो पूछना ही मत
आपरेशन के बाद भी नखरे कम नही हुए ..
पर्स में लिपस्टिक ,शीशा और इत्र के बदले
रहता है इन्हेलर ।
मोटा सा चश्मा ही आधी जगह घेर लेता है
बाकी जगह बी पी , शुगर की दवाइयां ..
आधार कार्ड पर ज़िन्दगी आधारित हो गई
मेरे ज़िंदा रहने का सबूत है वो
वरना आज धड़कन और सांसों पर
कौन यकीन करता है ..?
यही सुनती हूँ बार बार कि
अब इस उम्र में क्या करोगी ..?
समझ नही आता
साठ के बाद क्या करने को कुछ नही होता ?
स्मृतियों का बोझ बढ़ता जा रहा
एक बार आओ तो स्मृतियों से निकल कर
बोझ कुछ कम हो
झुके कन्धों और पीठ को तान कर
खड़ी हो जाऊं कुछ देर ...
सीधी खड़ी ही नही हो पाई आज तक
तुम्हारे जाने के बाद ...
परिचय-
श्रीमती मधु सक्सेना
जन्म- खांचरोद जिला उज्जैन मध्यप्रदेश
कला , विधि और पत्रकारिता में स्नातक ।
हिंदी साहित्य में विशारद ।
प्रकाशन (1) मन माटी के अंकुर (2) तुम्हारे जाने के बाद ( 3 ) एक मुट्ठी प्रेम ।सब काव्य संग्रह है ।
आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण
मंचो पर काव्य पाठ ,कई साझा सग्रह में कविताएँ ।विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन ।सरगुजा और बस्तर में साहित्य समितियों की स्थापना । हिंदी कार्यक्रमों में कई देशों की यात्रायें ।
सम्मान..(1).नव लेखन ..(2)..शब्द माधुरी (3).रंजन कलश शिव सम्मान (4) सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान (5) प्रोफे. ललित मोहन श्रीवास्तव सम्मान - 2018 ......
पता .. सचिन सक्सेना H -3 ,व्ही आई पी सिटी, उरकुरा रोड ,सड्डू रायपुर (छत्तीसगढ़ )
पिन -492-007 मेल - saxenamadhu24@gmail. Com फोन .9516089571
जज ने मुझसे यह बयान लिया है धोती-कुर्ता क्यों पहन लिया है...
जज ने मुझसे यह बयान लिया है
धोती-कुर्ता क्यों पहन लिया है।
यदि कथाकार और उपन्यासकार मित्र मनोज रुपड़ा ने सुरेन्द्र कुमार के बारे में बताया नहीं होता तो शायद जिंदगी की तपिश और उबड़-खाबड़ रास्तों से हर रोज़ गुजरने वाले एक उम्दा ग़ज़लकार से मेरा परिचय नहीं हो पाता। सुरेन्द्र कुमार उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक छोटे से गांव अहमदपुर में रहते हैं। बचपन में ही पोलियो की वजह दोनों पैर में जान गंवा बैठे सुरेन्द्र कुमार महज प्रायमरी ( पांचवीं ) पास है और अपना जीवन-यापन करने के लिए लोगों के कपड़े सिलते हैं। ऐसे समय जबकि बाजार में पसरे फैशन और अत्याधुनिक मशीनों से तैयार किए जा रहे रेडीमेड कपड़ो ने दर्जियों के सामने भी रोजी-रोटी का बड़ा संघर्ष खड़ा कर दिया है तब यह यह सोचा जा सकता है कि सुरेन्द्र कुमार को अपने जीवन की गाड़ी चलाने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता होगा? यह सोचकर ही रुह कांप जाती एक इंसान व्हील चेयर पर है और उसके पास वह पैर भी नहीं है कि वह पेट भरने के लिए सिलाई मशीन के पहियों को तेजी से घूमा सकें, लेकिन सुरेन्द्र कुमार पैरों का काम अपने हाथों से लेते हैं। वे हर रोज तीन- चार जोड़ी कपड़ों की सिलाई कर लेते हैं। सुरेन्द्र कुमार अपना काम दिल से करते हैं इसलिए यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि वे कपड़े नहीं पेंटिंग बनाते हैं।
मैं यहां उनके बारे में यहां इसलिए लिख रहा क्योंकि उनकी लिखी गजलों की एक किताब- खिड़की पर गुलाब रखता हूं... मेरे हाथ में है। इस किताब को नई दिल्ली के अयन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। किताब में कुल 94 ग़ज़लें हैं और सभी एक से बढ़कर एक। इन ग़ज़लों को पढ़कर दुष्यंत कुमार, अदम गोडवी की याद तो आती है, लेकिन किसी भी बात को कहने का सुरेन्द्र कुमार का अपना एक अलग अंदाज है जो भीतर तक हिला देता है। उनकी ग़ज़लों का स्वर आम-आदमी की पीड़ा को व्यक्त तो करता ही है। यह स्वर हमें यह झूठ-फरेब और चालाक लोगों की दुनिया से भी दो-चार करता है।
मैं पढ़ने- लिखने वाले मित्रों से यह गुजारिश करना चाहूंगा कि वे सुरेन्द्र कुमार को अवश्य पढ़े। उन्हें खोजना न पड़े इसलिए यहां उनका मोबाइल नंबर 8865852322 भी दे रहा हूं। उनकी ग़ज़लों के चंद शेर भी यहां पेश हैं-
बरसों से बन्द पड़ा है मकान चाचा
फसाद में किधर गया रहमान चाचा।
खेलने का था जहां मकान चाचा
उन्होंने बना ली वहां दुकान चाचा।
वो मुझे पहनने की कमीज समझ बैठा
दुकान में रक्खी कोई चीज समझ बैठा
आई तो थी मैं सात फेरे लेकर
वो एक दिन मुझे कनीज समझ बैठा
ऐसी कुछ पश्चिम की हवा चली
डिस्को पर नाचने लगी चंपा कली
गयी पथरा आंख मेरी मां की
इस कदर तहजीब की होली जली
जज ने मुझसे यह बयान लिया है
धोती-कुर्ता क्यों पहन लिया है।
इस तरक्की को पहचान लिया है
मैंने भी शहर में मकान लिया है।
उसने भी जवानी के मुताबिक
रंगीन तस्वीर, खैनी- पान लिया है।
भेद डालूंगा उस बाजार की आंख
जब हाथ में तीर-कमान लिया है।
जब बाबा हुक्का गुड़गुड़ाता था
बेशर्म धुआं मुझ पर आता था।
बेरोजगारी जिंदगी कोठे पर गयी
कोई आता था, कोई जाता था
उसका चेहरा नहीं सुहाता था
जब मैं खाली कनस्तर बजाता था।
कहने को औकात रखता हूं
फटी जेब में हाथ रखता हूं।
आखिर तू पढ़े या न पढ़े
सामने खुली किताब रखता हूं।
तू घर आकर देख लेना
मैं खिड़की पर गुलाब रखता हूं।
हमेशा उलझन मेरी, चूल्हा जलाती है
उस पर तल्ख हकीकत रोटी पकाती है।
बेरोजगार हुई बिटिया की खातिर
वक्त की वालिदा, सीना दिखाती है।
जब जिंदगी की किताब पढ़ने बैठता हूं
वक्त की हवा लालटेन बुझाती है।
दिल की छत पर इधर-उधर भागने वाला
किसी का आशिक है रात भर जागने वाला
दोनों हाथ फैलाए आज खड़ा है क्यों
भेड़-बकरी की तरह हमें हांकने वाला।
जबसे बटन लाल- पीले हो गए
कमीज के काज ढीले हो गए।
जिंदगी की सुई में धागा पिरोते
मेरी आंख के कोर गीले हो गए।
खुद को हथियार होने से बचा लिया
खुद को गुनाहगार होने से बचा लिया।
आंगन की नजरों में गिर जाता मैं
खुद को दीवार होने से बचा लिया।
मूल रूप से हरियाणा के पानीपत जिले के रहने वाले बलबीर
मूल रूप से
तेजिन्दर कहते थे- बचना होना और रचना भी होगा
मशहूर उपन्यासकार, कथाकार और कवि तेजिंदर गगन अब हमारे बीच नहीं है। उनके निधन के बाद जितने लोगों ने भी उन्हें श्रद्धांजलि दी हैं उन सबने यह माना है कि वे एक अच्छे इंसान थे। किसी लेखक का लेखक होने से पहले अच्छा इंसान होना कितना जरूरी है... मैं कल से यही सोच रहा हूं। मुझे यह सोचना भी चाहिए क्योंकि डाक्टर, इंजीनियर, नेता, पत्रकार, चाटुकार से तो हमारी मुलाकात रोज़ होती है। एक इंसान से मिलना थोड़ा कठिन होता है। तेजिंदर जी हमारे बीच थे तो एक भरोसा था कि कभी हम गड़मड़ हुए तो उनसे कोई सलाह ले लेंगे। उनसे पूछ लेंगे कि बताइए... क्या करना चाहिए? यह भरोसा इसलिए भी कायम था क्योंकि वे खुद मजबूत विचारों के साथ थे। जो शख्स मजबूत विचारों के साथ होता है वह अपने साथी को टूटने भी नहीं देता है।
विचारधारा के लिए क्रांति जरूरी है या क्रांति के लिए विचारधारा? यह सवाल सदियों से हम सबको परेशान करता रहा है। तेजिंदर जी इस सवाल का हल जानते थे और बखूबी जानते थे। वे मानते थे कि जो मजबूती के साथ खड़ा रहेगा वह एक न एक दिन क्रांति कर ही लेगा। उनसे जब कभी भी बात होती थीं तो वे देश को हांफने के लिए मजबूर कर देने वाली स्थितियों पर अपनी चिंता अवश्य प्रकट करते थे। उनका कहना था- हमला चौतरफा है। बचने की कोई गुंजाइश दिखाई नहीं देती, लेकिन बचना होगा और रचना भी होगा। मुझे लगता है कि अपने निधन से कुछ पहले वे इसी तरह की जटिल परिस्थितियों से गुजर रहे थे कि खौफनाक - भयावह समय का मुकाबला कैसे और किस तरह से किया जा सकता है?
वे देर रात तक जागते थे और सुबह दस-ग्यारह बजे उनकी नींद खुलती थीं। ऐसे कई मौके आए जब रात को मेरी नींद खुली तो देखा कि वे फेसबुक पर सक्रिय थे। हालांकि मैं स्वयं भी कभी- कभी देर रात तक इधर- उधर की बेमतलब सी सक्रियता का हिस्सा बना रहता हूं लेकिन एक बार सुबह चार बजे जब वे फेसबुक पर नजर आए तो फोन लगाकर पूछ बैठा- क्या भाई साहब... आप भी सुबह जल्दी उठ जाते हैं? उन्होंने कहा- कौन कम्बख्त उठता है। सुबह उठने का काम बाबा रामदेव का है। मैं तो अब सोने जा रहा हूं। हा हा हा।.. .. तो क्या आप पूरी रात जागते रहे ? नहीं....नहीं... ऐसा नहीं कि सोना नहीं चाहता था। सोना चाहता था लेकिन कुछ भक्त लोग फेसबुक पर चले आए थे... उनको जवाब देना भी जरूरी था।
मुझे याद है जब पत्रिका के राज्य संपादक ज्ञानेश उपाध्याय जी ने पत्रिकार्ट कार्यक्रम को प्रारंभ करने के बारे में सोचा तो प्रभाकर चौबे जी को साथ लेकर वे दफ्तर आए थे। कार्यक्रम की पहली कड़ी के बाद कई और मौकों पर भी उन्होंने हमें अपना अमूल्य समय दिया। दफ्तर आकर वे अक्सर कहते- यहां आकर अच्छा लगता है। कोई तो है जो साहित्य/ संस्कृति और कला से जुड़े लोगों की चिंता कर रहा है। एक पाठक की हैसियत से मैं उनके करीब तो था ही, लेकिन लगातार मेल- मुलाकात और बातचीत ने कब उन्हें अपना बड़ा भाई मान लिया यह मैं नहीं जानता। मैं उनसे अपनी बहुत सी बातें शेयर करता था और एक स्थायी समाधान पाकर खुश भी होता था। मेरी दो किताबों के विमोचन अवसर पर वे मौजूद थे। उन्होंने उस रोज जो कुछ बोला वह ऐतिहासिक था। एक लाइन अब भी गूंज रही है- राजकुमार की किताब में वह रायपुर है जिसे मैं ढूंढ रहा था। निजी तौर पर मेरा मानना है कि तेजिंदर गगन छत्तीसगढ़ के एक सांस्कृतिक प्रतिनिधि थे। अव्वल तो वे हर कार्यक्रम में जाते नहीं थे लेकिन जिस कार्यक्रम में भी उनकी उपस्थिति होती वह आयोजन अपने आप महत्वपूर्ण हो जाता था।
एक छोटी सी बात का जिक्र यहां अवश्य करना चाहूंगा। अभी चंद रोज पहले कुछ सेवानिवृत्त सिख अधिकारियों ने एक संगठन बनाया। इस संगठन की गठन प्रक्रिया से कुछ पहले उन्होंने मुझे फोन पर कहा- मैं किसी पत्रकार को नहीं जानता हूं। बस... तुमको प्रेस कॉन्फ्रेंस में आना है। जब मैं निर्धारित समय पर होटल पहुंचा तो वहां पहले से मौजूद सरदारों ने जिस गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया वह अद्भुत था। जब तेजिंदर जी ने बताया कि संगठन क्यों बनाया जा रहा है तो आंखों की कोर में नमी आकर जम गई। उन्होंने कहा- हम सेवानिवृत्त सिख अफसरों ने यह संगठन इसलिए नहीं बनाया कि हमें चुनाव लड़ना है या सरकार को बताना है कि देखो हमारा वोट बैंक कितना मजबूत है। हमने यह संगठन इसलिए बनाया है ताकि शहर और गांव के गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दे सकें। गरीब आदमी को दवाई दे सकें। इस संगठन के अलावा तेजिंदर जी के ऐसे बहुत से मानवीय कामों का उल्लेख मैं यहां कर सकता हूं।
लेकिन इस तरह के उल्लेख से किस लेखक का माथा गर्व से ऊंचा और सीना चौड़ा होगा यह मैं नहीं जानता। अपने आस-पास विशेषकर छत्तीसगढ़ में जितने भी लेखकों को देखता हूं तो उनके भीतर एक दुकानदार को बैठा पाता हूं। ये लेखक उन्हीं जगहों पर जाते हैं जहां सरकार के मंत्री-संत्री रहते हैं। छत्तीसगढ़ के अधिकांश लेखक इस जुगाड़ में रहते हैं कि कैसे कोई पुरस्कार मिल जाए। कैसे मुफ्त की शराब गटकने को मिल जाए। ऐसे लेखक कभी बच्चों का नुक्कड़ नाटक देखने नहीं जाते। ऐसे लेखक कभी किसी मजदूर आंदोलन का हिस्सा नहीं बनते। क्या ऐसे रंडीबाज लेखकों को सही में कोई पढ़ भी रहा है? मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि छत्तीसगढ़ के अधिकांश लेखक ( कुछ पत्रकार भी इसमें शामिल हैं ) न केवल रंडीबाज हैं बल्कि सरकार के दल्ले भी हैं।
अब... मैं एक बार फिर इस बात पर लौटता हूं कि एक लेखक को लेखक होने से पहले एक बेहतर इंसान होना चाहिए या नहीं? मैं तो मानता हूं कि अच्छा लेखक भी वहीं हो सकता है जो बेहतर इंसान है। तेजिंदर जी का पूरा लेखन शोषित-पीड़ित लोगों के पक्ष में खड़ा है। वे बेहतर इंसान थे इसलिए मनुष्यता के साथ रहे और बेहतर लिख पाए। आपको आश्चर्य होगा कि जितना उन्हें पुरानी पीढ़ी पसंद करती हैं उससे कहीं ज्यादा उन्हें नौजवान पसन्द करते थे और मुझे भरोसा है कि सालों- साल आगे भी नई पीढ़ी उन्हें पसन्द करती रहेगी।
- राजकुमार सोनी
जॉन एलिया के मिसरे पर मुशायरा
रायपुर. देश के मशहूर शायर अता रायपुरी फिलहाल रायपुर में रहते हैं. उनके खाते में एक से बढ़कर एक आयोजन करने का रिकार्ड दर्ज है. इसी दिसम्बर महीने की 15 तारीख को एक बार फिर वे एक जबरदस्त आयोजन करने जा रहे हैं.तर्जे सुखन नामक संस्था के बैनर तले होने वाले मुशायरे में छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव, दुर्ग, भिलाई, रायपुर, बिलासपुर, अंबिकापुर सहित अन्य जिलों के 60 से ज्यादा शायर जॉन एलिया के मिसरे पर अपनी शायरी लिखेंगे और पढ़ेंगे. गौरतलब है कि अनवर अशरफी की याद में आयोजित इस हमातरही मुशायरे में हर शायर को जॉन एलिया की शायरी का अलग-अलग मिसरा दिया गया है. यहां यह बताना लाजिमी है कि जॉन एलिया की गिनती दुनिया के बेहद मकबूल शायरों में होती है. हर कोई उनकी शायरी का दीवाना है. उनके मिसरे पर शायरी को सुनना एक नए तरह का अनुभव होगा. यह आयोजन राजधानी रायपुर के जेएन पांडे हाल में होगा.
रेमंड के चेयरमैन पद से गौतम सिंघानिया का इस्तीफा
गौतम सिंघानिया ने रेमंड की सब्सिडियरी कंपनी रेमंड अपैरल के चेयरमैन पद से इस्तीफा दे दिया है. निर्विक सिंह को नॉन एक्जिक्यूटिव चेयरमैन बनाया गया है. हालांकि, गौतम सिंघानियां कंपनी के बोर्ड में शामिल रहेंगे. आपको बता दें कि पिछले महीने रेमंड ग्रुप के संस्थापक विजयपत सिंघानिया और उनके बेटे गौतम सिंघानिया के बीच तनाव को लेकर लगातार कई खबर आई थी. विजयपत सिंघानिया से रेमंड ग्रुप के अवकाशप्राप्त चेयरमैन की उपाधि छीन ली गई थी.
गौतम सिंघानिया ने इस्तीफे के बाद कहा कि मैंने हमेशा कंपनी में अच्छे गवर्नेंस पर विश्वास रखता हूं. मुझे खुशी है कि निर्विक सिंह को रेमंड परिधान लिमिटेड के गैर-कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया गया है और मुझे पूरा विश्वास है कि कंपनी अपने सक्षम नेतृत्व के तहत काफी लाभ उठाएगी. मैं रेमंड परिधान लिमिटेड के नए बोर्ड सदस्यों के रूप में अंशु सरीन और गौतम त्रिवेदी का भी स्वागत करता हूं. निर्विक सिंह 27 साल के है. वह मार्केटिंग और कॉम्यूनिकेशंस इंडस्ट्री में काम कर चुके है. निर्विक फिलहाल ग्रे ग्रुप के चेयरमैन और सीईओ है.उन्होंने लिपटन इंडिया, एक यूनिलीवर कंपनी के साथ अपना करियर शुरू किया और 33 वर्ष की उम्र में ग्रे ग्रुप इंडिया का प्रमुख बन गया.
रेमंड अपैरल फिलहाल पार्क एवेन्यू, कलर प्लस, पार्क्स, रेमंड रेडी टू वीयर जैसे कपड़ों के बड़े ब्रांड को चलाता है.
जीवन जीने की कला है "योग"
"योग स्वयं की स्वयं के माध्यम से स्वयं तक पहुँचने की यात्रा है, गीता "
योग के विषय में कोई भी बात करने से पहले जान लेना आवश्यक है कि इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि आदि काल में इसकी रचना, और वर्तमान समय में इसका ज्ञान एवं इसका प्रसार स्वहित से अधिक सर्व अर्थात सभी के हित को ध्यान में रखकर किया जाता रहा है। अगर हम योग को स्वयं को फिट रखने के लिए करते हैं तो यह बहुत अच्छी बात है लेकिन अगर हम इसे केवल एक प्रकार का व्यायाम मानते हैं तो यह हमारी बहुत बड़ी भूल है। आज जब 21 जून को सम्पूर्ण विश्व में योग दिवस बहुत ही जोर शोर से मनाया जाता है, तो आवश्यक हो जाता है कि हम योग की सीमाओं को कुछ विशेष प्रकार से शरीर को झुकाने और मोड़ने के अंदाज़, यानी कुछ शारीरिक आसनों तक ही समझने की भूल न करें। क्योंकि इस विषय में अगर कोई सबसे महत्वपूर्ण बात हमें पता होनी चाहिए तो वह यह है कि योग मात्र शारीर को स्वस्थ रखने का साधन न होकर इस से कहीं अधिक है।
अब डायबिटीज श्रीमद्भगवदगीता पाठ से ठीक हो सकती है, रिसर्च में दावा
भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के शोधार्थियों की एक टीम जिसमें हैदराबाद के ओसमानिया जनरल हॉस्पीटल के डॉक्टर भी शामिल हैं, ने डायबिटिज को ठीक करने का आध्यात्मिक तरीका खोज निकाला है। इसकी खोज श्रीमद्भगवत गीता से की गई है। शोधार्थियों का कहना है कि भगवत गीता में अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के बीच जो संवाद हुआ है, उसका उपयोग विशेष रूप से पुरानी बीमारियां जैसे डायबिटिज को दूर करने के लिए किया जा सकता है। वे भगवत गीता के उन श्लोकों के बारे में बता रहे हैं, जो जिंदगी की विभिन्न स्थितियों का वर्णन करता है।टाईम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, शोधार्थियों ने कहा कि,”गीता नकारात्मक अवस्था को चिन्हित करता है और भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा इस अवस्था से निपटने के लिए सकारात्मक सलाह दिए गए हैं। अर्जुन उन्हें लागू करते हैं। डायबिटिज भी जीवन शैली की वजह से होने वाली बीमारी है, जो पूरी तरह खाना और व्यायाम जैसी बुनियादी आदतों में बदलाव की वजह से हाेता है। भगवत गीता में बताई गई बातों का उपयोग कर इससे निपटा जा सकता है।”
इंडियन जर्नल ऑफ एंडोक्राइनोलॉजी एंड मेटाबोलिज्म में प्रकाशित रिसर्च को डॉक्टरों व शोधकर्ताओं ने देश के भीतर और बाहर कई अस्पतालों और शोध संस्थानों में अध्ययन कर तैयार किया था। इसमें विदेशी विशेषज्ञ ढाका मेडिकल कॉलेज हॉस्पीटल और मिटफोर्ड अस्पताल, ढाका, बांग्लादेश और आगा खान विश्वविद्यालय अस्पताल, कराची, पाकिस्तान से थे।
शोधकर्ताओं ने कहा कि “भगवद् गीता एक धार्मिक या दार्शनिक पाठ से कहीं अधिक है। इसके 700 से अधिक छंद जीवन के हर पहलू पर प्रकाश डालते हैं। ये व्यक्ति को नाकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर ले जाते हैं। ये श्लोक व्यक्ति के जीवन में पूरी तरह से बदलाव ला सकते हैं। मधुमेह के शिकार व्यक्ति को अपनी कई चीजों में बदलाव करना पड़ता है, जो पहले उन्हें काफी पसंद होता है। गीता के अध्ययन से उन्हें संयम का प्रयोग करने, जीवनशैली बदलने और चिकित्सा सलाह का पालन करने के लिए प्रेरणा मिलती। इसे पढ़कर और उसमें बताई गई बातों को अपने जीवन में लागू कर मरीज डायबिटिज जैसी बीमारियों से निदान पा सकते हैं। साथ ही कई बीमारियों और परेशानी से छुटकारा मिल सकता है।”
जहरीली हवा के असर से बचना है तो खाए ये पांच फूड्स
हाल ही में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओर) का वायु प्रदूषण को लेकर खुलासा चौंकाने वाला है, जिसके अनुसार साल 2016 में एक लाख से भी ज्यादा बच्चों की जहरीली हवा में सांस लेने की वजह से मौत हो गई. पर्यावरण पर काम कर रही कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं भी इससे मिलते-जुलते आंकड़े देती हैं. एयर प्यूरिफायर मास्क लगाना जहां इसका अस्थायी इलाज है, वहीं पर्यावरण की सुरक्षा के लिए कोशिशें इसका स्थायी लेकिन लंबा वक्त मांगने वाला तरीका है. पर्यावरण का ख्याल रखते हुए अपनी सेहत का ध्यान रखना भी मध्यमार्ग हो सकता है. मिसाल के तौर पर कई ऐसी फल-सब्जियां हैं, रोजाना जिन्हें खाना जहरीली हवा के असर से काफी हद तक बचा सकता है.
अलसी के बीज- इसमें फोटोएस्ट्रोजन और ओमेगा-थ्री फैटी एसिड की काफी मात्रा होती है. इनमें एंटीऑक्सिडेंट के गुण होते हैं यानी ये सांस से जुड़ी तकलीफों को दूर करने का काम करते हैं. यहां तक कि अस्थमा जैसे खतरनाक मर्ज में भी इनका सेवन काफी आराम देता है. अलसी को भूनकर और पीसकर उसे सलाद, दाल या स्मूदी में भी लिया जा सकता है.