साहित्य

कोरोना काल में प्रेम कविताएं

 विनोद विट्ठल 

(1)

बताया नहीं जा सकता 

कब हुआ 

कैसे हुआ 

किस छुअन से 

किस सांस से 

प्रेम से 

कितना मिलता-जुलता है यह ! 

 

(2) 

कितने ही लोग हैं 

जो हज़ारों साल से चल रहे हैं क्वॉरंटीन 

 

किसी स्पर्श के इंतज़ार में 

आख़िरी हग और चुम्बन के इंतज़ार में 

बराबर बंटी दुनिया के इंतज़ार में ! 

 

(3)

क्या कहूं इसे 

फ़िल्म की तरह वह लड़की मिली आख़िरी दृश्य में 

कोरोना की तरह 

ज़िंदगी में आई लड़की 

फिर मिली उस दिन 

जिस दिन सबसे ज़्यादा कोरोना के पेशेंट दर्ज हुए थे इस फ़ानी दुनिया में ! 

 

(4)

दो हिस्सों में बांटूंगा  दुनिया 

कोरोना से पहले और बाद की 

कितनी-कितनी चीज़ें आईं 

और फैलती चली गईं 

इसके संक्रमण की तरह :

हिंसा, लालच, घृणा , ईर्ष्या 

लेकिन प्रेम भी तो आया था इसी तरह 

चुपचाप, बेआवाज़ 

और अभी तक दुनिया संक्रमित भी है इससे ! 

(5) 

तज़ुर्बेकार कह रहे हैं -

कई-कई महामारियों और प्रलयों से बचा है मनुष्य 

इस बार भी बचेगा 

कैसे कहूं

ज़िंदा रहने के लिए केवल सांस नहीं साथ भी चाहिए 

उस सांवली लड़की का 

जो धरती पर आई थी कोरोना की ही तरह 

कोरोना से पहले ! 

(6)

छेद के बाहर से देखो 

कोरोना समेत लाखों वायरस कह रहे हैं -

मनुष्य भी एक ख़तरनाक वायरस है ! 

(7)

भीतर रहना बचाव है ,

अपनी स्कैच-बुक में 

सितार का स्कैच बनाता लड़का 

बरसों से जानता है ! 

(8)

सब-कुछ साफ़ हो जाए 

सारा कुछ निर्मल 

धरती न जाने कब से चाह रही है 

वायरसों से मुक्ति ! 

(9)

वेंटीलेटर और दवाइयां ही नहीं 

दिल भी बाँटो दुनिया में;

कहता जा रहा है कोरोना 

जिसे कोई नहीं सुन रहा है ! 

(10)

तीस साल पहले 

मैंने लगा दिया था मास्क कि न लूं कोई ख़ुशबू तुम्हारे सिवा 

न मिलाऊं किसी से हाथ तुम्हारे बाद 

भीतर रहते 

इतना सन्यस्त हो गया हूं  मैं 

कि दुनिया को देखे बिना जी रहा हूं.

इतने लम्बे क्वॉरंटीन के बाद भी 

नहीं मर रहा है ढाई अक्षर का वायरस ! 

 

 

 

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देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता!

यदि तुम्हारे घर के

 

एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।

देश काग़ज़ पर बना नक़्शा नहीं होता

कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाक़ी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नहीं है

न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक 

खड़ा हो लाशों को टेक

वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।

 

याद रखो 

एक बच्चे की हत्या

एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

 

ऐसा ख़ून बहकर
धरती में जज़्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फ़ौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे ख़ून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

आख़िरी बात

बिल्कुल साफ़
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ़
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।

- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 

 

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टार्च बेचने वाला !

- हरिशंकर परसाई

वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था । बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा । कल फिर दिखा । मगर इस बार उसने दाढी बढा ली थी और लंबा कुरता पहन रखा था ।

मैंने पूछा, ” कहाँ रहे? और यह दाढी क्यों बढा रखी है? ”
उसने जवाब दिया, ” बाहर गया था । ”

दाढीवाले सवाल का उसने जवाब यह दिया कि दाढी पर हाथ फेरने लगा । मैंने कहा, ” आज तुम टार्च नहीं बेच रहे हो? ”
उसने कहा, ” वह काम बंद कर दिया । अब तो आत्मा के भीतर टार्च जल उठा है । ये ‘ सूरजछाप ‘ टार्च अब व्यर्थ मालूम होते हैं । ”

मैंने कहा, ” तुम शायद संन्यास ले रहे हो । जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है । किससे दीक्षा ले आए? ”

मेरी बात से उसे पीडा हुई । उसने कहा, ” ऐसे कठोर वचन मत बोलिए । आत्मा सबकी एक है । मेरी आत्मा को चोट पहुँचाकर आप अपनी ही आत्मा को घायल कर रहे हैं । ”

मैंने कहा, ” यह सब तो ठीक है । मगर यह बताओ कि तुम एकाएक ऐसे कैसे हो गए? क्या बीवी ने तुम्हें त्याग दिया? क्या उधार मिलना बंद हो गया? क्या
हूकारों ने ज्यादा तंग करना शुरू कर दिया? क्या चोरी के मामले में फँस गए हो? आखिर बाहर का टार्च भीतर आत्मा में कैसे घुस गया? ”

उसने कहा, ” आपके सब अंदाज गलत हैं । ऐसा कुछ नहीं हुआ । एक घटना हो गई है, जिसने जीवन बदल दिया । उसे मैं गुप्त रखना चाहता हूँ । पर क्योंकि मैं आज ही यहाँ से दूर जा रहा हूँ, इसलिए आपको सारा किस्सा सुना देता हूँ । ” उसने बयान शुरू किया पाँच साल पहले की बात है । मैं अपने एक दोस्त के साथ हताश एक जगह बैठा था । हमारे सामने आसमान को छूता हुआ एक सवाल खड़ा था । वह सवाल था – ‘ पैसा कैसे पैदा करें?’ हम दोनों ने उस सवाल की एक-एक टाँग पकड़ी और उसे हटाने की कोशिश करने लगे । हमें पसीना आ गया, पर सवाल हिला भी नहीं । दोस्त ने कहा – ” यार, इस सवाल के पाँव जमीन में गहरे गड़े हैं । यह उखडेगा नहीं । इसे टाल जाएँ । ”
हमने दूसरी तरफ मुँह कर लिया । पर वह सवाल फिर हमारे सामने आकर खडा हो गया । तब मैंने कहा – ” यार, यह सवाल टलेगा नहीं । चलो, इसे हल ही कर दें । पैसा पैदा करने के लिए कुछ काम- धंधा करें । हम इसी वक्त अलग- अलग दिशाओं में अपनी- अपनी किस्मत आजमाने निकल पड़े । पाँच साल बाद ठीक इसी तारीख को इसी वक्त हम यहाँ मिलें । ”

दोस्त ने कहा – ” यार, साथ ही क्यों न चलें? ”
मैंने कहा – ” नहीं । किस्मत आजमानेवालों की जितनी पुरानी कथाएँ मैंने पढ़ी हैं, सबमें वे अलग अलग दिशा में जाते हैं । साथ जाने में किस्मतों के टकराकर टूटने का डर रहता है । ”

तो साहब, हम अलग-अलग चल पडे । मैंने टार्च बेचने का धंधा शुरू कर दिया । चौराहे पर या मैदान में लोगों को इकु कर लेता और बहुत नाटकीय ढंग से कहता – ” आजकल सब जगह अँधेरा छाया रहता है । रातें बेहद काली होती हैं। अपना ही हाथ नहीं सूझता । आदमी को रास्ता नहीं दिखता । वह भटक जाता है । उसके पाँव काँटों से बिंध जाते हैं, वह गिरता है और उसके घुटने लहूलुहान हो जाते हैं। उसके आसपास भयानक अँधेराहै । शेर और चीते चारों तरफ धूम रहे हैं, साँप जमीन पर रेंग रहे हैं । अँधेरा सबको निगल रहा है । अँधेरा घर में भी है । आदमी रात को पेशाब करने उठता है और साँप पर उसका पाँव पड़ जाता है । साँप उसे डँस लेता है और वह मर जाता है। ” आपने तो देखा ही है साहब, कि लोग मेरी बातें सुनकर कैसे डर जाते थे । भरदोपहर में वे अँधेरे के डर से काँपने लगते थे । आदमी को डराना कितना आसान है!
लोग डर जाते, तब मैं कहता – ” भाइयों, यह सही है कि अँधेरा है, मगर प्रकाश भी है । वही प्रकाश मैं आपको देने आया हूँ । हमारी ‘ सूरज छाप ‘ टार्च में वह प्रकाश है, जो अंधकार को दूर भगा देता है । इसी वक्त ‘ सूरज छाप ‘ टार्च खरीदो और अँधेरे को दूर करो । जिन भाइयों को चाहिए, हाथ ऊँचा करें । ”

साहब, मेरे टार्च बिक जाते और मैं मजे में जिंदगी गुजरने लगा ।

वायदे के मुताबिक ठीक पाँच साल बाद मैं उस जगह पहुँचा, जहाँ मुझे दोस्त से मिलना था । वहाँ दिन भर मैंने उसकी राह देखी, वह नहीं आया । क्या हुआ? क्या वह भूल गया? या अब वह इस असार संसार में ही नहीं है?मैं उसे ढूंढ़ने निकल पडा ।

एक शाम जब मैं एक शहर की सडक पर चला जा रहा था, मैंने देखा कि पास के मैदान में खुब रोशनी है और एक तरफ मंच सजा है । लाउडस्पीकर लगे हैं । मैदान में हजारों नर-नारी श्रद्धा से झुके बैठे हैं । मंच पर सुंदर रेशमी वस्त्रों से सजे एक भव्य पुरुष बैठे हैं । वे खुब पुष्ट हैं, सँवारी हुई लंबी दाढी है और पीठ पर लहराते लंबे केश हैं ।
मैं भीड के एक कोने में जाकर बैठ गया ।

भव्य पुरुष फिल्मों के संत लग रहे थे । उन्होंने गुरुगभीर वाणी में प्रवचन शुरू किया । वे इस तरह बोल रहे थे जैसे आकाश के किसी कोने से कोई रहस्यमय संदेश उनके कान में सुनाई पड़ रहा है जिसे वे भाषण दे रहे हैं ।

वे कह रहे थे – ” मैं आज मनुष्य को एक घने अंधकार में देख रहा हूँ । उसके भीतर कुछ बुझ गया है । यह युग ही अंधकारमय है । यह सर्वग्राही अंधकार संपूर्ण विश्व को अपने उदर में छिपाए है । आज मनुष्य इस अंधकार से घबरा उठा है । वहपथभ्रष्ट हो गया है । आज आत्मा में भी अंधकार है । अंतर की आँखें ज्योतिहीन हो गई हैं । वे उसे भेद नहीं पातीं । मानव- आत्मा अंधकार में घुटती है । मैं देख रहा हूँ, मनुष्य की आत्मा भय और पीड़ा से त्रस्त है । ”
इसी तरह वे बोलते गए और लोग स्तव्य सुनते गए ।

मुझे हँसी छूट रही थी । एकदो बार दबातेदबाते भी हँसी फूट गई और पास के श्रोताओं ने मुझे डाँटा ।

भव्य पुरुष प्रवचन के अंत पर पहुँचते हुए कहने लगे – ” भाइयों और बहनों, डरो मत । जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है । अंधकार में प्रकाश की किरण है, जैसे प्रकाश में अंधकार की किंचित कालिमा है । प्रकाश भी है । प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो । अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ । मैं तुम सबका उस ज्योति को जगाने के लिए आहान करता हूँ । मैं तुम्हारे भीतर वही शाश्वत ज्योति को जगाना चाहता हूँ । हमारे ‘ साधना मंदिर ‘ में आकर उस ज्योति को अपने भीतर जगाओ । ” साहब, अब तो मैं खिलखिलाकर हँस पडा । पास के लोगों ने मुझे धक्का देकर भगा दिया । मैं मंच के पास जाकर खडा हो गया ।

भव्य पुरुष मंच से उतरकर कार पर चढ रहे थे । मैंने उन्हें ध्यान से पास से देखा । उनकी दाढी बढी हुई थी, इसलिए मैं थोडा झिझका । पर मेरी तो दाढी नहीं थी । मैं तो उसी मौलिक रूप में था । उन्होंने मुझे पहचान लिया । बोले – ” अरे तुम! ” मैं पहचानकर बोलने ही वाला था कि उन्होंने मुझे हाथ पकड़कर कार में बिठा लिया । मैं फिर कुछ बोलने लगा तो उन्होंने कहा – ” बँगले तक कोई बातचीत नहीं होगी । वहीं ज्ञानचर्चा होगी । ”
मुझे याद आ गया कि वहाँ ड्राइवर है ।

बँगले पर पहुँचकर मैंने उसका ठाठ देखा । उस वैभव को देखकर मैं थोडा झिझका, पर तुरंत ही मैंने अपने उस दोस्त से खुलकर बातें शुरू कर दीं ।
मैंने कहा – ” यार, तू तो बिलकुल बदल गया । ”

उसने गंभीरता से कहा – ” परिवर्तन जीवन का अनंत क्रम है । ”
मैंने कहा – ” साले, फिलासफी मत बघार यह बता कि तूने इतनी दौलत कैसे कमा ली पाँच सालों में? ”
उसने पूछा – ” तुम इन सालों में क्या करते रहे? ”
मैंने कहा ” मैं तो धूममूमकर टार्च बेचता रहा । सच बता, क्या तू भी टार्च का व्यापारी है? ”
उसने कहा – ” तुझे क्या ऐसा ही लगता है? क्यों लगता है? ”

मैंने उसे बताया कि जो बातें मैं कहता हूँ; वही तू कह रहा था मैं सीधे ढंग से कहता हूँ, तू उन्हीं बातों को रहस्यमय ढंग से कहता है । अँधेरे का डर दिखाकर लोगों को टार्च बेचता हूँ । तू भी अभी लोगों को अँधेरे का डर दिखा रहा था, तू भी जरूर टार्च बेचता है ।

उसने कहा – ” तुम मुझे नहीं जानते, मैं टार्च क्यों बेचूगा! मैं साधु, दार्शनिक और संत कहलाता हूँ । ”

मैंने कहा ” तुम कुछ भी कहलाओ, बेचते तुम टार्च हो । तुम्हारे और मेरे प्रवचन एक जैसे हैं । चाहे कोई दार्शनिक बने, संत बने या साधु बने, अगर वह लोगों को अँधेरे का डर दिखाता है, तो जरूर अपनी कंपनी का टार्च बेचना चाहता है । तुम जैसे लोगों के लिए हमेशा ही अंधकार छाया रहता है । बताओ, तुम्हारे जैसे किसी आदमी ने हजारों में कभी भी यह कहा है कि आज दुनिया में प्रकाश फैला है? कभी नहीं कहा । क्यों? इसलिए कि उन्हें अपनी कंपनी का टार्च बेचना है । मैं खुद भरदोपहर में लोगों से कहता हूँ कि अंधकार छाया है । बता किस कंपनी का टार्च बेचता है? ”

मेरी बातों ने उसे ठिकाने पर ला दिया था । उसने सहज ढंग से कहा – ” तेरी बात ठीक ही है । मेरी कंपनी नयी नहीं है, सनातन है । ”
मैंने पूछा – ” कहाँ है तेरी दुकान? नमूने के लिए एकाध टार्च तो दिखा । ‘ सूरज छाप ‘ टार्च से बहुत ज्यादा बिक्री है उसकी ।

उसने कहा – ” उस टार्च की कोई दुकान बाजार में नहीं है । वह बहुत सूक्ष्म है । मगर कीमत उसकी बहुत मिल जाती है । तू एक-दो दिन रह, तो मैं तुझे सब समझा देता हूँ । ”
” तो साहब मैं दो दिन उसके पास रहा । तीसरे दिन ‘ सूरज छाप ‘ टार्च की पेटी को नदी में फेंककर नया काम शुरू कर दिया । ”
वह अपनी दाढी पर हाथ फेरने लगा । बोला – ” बस, एक महीने की देर और है। ” मैंने पूछा -‘ तो अब कौन-सा धंधा करोगे? ”
उसने कहा – ” धंधा वही करूँगा, यानी टार्च बेचूँगा । बस कंपनी बदल रहा हूँ । ”

 

 

 

 

 

 

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योगिनी राउल की कविता- जमूरे

जमूरे..

जमूरे खाना खायेगा?

खायेगा

कब खायेगा?

दो दिन के बाद कोई खिलायेगा तो खायेगा !

जमूरे दवा पियेगा?

पियेगा

कब पियेगा?

लाइन में नंबर आयेगा, तब पियेगा !

 

जमूरे आज पानी पिया?

पियेगा

कब पियेगा?

रात को टंकर आयेगा, 

भर के पानी लायेगा,

टंकी में डालेगा,

घर का बाल्टी भरेगा,

बूढ़े को पिलायेगा

बच्चे को पिलायेगा...

तब मैं पानी पियेगा !

बहोत खूब जमूरे !

 

जमूरे

तेरा पेट दिखा...

देख लो !

अरेरे... खाली है !

भरेगा, आज नहीं तो कल !

बहोत खूब जमुरे !

 

अब सीना दिखा....

देख लो

फूला के दिखा...

देख लो

और फूलाओ

ये लो

लंबी सांस ले कर फूला...

प्राणायाम कर के फूला...

अब देखो, जमूरे का सीना !

छप्पन इंच से थोडा कम.

जमूरे पेट भूल जा,

सीना तान के चल !

बहोत खूब जमूरे !

 

जमूरे नया खेल खेलेगा?

खेलेगा !

पुलिस को फंसायेगा?

फंसायेगा !

हकीम को मारेगा?

मारेगा !

दुश्मन को गाली देगा?

जोर से देगा !

सीना तान के गाली देगा?

सीना तान के देगा !

 

चल जमूरे

बजा ताली, दे दे गाली

बजा ढोलक, बजा थाली....

बजाव घंटा, दिखाव ठेंगा !

सब बजायेगा, ढोल पिटेगा!

बहोत खूब !

 

जमूरे... दीया जलायेगा?

जलायेगा !

कहां जलायेगा?

घर में जलायेगा !

अरे अकल के कच्चे...

घर में नहीं,

फिर???

घर को बंद कर के 

और कहां जलायेगा?

सब के मुंह पे जलायेगा

सब का मुंह लाल करेगा

जग में मुंह काला करेगा !

 

शाबाश जमूरे...

तू ही मेरा असली पंटर है....

मैं नचावू

तू नाचेगा?

 

नाचेगा... अभी नाचेगा !

इतवार को नाचेगा

सोमवार को नाचेगा !

नंगा नाचेगा, चंगा नाचेगा !

जमूरा तो रोज नाचेगा !

 

- योगिनी राउल

 

 

 

 

 

 

 

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हे राम ! और दूसरा बनवास

हे राम !

हे राम,

जीवन एक कटु यथार्थ है

और तुम एक महाकाव्य !
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर - लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है।

इससे बड़ा क्या हो सकता है

हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !

हे राम, कहां यह समय

कहां  तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहां यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण - किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक...
अबके जंगल वो जंगल नहीं

 जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक ! 

- कुंवरनारायण

 

दूसरा बनवास

बनवास से जब लौटकर घर में आये

याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये

धर्म क्या उनका है, क्या जात है ये जानता कौन
घर ना जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे ख़ंजर
तुमने बाबर की तरफ़ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की ख़ता, ज़ख़्म जो सर में आये

पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहां ख़ून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फज़ा आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे

- कैफी आजमी 

 

 

 

 

 

 

 

 

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नरेश सक्सेना की कविता- भूख

भूख

भूख सबसे पहले दिमाग़ खाती है
उसके बाद आँखें
फिर जिस्म में बाक़ी बची चीज़ों को

छोड़ती कुछ भी नहीं है भूख
वह रिश्तों को खाती है
माँ का हो बहन या बच्चों का

बच्चे तो उसे बेहद पसन्द हैं
जिन्हें वह सबसे पहले
और बड़ी तेज़ी से खाती है

बच्चों के बाद फिर बचता ही क्या है?

 
नरेश सक्सेना
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भात दे हरामजादे

बांग्ला देश के कवि रफीक आजाद ने यह कविता तब लिखी थीं जब अकाल पड़ा था. इस कविता को लेकर कई नाटक खेले गए हैं. जब-जब यहां-वहां किसी भी देश में कोई गरीब भूख का शिकार होता है तब-तब यह कविता सड़ी-गली व्यवस्था का सीना चीरने के लिए बाहर आ जाती है. फिलहाल सोशल मीडिया में लोग इस कविता को खूब वायरल कर रहे हैं. अपनी सुविधाओं की रजाई को महत्वपूर्ण मानने वाले लोग कृपया इस कविता को न पढ़े.

 

बेहद भूखा हूं

पेट में , शरीर की पूरी परिधि में

महसूसता हूं हर पल ,सब कुछ निगल जाने वाली एक भूख .

बिना बरसात के ज्यों चैत की फसलों वाली खेतों में

जल उठती है भयानक आग

ठीक वैसी ही आग से जलता है पूरा शरीर .

महज दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिले , बस और कोई मांग नहीं है मेरी .

लोग तो न जाने क्या क्या मांग लेते हैं . वैसे सभी मांगते है

मकान गाड़ी , रूपए पैसे , कुछेक में प्रसिद्धि का लोभ भी है.

पर मेरी तो बस एक छोटी सी मांग है , भूख से जला जाता है पेट का प्रांतर

भात चाहिए , यह मेरी सीधी सरल सी मांग है , ठंडा हो या गरम

महीन हो या खासा मोटा या राशन में मिलने वाले लाल चावल का बना भात ,

कोई शिकायत नहीं होगी मुझे ,एक मिटटी का सकोरा भरा भात चाहिए मुझे .

 

दो वक़्त दो मुट्ठी भात मिल जाय तो मैं अपनी समस्त मांगों से मुंह फ़ेर लूंगा.

अकारण मुझे किसी चीज़ का लालच नहीं है, यहां तक की यौन क्षुधा भी नहीं है मुझ में

मैं तो नहीं चाहता नाभि के नीचे साड़ी बाधने वाली साड़ी की मालकिन को

उसे जो चाहते है ले जाएं. जिसे मर्ज़ी उसे दे दो .

ये जान लो कि मुझे इन सब की कोई जरुरत नहीं

पर अगर पूरी न कर सको मेरी इत्ती सी मांग

तुम्हारे पूरे मुल्क में बवाल मच जाएगा.

भूखे के पास नहीं होता है कुछ भला बुरा कायदा कानून

सामने जो कुछ मिलेगा खा जाऊंगा बिना किसी रोक-टोक के

बचेगा कुछ भी नहीं , सब कुछ स्वाहा हो जायेगा निवालों के साथ

और मान लो गर पड़ जाओ तुम मेरे सामने

राक्षसी भूख के लिए परम स्वादिष्ट भोज्य बन जाओगे तुम .

सब कुछ निगल लेने वाली महज़ भात की भूख

खतरनाक नतीजों को साथ लेकर आने को न्योतती है

दृश्य से द्रष्टा तक की प्रवहमानता को चट कर जाती है .

और अंत में सिलसिलेवार मैं खाऊंगा पेड़ पौधें , नदी नालें

गांव-देहात , फुटपाथ, गंदे नाली का बहाव

सड़क पर चलते राहगीरों , नितम्बिनी नारियों

झंडा ऊंचा किए खाद्य मंत्री और मंत्री की गाड़ी

आज मेरी भूख के सामने कुछ भी न खाने लायक नहीं

भात दे हरामजादे... वर्ना मैं चबा जाऊंगा समूचा मानचित्र

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आलोक वर्मा की कविता- चले- चलो...

चले- चलो

चले-चलो
चले-चलो
पच्चास मील चलो
सौ मील चलो
दो सौ मील चलो
पांच सौ मील चलो
अंतहीन चलो
चले-चलो...

चले-चलो
भूखे पेट चलो
पानी पीकर चलो
बिन पानी प्यासे चलो
धूल पीकर चलो
चले-चलो... चले-चलो.....

थक जाओ तो चलो
सड़कों पर तपती दुपहरी
थोड़ा सुस्ताकर चलो
नींद में उनींदे चलो
सिर चकराए तो चलो
गिर जाओ तो उठकर चलो
खांसी-बुखार में चलो
चले-चलो...चले-चलो.....

बोझे उठाकर चलो
रोते बच्चों के साथ चलो
गुजर जाए अपना बीच राह
तो छोड़कर रोते हुए चलो
चले चलो... चले चलो.....

चले चलो कि अभी
प्रधानजी ने चलवाया है
चले-चलो कि नगरों में नहीं है
तुम्हारे लिए कोई जगह
चले-चलो कि ये जमीं
तुम्हारी नहीं है.

ये आसमा भी तुम्हारा नहीं है
नहीं हैं यहां तुम्हारे कोई सपने न अपने
तो यहां उदास होकर भी रोते चलो
जी जरा सम्भालकर चलो
चले-चलो...चले-चलो.....

चले-चलो कि
अब भी तुम्हारे हैं दोनों पांव
दोनों हाथ भी तुम्हारे हैं
खोदना है इन्ही हाथों से कुआं और
पाना है मीठा पानी
उगानी हैं हरी सब्जियां और अन्न
फिर उठाकर इन्ही हाथों को
मांगने हैं इसी दुनिया मे                  
न मिले सवालों के जवाब
अभी फिलहाल बस चले-चलो
कि मंजिल अभी बहुत दूर है         
मेरे अपनो मेरे लोगों
चले-चलो... चले-चलो....

संपर्क- 98266 74614

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रात आठ वाला मूरख

पूरी दुनिया जब कोरोना का टेस्ट कर रही थी तब हिंदू राष्ट्र में मजदूरों का सामूहिक सैनिटाइजर स्नान करवाया जा रहा था. आदमी आदमी नहीं रहा चूहा बिल्ली बना दिया गया था कि डीडीटी का छिडकाव कर दो तब घर में आ पाएंगे.

जो लोग शुद्धता के इस स्नान से बच पाए उनके माथे पर लिख दिया गया कि मैंने लॉकडाउन तोड़ा है. माथे पर ये तमगा लेकर जब मज़दूर घर को लौटे तो उन्हें डियर लीडर के मन की बात सुननी पड़ी ताकि शुद्धिकरण पूरा हो सके. अमिताभ बच्चन के हाथ पर जब किसी ने लिख दिया था कि मेरा बाप चोर है तो अमिताभ बच्चन ने सोने के बिस्कुटों की तस्करी थी. जिनके माथे पर कोरोना लिखा गया वो बंबई दिल्ली से तस्करी कर के पोटलियों में आटा चावल ला रहे थे जो सैनिटाइजर में भीग कर खाने लायक नहीं रहा था.

ये सब हमारे और हम सब के प्रिय द ग्रेट लीडर के नेतृत्व में ही संभव था.

यूं तो उनके नेतृ्त्व में क्या क्या कमाल नहीं हुए और हम अगर जी गए तो आगे भी देखते ही रहेंगे. मसलन महान पार्टी के एक छुठभैये से सांसद ने कहा कि जो लॉकडाउन को न माने उसे गोली मार दी जाए. मेरा मानना है कि इस नेता को भारत रत्न दिया जाना चाहिए.

उधर गुजरात के नवादा में फंसे कुछ मजदूरों ने एसपी को फोन कर के गालियां दी ताकि वो जेल भेजे जाएं तो वहां खाना पानी मिल सके.आवश्यकता को आविष्कार की जननी ऐसे ही नहीं कहा गया है शास्त्रों में.

शास्त्रों से याद आया कि ब्राम्हणों ने घोषणा की है कि छूआछूत को पुनश्च लागू किया जाए क्योंकि कोरोना के खिलाफ एकमात्र रामबाण दवा हिंदू बामनों को ही पता थी वो भी तीन हजार साल पहले और इसी क्रम में छूआछूत की परंपरा शुरू हुई थी.

इस तरह से लॉकडाउन के तीसरे या चौथे दिन जब लाखों लोग पलायन करने लगे तो उनसे पूछा गया कि तुम सब लोग ऐसे क्यों जा रहे हो तो एक बुद्धिमान मजदूर ने बताया कि चूंकि अब तो रामायण में राम भी सीता को लेकर जंगल जाने ही वाले होंगे तो हम लोगों ने भी सोचा कि जंगल में भगवान राम से मिलने के लिए हम लोग थोड़ा पहले ही अपने घरों से निकल जाएं.

इस बीच भगवान राम टीवी पर अपने महल से निकले औऱ रास्ते में एक योगी महाराज ने उन्हें मंदिर में बिठा दिया और कहा कि अब यही आपका घर है जहां भव्य मंदिर बनेगा. राम कहते रह गए कि सीरियल आगे बढ़ना है लेकिन योगी महाराज माने नहीं.

आगे रामायण में क्या हुआ ये मुझे पता नहीं क्योंकि पता चला है कि दिल्ली की सड़कों पर मनुष्यों को नदारद पाकर सारी वानर सेना लंका से लौट कर दिल्ली के मंत्रालयों पर कब्जा कर चुकी है. वानरों ने शासन अपने हाथ में ले लिया है. उनकी टेबलों पर पेन और पैड देखे जा सकते हैं जहां वो एक डायनासोर से निर्देश प्राप्त कर रहे हैं.

निर्देश मिलने के बाद उन्होंने विभिन्न माध्यमों पर सबसे पहला काम दिल्ली की सरकार को गरियाने का किया जो लाजिमी था. इन गालियों के जवाब में केजरीवाल ने गीता पाठ करने की सलाह दी और कहा कि वो खुद भी यही कर रहे हैं.

गीता से याद आया कि गीता में लिखा हुआ है कि कर्म करते रहो फल की चिंता मत करो. इसलिए मैंने इसे मानते हुए लिखने का अपना कर्म किया. अब इस पर गाली आएगी तो मैं उसकी चिंता नहीं करूंगा. उन्हें बिना पढ़े डिलीट करूंगा.

Jey Sushil की वाल से...

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हरिओम राजोरिया की तीन कविता- आठ बजे, लाठी और अपरिचय

हरिओम राजोरिया

 

।। आठ बजे ।।

आठ बजने का मतलब क्या है

रोज ही बजते हैं आठ

अभी रात के तीन बजे है 

अभी सुबह के आठ बज जाएंगे.

 

एक रोग के वायरस की पूर्व पीठिका को 

प्रतीदिन आठ बजे याद कीजिये

ठीक से सावधानियों का पालन कीजिये

माननीय को पूरी गम्भीरता से लीजिये

आठ बजे का इंतजार कीजिये 

और

धीरे से आठ को बज ही जाने दीजिये

 

नींद न आये तो आठ बजे से ही

नींद का इंतजार कीजिये

रात के आठ और दिन के आठ का

फर्क करना भूल जाइये

कांख में दबीं घोषणाओं का 

आदर कीजिये तनिक सम्मान दीजिये

आठ बजे की स्मृति में कोई गीत लिखिए

आठ को आठ की तरह देखने का

प्रतिदिन सघन अभ्यास कीजिये

 

चाहो तो आप भी अपने

मन की बात मन में कर सकते हो

आठ बजे अपना पक्ष रखिये

सुबह आठ तक कल्पनाओं के पंख फैलाइये

सिर दर्द को मत रोइये

लाल-लाल आंखों को पानी से धोइये

रात आठ से सोचना शुरू कीजिये

सुबह आठ तक सो जाइये

बाकी अपना ध्यान रखिये

 

मेहनत-मजूरी करने वाले लाखों लोग 

अभी रास्ते में हैं 

उन्हें रास्ते में ही रहने दीजिये

शुक्र मनाइये ऊपर वाले का 

आप रास्ते में नहीं  घर में हैं

आपके पैरों में छाले नहीं 

न पिंडलियों पर पुलिस की लाठियों के नील 

इतने छोटे जीवन में सुबह आठ बजे

आप अपने हाथ की बनी चाय पी रहे हैं

आपके सामने न पहाड़ सा रास्ता है

न ही पहाड़ सा इंतजार

चैन से आठ को बज ही जाने दीजिये

 

सुबह आठ के बाद अब 

रात के आठ की तो बात ही मत कीजिये ।

 

 

 

।। लाठी ।।

 

लाठियां बजाने पर भी 

कविता होनी चाहिए

कहाँ-कहाँ बजी लाठी

किस-किस पर बजी 

देश भर में बजी 

गरीब-गुरबों पर बजती आई है

गरीब -गुरबों पर ही बजी 

 

दौड़ा-दौड़ा कर बजी

मुर्गा बनाकर बजी

जमीन पर लिटाकर बजी

देखने वाले तक की रूह कांप गई

ऐसी जबर लहरा के बजी

 

पीटने वाले को सम्मान मिला

पिटने वाले को बदले में ज्ञान मिला

धीरे-धीरे हुआ इस परंपरा का विकास 

देश भर में हुआ लाठी का प्रकाश 

विश्वविद्यलय लाठियो पर जाकर टंग गए

रोग से लड़ रहे नागरिकों के

रास्ते में आ गईं लाठियां

निर्दोष नागरिकों की पीठ पर जब बरसीं 

तो इतिहास बन गईं लाठिया

 

नागरिक समाज लाठियों के नीचे दबा था

लठ्ठम लट्ठ का हुआ नाच 

लाठियां स्वर लहरियों पर थिरकीं

कला - संस्कृति के रास्तों पर 

लगा दिया गया लाठियों का पहरा 

पिटाई की प्रस्तुतियों का हुआ भव्य आयोजन 

हास्य अभिनेताओं की भी विषयवस्तु बनीं लाठियां

 

देश भर में हुआ लाठी युग का आगाज

नागरिक होने का जमकर हुआ उपहास

चालाकी से लाठी को मिला सम्मान

सत्ता की मक्कारी का 

लाठी ही थी एक बड़ा प्रमाण 

साधारण घरों के लोग थे पीटने वाले

साधारण घरों के नागरिक थे पिटने वाले

 

लाठियों की मार ने रच दिया इतिहास 

लाठियों की कलंक कथाओं पर

मीडिया हाऊसों का रहा बायकाट

सरकार में कुछ लोग बोले कि

जरूरी हो जाता है ऐसा करना

मजबूर और परेशान लोगों को पीटकर ही

व्यावस्था बनाई जाती है

जो कुछ भी हुआ देशहित में हुआ

 

देशहित में देश के पक्ष में

इस नए लाठी युग का स्वागत है ।

 

 

।। अपरिचय ।।

 

सुबह रास्ते में कुछ स्त्रियों को देखा

छोटे-छोटे झुंडों में 

होने को सब अलग-अलग 

पर एक ही तरह से

एक ही रास्ते पर

एक ही काम को जातीं 

हाथ में पुराने कपड़ों के सिले

एक जैसे झोले कांख में दबाये

 

अज्ञात भय लिए सड़क पर मैं भी

और वे भय रहित

महामारी वाले वायरस से परे

जिससे भयभीत दिग-दिगन्त

दूर घर में बैठे परिजनों से आंख बचा

टेबुल पर फेंक आया चलित फोन

निकल आया सड़क पर

जो माने जैसा मानने को स्वतंत्र

भला कोई कब तक

बन्द रह सकता दीवारों से घिरा

 

उनके चेहरों पर नहीं उदासी का भाव

न थकन आंखों में

श्रम करने को तैयार 

काम की हुक और हुलस भीतर

पहिये भले ही रुक गए हों देश में

पर चल रहे इन स्त्रियों के पाँव

 

किसी के पास नही जा सकता 

रोककर पूछ नहीं सकता कुछ बात

मज़दूर स्त्रियों के सापेक्ष

सड़क पर खड़े बिजली के खंभे के 

होने की तरह ही मेरा होना 

अपने इस तरह होने से एकबारगी

कोई भी हो सकता भयभीत

कि आपका होना भी उसी तरह 

जैसे अकेली एक सड़क 

बबूल का एक पेड़ 

आराम पसंद काम करने वालों और 

कठोर श्रम के बीच 

अपरिचय की इतनी बड़ी दीवार

 

डर था मेरे भीतर

और सुबह का सूरज निकल रहा था

चलता चला जाता आगे और आगे

छोटे छोटे झुंडों में मिलते जाते 

स्त्रियों के और नए समूह

अलग-अलग दबे रंगों के झोलों के साथ

एक स्त्री झोले के साथ

हाथ में टूटी चप्पल लिए चल रही 

 

खेतों में खड़ी फसलों के स्वभाव

खेत , हँसिया , गेहूं की सूखी बाल

और इन स्त्रियों के बारे मे

कितना कम जानता 

जबकि अज्ञात वायरस के बारे में 

कितना कुछ जान गया हूँ 

जिसका भय लिए चल रहा रास्ते पर

इस समय क्या बात कर रही होंगी 

दुनिया रुक सी गई है

पर ये कहां जा रही हैं रोटी बांधकर

 

चैत काटने निकली इन स्त्रियों से

कितना कम परिचय एक कवि का

कैसे झिझकते हुए कविता में प्रवेश

इन स्त्रियों के बारे में 

दुख-दुख जीवन का 

कितना कम ज्ञान 

इनके लिए कितने कम शब्द

एक कवि के शब्दकोश में

 

कहने को कहता रहता हूँ

कि कितना प्यार हमे वतन से

पर कितना कम जानते हम वतन को

और वतन में रहने वाले बहुसंख्यक

श्रमशील स्त्री समाज को.

 

संपर्क- 94251 34462

 

 

 

 

 

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कुमार विकल की कविता-पहचान

यह जो सड़क पर खून बह रहा है

इसे सूंघकर तो देखो
और पहचानने की कोशिश करो
यह हिंदू का है या मुसलमान का
किसी सिख का या ईसाई का

किसी बहन का है या भाई का.

सडक पर इधर-उधर पड़े पत्थर के बीच दबे
टिफिन कैरियर से जो रोटी की गंध आ रही है
वह किस जा‍ति की है ?

क्या तुम मुझे बता सकते हो
इन रक्त सने कपडों,फटे जूतों,टूटी साइकिलों
किताबों और खिलौनों की कौम क्या है.

क्या तुम बता सकते हो
स्कूल से कभी न लौटने वाली बच्ची की प्रतीक्षा में खड़ी
मां के आंसुओं का धर्म क्‍या है
और अस्पताल में दाखिल
जख़्मियों की चीख़ों का मर्म क्या है.

हां मैं बता सकता हूं यह ख़ून उस आदमी का है
जिसके टिफ़िन में बंद रोटी की गंध उस जाति की है
जो घर और दफ़्तर के बीच साइकिल चलाती है
और जिसके सपनों की उम्र फाइलों में बीत जाती है.

ये रक्त सने कपड़े उस आदमी के हैं
जिसके हाथ मिलों का कपडा बनाते हैं
कारखानों में जूते बनाते हैं,खेतों में बीज डालते हैं
पुस्तकें लिखते हैं,खिलौने बनाते हैं
और शहरों की अंधेरी सड़कों के लैंपपोस्ट जलाते हैं.

लैंपपोस्ट तो मैं भी जला सकता हूं लेकिन
स्कूल से कभी न लौटने वाली बच्ची की
मां के आंसुओं का धर्म नहीं बता सकता.
जैसे जख़्मियों के घावों पर
मरहम तो लगा सकता हूँ
लेकिन उनकी चीख़ों का मर्म नहीं बता सकता.

- कुमार विकल 

 

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अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों

अगर रोज कर्फ्यू के दिन हों

तो कोई अपनी मौत नहीं मरेगा
कोई किसी को मार देगा
पर मैं स्वाभाविक मौत मरने तक
जिन्दा रहना चाहता हूं.
दूसरों के मारने तक नहीं

और रोज की तरह अपना शहर
रोज घूमना चाहता हूं.


शहर घूमना मेरी आदत है
ऐसी आदत कि कर्फ्यू के दिन भी
किसी तरह दरवाजे खटखटा कर
सबके हालचाल पूछूं.


हो सकता है हत्यारे का
दरवाजा भी खटखटाऊं
अगर वह हिन्दू हुआ
तो अपनी जान
हिन्दू कह कर न बचाऊं
मुसलमान कहूं.


अगर मुसलमान हुआ
तो अपनी जान
मुसलमान कह कर न बचाऊं
हिन्दू कहूं.


हो सकता है इसके बाद भी
मेरी जान बच जाय
तो मैं दूसरों के मारने तक नहीं
अपने मरने तक जिन्दा रहूं

 

विनोद कुमार शुक्ल

 

 

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बस्तर के धुर माओवाद प्रभावित इलाके बीजापुर में रहने वाली पूनम वासम की कविताओं ने मचाई धूम

कार्ल मार्क्स, संविधान, फाड़ पोलका तुम हमारा, आग जैसी कविताएं लिखने वाली दोपदी सिंघार के बारे में यह कहा गया था वह बस्तर में ही कहीं रहती है और खुद को व्यवस्था के भेड़ियों से बचाने के लिए छिपकर कविताएं लिखती है. साहित्य के बहुत से जानकारों ने दोपदी की खोजबीन की, लेकिन कोई भी यह पता नहीं लगा पाया कि वास्तव में कोई दोपदी है भी या नही ? कवियित्री पूनम वासम भी बस्तर के धुर माओवाद प्रभावित इलाके बीजापुर से आती है. पूनम के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि उन्होंने सृजन को सामने लाने के लिए अपनी पहचान नहीं छिपाई. पूनम इन दिनों आदिवासी विमर्श की कविताएं लिख रही है और खूब लिख रही है. पूनम की कविताएं बस्तर में जो कुछ मौजूद है. जो कुछ घट रहा है... उसका दस्तावेज है. यहां प्रस्तुत है उनकी पांच कविताएं-

 

 

( एक ) बारूद पानी पानी हो जाये

तुम्हारा हाथ थामे बैठी हूँ मैं नम्बी जलप्रपात की गोद में जहाँ तितलियाँ  मेरे खोसे में लगे कनकमराल के फूलों से बतिया रही हैं

 

तुम हौले से मीठे पान का एक टुकड़ा धर देते हो, मेरी जीभ पर 

और मैं अपनी मोतियों की माला को भींचकर दबोच लेती हूँ मुठ्ठी में

 

तुम कहते हो कानों के करीब आ कर 

चाँद को हथेलियों के बीच रखकर वक्त आ गया है 

मन्नत माँगने का 

 

टोरा तेल से चिपड़े बालों के कालेपन को देखकर 

तुम मुस्कुरा देते हो 

मेरे खोसे से पड़िया निकालकर प्लास्टिक की कंघी खोंच

प्रेम का इज़हार करते तुम्हें देखकर

मैं दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में खोजती हूँ अपना नाम 

 

खुशी के मारे मेरे हाथ 

गुड़ाखू की डिबिया से निकाल बैठते हैं 

अपने हिस्से का सुकून  

पानी की तेज धार से तुम झोंकते हो अपनी हथेलियों में

मेरा चेहरा धोने लायक ठंडा पानी 

 

ठीक उसी वक्त 

तुम चाहते हो मेरे साथ मांदर की थाप पर  

कुछ इस तरह नृत्य करना  

कि पिछले महीने न्यूनरेन्द्र टॉकीज की बालकनी में बैठकर देखी गई शाहरुख, काजोल की फ़िल्म का कोई हिस्सा लगे

 

तुम्हारे चेहरे को पढ़ रही हूँ ऐसे 

जैसे ब्लैकबोर्ड पर इमरोज़ की अमृता के लिए लिखी कोई कविता 

 

तुम हँसते हो जब 

पगडंडियों की जगह मैं दिखाती हूँ तुम्हें

डामर की सड़कों पर दौड़ती कुशवाहा की बसें 

 

तुम गुनगुनाने लगते हो तब

तुम-सा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है 

कि तुम जान हो मेरी तुम्हें मालूम नहीं है

 

और खिलखिलाहट के साथ लाल हो उठता है मेरा चेहरा शर्म से 

 

तुम कसकर मुझे बाँहों में धर लेते हो कि

तभी बारूद की तीखी गंध से मेरा सिर चकराने लगता है 

घनी झाड़ियों ऊँचे पहाड़ों को चीरती 

एक गोली तुम्हारे सीने के उस हिस्से को भेदती हुई गुजर जाती है 

स्वप्न की उसी टेक पर जहाँ अभी -अभी मैंने अपना सिर टिकाया था 

 

यह स्वप्न है या दुःस्वप्न कहना मुश्किल है 

 

मैं चीख -चीख कर तुम्हें पुकारती हूँ तुम कहीँ नहीं हो 

 

मैं चाहती हूँ लौट आओ तुम पाकलू

किसी ऐसे मंतर जादू- टोने के साथ 

कि तमाम बंदूकों का बारूद पानी-पानी हो जाये 

 

( दो ) मछलियों का शोक गीत

झपटकर धर नही लेती कुटुमसर की गुफा में दुबक कर बैठी अंधी मछलियां अपनी जीभ पर

समुद्र के खारे पानी का स्वाद

इनकी गलफड़ों पर अब भी चिपका है वहीं

हजारों वर्ष पूर्व का इतिहास!

 

कि कांगेर घाटी में उड़ने वाली गिलहरी के पंखों पर 

अक्सर उड़ेल आती हैं मछलियां,

संकेत की भाषा में लिखी अपनी दर्द भरी पाती की स्याही ताकि बचा रहे गिलहरी के पंखों का चितकबरापन

 

बोलने वाली मैना को सुबक-सुबक कर सुनाती हैं

काली पुतलियों की तलाश में भटकती अपनी नस्लों के  संघर्ष की कहानी.

ताकि मैना का बोलना जारी रहे पलाश की सबसे ऊंची टहनी से  

 

मछलियां तो अंधी हैं पर,

लम्बी पूँछ वाला झींगुर भी नही जान पाया अब तक कुटुमसर गुफा के बाहर ऐसी किसी दुनिया के होने का रहस्य 

कि जहाँ बिना पूँछ वाले झींगुर चूमते हैं सुबह की उजली धूप 

और टर्र टर्र करते हुये गुजर जाते है 

कई कई मेढकों के झुंड 

 

गुफा के भीतर 

शुभ्र धवल चूने के पत्थरों से बने झूमरों का संगीत सुनकर

अंधी मछलियां भी कभी-कभी गाने लगती है 

घोटुल में गाया जाने वाला 

कोई प्रेम गीत!

गुफा के सारे पत्थर तब किसी वाद्ययंत्र में बदल उठते है 

हाथी की सूंड की तरह बनी हुई 

पत्थर की सरंचना भी झूम उठती है

 

संगीत कितना ही मनमोहक क्यों न हो 

पर एक समय के बाद 

उसकी प्रतिध्वनियां कर्कशता में बदल जाती है 

 

मछलियां अंधी हैं 

बहरी नही, 

कि मछलियां जानती है सब कुछ 

सुनती है सैलानियों के पदचाप 

सुनती हैं उनकी हँसी ठिठोली  

जब कोई कहता है 

देखो-देखो यहां छुपकर बैठी है 

ब्रम्हाण्ड की इकलौती रंग-बिरंगी मछली.

 

तब भले ही कुटुमसर गुफा का मान बढ़ जाता हो

अमेरिका की कार्ल्सवार गुफा से तुलना पर कुटुमसर फूला नही समाता हो 

तब भी कोई नहीं जानना चाहता 

इन अंधी मछलियों का इतिहास 

कि

जब कभी होती है एकान्त में 

तब दहाड़े मार कर रोती है मछलियां 

इनकी आंखों से टपकते आँसुओं की बूंद से चमकता है गुफ़ा का बेजान सा शिवलिंग!

 

कोई नही जानता पीढ़ियों से घुप्प अंधेरों में छटपटाती

अंधी मछलियों का दर्द 

 

कि 

 

लिंगोपेन से मांग आई अपनी आजादी की मन्नतें 

कई-कई अर्जियां भी लगा आई बूढ़ादेव के दरबार में 

 

अंधी मछलियां जानती हैं 

उनकी आजादी को हजारों वर्ष का सफर तय करना 

अभी बाकी है 

इसलिए भारी उदासी के दिनों में भी 

कुटुमसर की मछलियां 

सायरेलो-सायरेलो जैसे गीत गाती हैं।

 

( तीन ) जंगल है हमारी पहली पाठशाला

माँ नही सिखाती उंगली पकड़कर चलना 

सुलाती नही गोद में उठाकर लोरिया गाकर 

चार माह के बाद भी दाल का पानी सेरेलेक्स ज़रूरी नही होता हमारे लिए 

 

जॉन्सन बेबी तेल की मालिश और साबुन के बिना भी

हड्डियां मज़बूत होती है हमारी

 

हम नही सीखते माँ की पाठशाला में ऐसा कुछ भी 

जो साबित कर सके कि हम गुजर रहे हैं 

बेहतर इंसान बनने की प्रक्रिया से!

 

स्कूल भी नही सिखा पाता हमे 'अ से अनार' या 'आ से आम' के अलावा कोई दूसरा सबक

 

ऐसा नही है कि हममें सीखने की ललक नही, या हमे सीखना अच्छा नही लगता 

 

हम सीखते है 

हमारी पाठशाला में सबकुछ प्रयोगिक रूप में 

'नम्बी जलप्रपात' की सबसे ऊंची चोटी से गिरती तेज पानी की धार 

हमे सिखाती है संगीत की महीन धुन,

'चापड़ा' की चटपटी चटनी सिखाती है 

विज्ञान के किसी एसिड अम्ल की परिभाषा!

 

अबूझमाड़ के जंगल सबकुछ खोकर भी 

दे देते हैं अपनी जड़ों से जुड़े रहने के 'सुख का गुण-मंत्र'

 

तीर के आखरी छोर पर लगे खून के कुछ धब्बे सुनाते है 'ताड़-झोंकनी' के दर्दनाक क़िस्से!

 

बैलाडीला के पहाड़ संभाले हुए हैं 

अपनी हथेलियों पर आदिम हो चुके संस्कारों की एक पोटली 

धरोहर के नाम पर पुचकारना, सहेजना, संभालना और तन कर खड़े रहना 

सीखते है हम बस्तर की इन ऊँची ऊंची पहाड़ियो से!

 

कुटुम्बसर की गुफा में,

हजारों साल से छुपकर बैठी अंधी मछलियों को देखकर  

जान पाएं हम गोंड आदिवासी अपने होने का गुण-रहस्य!

 

माँ जानती थी सब कुछ 

किसी इतिहासवेत्ता की तरह 

 

शायद इसलिए 

माँ हो ही नही सकती थी हमारी पहली पाठशाला 

जंगल के होते हुए!

 

जंगल समझता है हमारी जंगली भाषा माँ की तरह

 

 

( चार ) तूम्बा गेला फूटी, देवा गेला उठी

 

पूजा घर मे रखे ताँबे और काँसे के पात्र से

कहीं ज्यादा, यूँ कहे कि

रसोईघर के बर्तनों से भी ज्यादा प्रिय है

हमारे लिए तूम्बा

पेज, ताड़ी, महुआ और दारू

यहाँ तक की पीने का पानी रखने का सबसे सुगम व सुरक्षित पात्र के रूप में चिन्हाकित है तूम्बा!

तूम्बा का होना हमारी धरती पर जीवन का संकेत है

जब हवा नहीं थी, मिट्टी भी नहीं थी

तब पानी पर तैरते एकमात्र तूम्बे को

भीमादेव ने खींच कर थाम लिया था

अपनी हथेलियों पर

नागर चला कर पृथ्वी की उत्पत्ति का

बीज बोया भीमादेव ने

तब से पेड़-पौधे, जड़ी-बूटियां, घास-फूस

इस धरती पर लहलहा रहे है

वैसे ही तूम्बा हम गोंड आदिवासियों के जीवन में

हवा और पानी की तरह शामिल है

तूम्बा मात्र पात्र नही, हमारी आस्था का केंद्रबिंदु भी है

जब तक तूम्बा सही-सलामत

ताड़ी ,सल्फ़ी, छिंद-रस से लबालब भरा हुआ

हमारे कांधे पर लटक रहा है

तब तक हमारा कोई कुछ नही बिगाड़ सकता.

 

बचा रहेगा तूम्बा, तो कह सकते हैं

कि बची रहेगी आदि-जातियाँ

गोंड-भतरा, मुरिया

और वजूद में रहेगी जमीन और जंगल की संस्कृति

खड़ा ही रहेगा अमानवीयता के विरुद्ध बना मोर्चा

तूम्बा किसी अभेदी दीवार तरह

कि तूम्बा का खड़ा रहना प्रतीक है मानवीय सभ्यता का

दुनिया भले ही चाँद-तारों तक पहुँचने के लिए

लाख हाथ-पैर मार ले

पर हमारे लिए सबसे ज्यादा जरूरी है

तूम्बे को बचायें रखना

हर हाल में, हर परिस्थिति में

क्योकि तूम्बा का फूटना

अपशुकुन है हम सबके लिए!

 

 

 

( पांच ) गमपुर के लोग 

हम तलाश रहे हैं 

मंगल ग्रह पर पानी के बड़े-बड़े तालाब.

हम ढूँढ रहे हैं वर्षो से एलियन होने के सबूत!

 

दुःखी हैं हम 

धरती से डायनासोर की प्रजाति के विलुप्त होने पर

हमने ब्रह्मांड के चप्पे-चप्पे पर किसी न किसी रूप में 

दर्ज करवाई है अपनी उपस्थिति.

 

हमने साधा है विज्ञान को 

कुछ इस तरह कि जरूरत के वक्त 

पूरी धरती विस्थापित कर सके किसी अन्य ग्रह पर  

वो भी बिना किसी खरोंच के  

 

खुश हैं दुनिया के तमाम लोग 

अंतरिक्ष से चीन की दीवार देखकर

मोहित हैं पृथ्वी के नीले रंग पर 

 

हरे रंग का मोह अब नहीं रहा पहले जैसा!

 

ऐसी किसी दूरबीन का अविष्कार क्यों नहीं किया तुमने गैलेलियो.

जिसमें दिखाई देता 

गमपुर भी देश के नक्शे पर!

 

लोग जान पाते 

एक गाँव की आत्महत्या की कहानी.

 

अरे मैं सच कह रही हूँ  गाँव भी आत्महत्या करते है भई

ऐसे ही जैसे गमपुर ने ले ली है जंगल-समाधि.

 

गमपुर को कोई नहीं जानता 

और गमपुर भी किसी को नहीं जानता.

 

गमपुर के लोगो की प्यास नदिया बुझा देती हैं.

भूख जंगल का हरापन देखकर मिट जाता है .

 

जीने के लिए 

इन्हें कुछ और चीजों की जरूरत ही नहीं 

 

गमपुर के लोगो को सूरज के चमकने और बुझने के विषय में कोई जानकारी नहीं.

इन्हें लगता है दुनिया इतनी ही बड़ी है 

जितनी उनकी जरूरतें.

 

कभी-कभी लगता है 

इनका नामकरण कोई सोची-समझी साज़िश तो नहीं!

 

न राशन-कार्ड 

न आधार-कार्ड 

न अक्षर-ज्ञान

उनके कहकहों के बीच पता नहीं कहाँ से आकर  गिर पड़ती है मूक उदासियां!

 

ये लोग हवा में उच्छ्वास छोड़ते हैं और देखते हैं 

आकाश की ओर

 

इन्हें लगता है कि आकाश की आँखे हैं.

आकाश अपनी आँखों से निहारता है गमपुर को 

ऐसे जैसे एक वही जानता हो गमपुर को!

 

इस बीच जब कोई उन्हें हिलाता है तो वह चौक पड़ते है और हँस देते हैं

 

चूँकि उन्हें कठिन दिनों में हँसने के सिवा कुछ नही आता

इसलिए वह बहुत बार 

कुछ भी न कह कर बस हँस देते हैं.

 

हँसी उनकी भाषा का सबसे सुंदर शब्द है जिसके लिए बहुत बार उन्हें जरूरत नही पड़ती  संसार की किसी भी भाषा की.

 

गमपुर के लोग अ-परिचय को पछाड़ कर 

ढूंढ लेते हैं परिचय से भरा हुआ

एक ब्रह्माण्ड!

 

वह ढूंढने की तमाम प्रक्रियाओं में बार-बार ढूंढ लेते हैं 'खुद' को

और तब एक बहुत बड़ी दुनिया बेहद मामूली हो जाती है उनके लिए

 

उच्छ्वासों और हँसी की भाषा से वह बार-बार हरा देते हैं उस राजकीय अभिलेख को,

जिसमे एक भाषा थोड़ी बेहया होते हुए बहुत कठोरता से कहती है

कि उदंड हैं गमपुर के लोग!

 

( गमपुर बीजापुर से 65 किलोमीटर दूर एक गांव हैं. जहाँ  किसी भी तरह का विकास नही हुआ है सरकार ने उस गाँव को उसकी किस्मत पर छोड़ दिया है. ) 

 

नाम  - पूनम  वासम

शिक्षा -एम. ए .   (समाजशास्त्र,अर्थशास्त्र ) वर्तमान में बस्तर विश्वविद्यालय से शोध कार्य.

सम्प्रति - शासकीय शिक्षिका  बीजापुर

निवास - बीजापुर   बस्तर (छत्तीसगढ़)

मूलतः आदिवासी विमर्श की कविताओं का  लेखन,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित,

युवा कवि संगम 2017 बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रतिभागी,लिटरेरिया कोलकाता 2017 के कार्यक्रम में शामिल,भारत भवन भोपाल में कविता पाठ, रज़ा फाउंडेशन के कार्यक्रम युवा 2018 में शामिल, बिटिया उत्सव ग्वालियर में कविता पाठ साहित्य अकादेमी में कविता पाठ. 

 

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भूमण्डल की स्वप्नहीन रात में मुक्तिबोध

छत्तीसगढ़ के शासकीय महाविद्यालय उतई में प्रोफेसर की हैसियत से कार्यरत सियाराम शर्मा की गिनती देश के शीर्षस्थ आलोचकों में की जाती है. सोवियत संघ के विघटन के बाद उन्होंने समाजवाद का संकट और मार्क्सवाद जैसी पुस्तक लिखकर खासी हलचल मचाई थीं. तब उनकी इस किताब का प्रकाशन पल-प्रतिपल जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका ने किया था. कवि आलोक धन्वा, गोरख पांडे, कुमार विकल और वीरेंद्र डंगवाल की कविताओं को केंद्र में रखकर लिखी गई उनकी दूसरी पुस्तक समकालीन कविता का तीसरा संसार का प्रकाशन पहल जैसी ख्यातिलब्ध पत्रिका ने किया तब वे और ज्यादा चर्चा में आए. वर्ष 2014 में साम्य ने  उनकी तीसरी किताब भारत का गहराता कृषि संकट और किसान आत्महत्याएं प्रकाशित की है. यह पुस्तक भी मौजूदा व्यवस्था को लेकर गंभीर सवाल खड़े करती है. बहरहाल गजानन माधव मुक्तिबोध की जंयती ( 13 नवम्बर )  के मौके पर उन्होंने अपना मोर्चा डॉट कॉम के लिए एक खास आलेख भेजा है. हम उनके आभारी है. 

सियाराम शर्मा

हम चाँद और तारों से रहित स्याह अँधेरी रात के हिंस्र और बर्बर समय में रहते हैं, जहाँ नींद की जगह आँखों में शीशे की किरचें चुभती हैं। दुःस्वप्न शिकारी बाज की तरह हमारा पीछा करते हैं। आत्महत्या कर चुके लाखों किसानों की विधवा स्त्रियों और बच्चों के विलाप हमें बेचैन करते हैं। अपने जल, जंगल और जमीन से विस्थापित आदिवासियों के बहते हुए रक्त से मेरे वस्त्र भीगने लगते हैं। असंख्य मजदूरों के खून और पसीने की बहती नदी को हर क्षण कोई तपती मरुभूमि लील जाती है। असमय बूढ़े हो चुके बेरोजगार नौजवानों की भविष्यहीन आँखें मुझे उदास कर जाती हैं। रातों की नीरवता में उभरती कई निर्भया की एक साथ चीखें, हृदय मेंं तीखी बरछी की तरह चुभती है। दूसरी तरफ लाखों मनुष्यों की कुर्बानियों से पिछली सदी में प्राप्त किये गये सारे मानवीय मूल्य, आदर्श और अधिकार बर्फीले पानी में डूबो दिये गये हैं। दुनिया बड़ी बाजार हो गयी है और मनुष्य को उपभोक्ता मात्र में निःशेष कर देने की साजिशें चल रही हैं। समाजवाद के समक्ष उत्पन्न कुछ समस्याओं के बाद इतिहास और विचारधारा के अंत की घोषणाओं के साथ पूँजी की बर्बर लूट और शोषण को ही मानवीय सभ्यता की अंतिम नियति कहा जा रहा है। आज दुनिया में वर्ग संघर्ष नहीं, सभ्यताओं के संघर्ष की दुहाई दी जा रही है। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से हम ठीक से आज़ाद भी नहीं हुए थे कि नवसाम्राज्यवादी गुलामी की अदृश्य बेड़ियों ने हमें जकड़ लिया है। लोकतंत्र के रास्ते घुसकर आज फासीवाद हमारी छाती पर बैठा है। एक-एक कर लोकतांत्रिक संस्थाओं की बलि दी जा रही है। ऐसे में अपने ही निर्दोष नागरिकों का क्रूर हत्यारा टेलीविजन के पर्दे पर फूहड़ स्वाँग रच रहा है। इस उत्तर सत्य के दौर में सत्ता झूठ उगलने की मशीन बन गयी है और जनता को हत्यारी भीड़ में तब्दील कर दिया गया है।

इस क्रूर, हिंस्र, जटिल और बर्बर समय में मुक्तिबोध की कविताओं के भयावह बिम्ब, अन्तः और वाह्य का उनका व्यापक सर्वेक्षण, ईमानदार आत्मालोचन, समझौताहीन संघर्ष और सत्ता से जुड़ाव रखने वाले स्वार्थी बुद्धिजीवियों, कवियों और कलाकारों के प्रति उनकी तीव्र और असमाप्त घृणा, हमेशा सचेत और सक्रिय वर्ग दृष्टि,सामान्य जन के प्रति अगाध विश्वास और उससे जुड़ाव की अदम्य आकांक्षा तथा जनक्रांति का सुन्दर स्वप्न हमारे लिए संजीवनी की तरह है। मुक्तिबोध ने बहुत बेचैनी और तड़प के साथ अपने समय में बहुत गहरे धँसकर कविता को जिया और रचा है। अतः उनकी कविताओं में ऐसी अनुगूँज है, जिसमें हमारे समय की स्पष्ट धड़कन सुनाई देती है। अपने समय में गहरे डूबकर जीने और रचने वाले कवि में न सिर्फ उसका समय बोलता है बल्कि अपनी संभाव्य चेतना के कारण वह आगे आने वाले युगों की संभावनाएँ भी व्यक्त करता है। मुक्तिबोध समयबिद्ध, संभाव्य चेतना से लैस एक ऐसे ही कवि हैं। इसलिए किसी भी समकालीन कवि से हमारे समय का सबसे ज्यादा स्पष्ट बिम्ब मुक्तिबोध की कविता के भीतर से उभरता है। इसमें न सिर्फ हमारे समय के बिम्ब हैं बल्कि ये कविताएँ हमारे समय को समझने की दृष्टि भी प्रदान करती है।

हर बड़े कवि के लिए उसका समय कठिन और चुनौतीपूर्ण होता है। वह समय की अँधेरी शक्तियों से टकराकर और जूझकर ही अपने काव्य व्यक्तित्व का विकास करता है। उसकी संवेदना तीक्ष्ण होती है और कल्पना उर्वर। अपनी विश्वदृष्टि से वह भविष्य की संकटपूर्ण स्थितियों को समय से पूर्व पहचान लेता है। इसीलिए कबीर सारी दुनिया से अलग रात भर ’जागते और रोते हैं’ और तुलसी ’कभी नींद भर सो नहीं पाते’। सारी रात बिस्तर बिछाते ही बीत जाती है। मुक्तिबोध के काव्य में यह बेचैनी और छटपटाहट दोनों पुरखे कवियों से ज्यादा और व्यापक है। उनका काव्य नायक सारी रात बेचैन और भयभीत भागता फिरता है। तरह-तरह की यातनाओं और डरावने अनुभवों से गुजरता है। मुक्तिबोध के समय का अँधेरा जितना सघन है, उनकी विश्वदृष्टि उतनी ही व्यापक है। उनकी विश्वदृष्टि में समस्त मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ उसका समस्त ज्ञान-विज्ञान, इतिहास और वर्तमान शामिल है। अतः वे अंधकार को तार-तार कर उसके भीतर की एक-एक वास्तविकता को पहचान पाते हैं। अँधेरे में भी साफ-साफ देख पाने की दृष्टि मुक्तिबोध को एक विलक्षण कवि बनाती है।

मुक्तिबोध के काव्य का गहन अंधकार नेहरु युग के मोहभंग से उपजा पूँजीवादी व्यवस्था का अंधकार है, जहाँ आज़ादी के हवामहल टूटकर बिखर और जल रहे हैं। इस अंधकार में पूँजीवादी जनतंत्र के भीतर से उभरे फासीवादी अंधकार की स्याही भी शामिल है। अतः उसमें फौजी टापें सुनाई देती है। स्वार्थ और निर्बन्ध उपभोग उस अँधेरे की चालक शक्ति है, जहाँ विचार और बौद्धिकता का अभाव है। अतः सिर्फ पेट और उदर के साथ मस्तक विहीन मनुष्यों के चलते-फिरते धड़ का अत्यन्त ही डरावना चित्र मुक्तिबोध ने प्रस्तुत किया है- “इस नगरी में चाँद नहीं है, सूर्य नहीं है, ज्वाल नहीं है/सिर्फ धुएँ के बादल-दल हैं/और धुँआते हुए पुराने हवा महल हैं/....... इस नगरी के प्रहरी पहने हैं धुएँ के लम्बे चोगे़/साज़िश के कुहरे में डूबी/ब्रह्मराक्षसों की छायाएँ/गाँधीजी की चप्पल पहने घूम रही हैं/छिपे-छिपे कुछ फ़ौजी टापें/बूटों की भी गूँज रही हैं/..... बुद्धि ख़त्मकर, शीश काटकर/मात्र उदर ले, सिर्फ पेट ले/मस्तकहीन कबन्ध घूमते हैं राहों पर/बड़े ठाठ से बटन-होल में फूल लगाकर/अपने मालिक के ये चाकर/घर बैठे आदर्श घोखते” (मुक्तिबोध/’एक प्रदीर्घ कविता’/मुक्तिबोध रचनावलीः दो/राजकमल प्रकाशन/संस्करण 1985, पृ0-295, 96, 97)। मुक्तिबोध के समय की छिपी-छिपी ये फौजी टापें और बूटों की गूँजें आज खुलेआम हमारे देश के बहुत बड़े हिस्से को रौंद रही हैं। भारत की आज़ादी के बाद से ही साम्राज्यवाद की चाकरी में लगे भारतीय पूँजीवाद से आज के पूँजीपतियों की नव साम्राज्यवाद की दलाली अलग नहीं है। उसे पूर्व की निरंतरता में ही देखने की ज़रूरत है। यह निरंतरता दो युग कवियों की कविता में भी है। निराला ने जिस तरह नेहरु के वर्ग चरित्र को बखूबी पहचाना था, मुक्तिबोध भी वैसा ही पहचानते हैं। ’इस गगन में नहीं दिनकर/नहीं शशधर, नहीं तारा’की ’इस नगरी में चाँद नहीं है, सूर्य नहीं है, से कितनी समानता है!

 

मुक्तिबोध के अँधेरे समय में से छिटकती हुई कुछ रोशनी की किरणें भी हैं। वहाँ नीली झील है, जिसमें  ’प्रतिपल काँपता अरुण कमल है, विक्षोभ की मणियाँ हैं, विवेक रत्न हैं, स्वर्णिम कमल की पंखुरियों जैसी धधकती ज्वालाएँ हैं और जनक्रांति का एक स्वप्न सही सलामत है। लेकिन आज हम भूमण्डल की स्वप्नहीन रात में हैं। समाजवाद का चमकता सितारा डूब चुका है। बर्बर पशु की तरह पूँजीवाद सभ्यता के जंगल में पुनः लौट चुका है। वह अपने सारे आदर्शों और मूल्यों का नकाब उलटकर आज बहुत ही नग्न, विकृत और आक्रामक स्वरूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। सोवियत समाजवाद के साथ जिन श्रमिकों ने दुनिया में अपनी सत्ता स्थापित की, पूँजीवादी देशों में भी कार्य के आठ घंटे लागू करवाये और पारिवारिक, सामाजिक सुरक्षा प्राप्त की; आज वे श्रम की चक्की में अनवरत पिस रहे हैं। बेरोजगारी की विशाल फौज ने श्रम को मूल्यहीन बना दिया है। पूरी दुनिया भर में गरीबी और अमीरी के बीच अलंध्य खाई बढ़ती जा रही है। गरीबी को ख़त्म करने की जगह अमीरी को बढ़ाने पर बल दिया जा रहा है। एक तरफ अरबपतियों, खरबपतियों और उपभोग से अघाये लोगों की सीमित चमचमाती दुनिया है तो दूसरी तरफ शोषितों, वंचितों और विस्थापितों का फैलता साम्राज्य। पहले हम अँधेरे से लड़ते थे पर आज अँधेरा हमें अपने रंग में रंगता जा रहा है। पहले अँधेरा सुबह के साथ छँट जाता था पर आज वह दिन के उजाले में भी कायम है-“ इसीलिए आजकल दिन के उजाले में भी अँधेरे की साख़ है/इसीलिए संस्कृति के मुख पर/मनुष्य की अस्थियों की राख है/जमाने के चेहरे पर/गरीबों की छातियों का ख़ाक है”(मुक्तिबोध/’चाँद का मुँह टेढ़ा है/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-279)!! ऐसे श्रम विरोधी, जन विरोधी, मनुष्य विरोधी भयावह समय में जब अच्छे दिनों के छलावे से हमें कोई भी छल जाता है तब हमारे समय के क्रांतिकारी कवि नवारूण भट्टाचार्य का यह पूछना कितना सही लगता है कि “आज यहाँ तक कि अंधे भी/ब्रेल अक्षरों को छूकर समझ रहे हैं कि/प्रलय आ रहा है/पर तुम क्या कर रहे हो”?

मुक्तिबोध ने 1940-42 के आस-पास लिखित और ’तारसप्तक में संकलित ’पूँजीवादी समाज के प्रति’ कविता में पूँजीवाद की भोगवादी, सौन्दर्यवादी, प्रदर्शन तथा दिखावे की सजावटी और यथार्थ विरोधी संस्कृति की तीखी और तीव्र भर्त्सना करते हुए उसके प्रति अपार घृणा को ज़ाहिर किया था। लेकिन आज हम सामंती और पूँजीवादी संस्कृति के घालमेल से निर्मित एक ख़तरनाक कॉक्टेल संस्कृति के दौर में हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इस दौर में हमारी समावेशी संस्कृति की समृद्ध विरासत पर झाड़ू फेरकर एक संकीर्ण और विभाजनकारी राष्ट्रवादी विमर्श पैदा किया जा रहा है और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता को गंभीर खतरे में डाल दिया गया है। इस राष्ट्रवाद में दलितों, आदिवासियों, चेतना सम्पन्न स्त्रियों और अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं है। उस पर तुर्रा यह है कि यह अपने-आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी और देशप्रेमी कहने की अश्लील हिमाकत करता है। पिछड़ी हुई विचारधारा वाला, गाँधीजी की हत्या के लिए जिम्मेवार यह सहस्रमुखी संगठन आज इतना ताकतवर हो चुका है कि संविधान को चुनौती देने लगा है। उसके इशारे पर सारी लोकतांत्रित संस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट किया जा रहा है। भारतीय आज़ादी की लड़ाई और भारतीय राजनीति के हाशिए पर खड़े इस संगठन के ताकतवर होकर सत्ता के केन्द्र में आने के कारणों की समझ हमें मुक्तिबोध की कविताओं से मिलती है।

भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की जिम्मेवारी जिन कन्धों पर थी, उन्होंने ईमानदारी से अपने दायित्व का निर्वहन नहीं किया। बुद्ध से लेकर कबीर और आज़ादी की लड़ाई तक भारतीय समाज को आधुनिक बनाने की जो कोशिशें हुईं, उसे आज़ादी के बाद मुल्तवी कर दिया गया। आज़ादी के बाद के शासक वर्ग ने जनता की पिछड़ी हुई चेतना को उन्नत बनाने की अपेक्षा उसे अपने पक्ष में इस्तेमाल किया। वामपंथी बुद्धिजीवियों ने भारतीय संस्कृति की जो तर्कमूलक, बौद्धिक व्याख्याएँ की उसे जन-जन तक पहुँचाया नहीं जा सका। किसी भी जीवंत संस्कृति में प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों तरह के तत्त्व मौजूद होते हैं। आवश्यकता यह होती है कि प्रतिक्रियावादी तत्त्वों की तीखी और निर्मम आलोचना की जाये और प्रगतिशील तत्त्वों को लेकर आगे बढ़ा जाये। स्वाधीनता आन्दोलन के समय से ही भारतीय समाज में एक पुनरूत्थानवादी, भाववादी, बुद्धि विरोधी विचारधारा सक्रिय रही, जो अतीत की सीमाओं, कमजोरियों और रूढ़ियों को नजरअंदाज करती थी और अविवेकी ढंग से भारतीय इतिहास की महानता का गुणगान गाती थी। वर्ण, जाति, धर्म और लिंग सम्बन्धी संकीर्णताओं को उसने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया। बुद्धि की जगह आस्था को, विज्ञान की जगह अंधविश्वास को और मानवीय गुणों की जगह वर्ण और धर्म को महत्त्व दिया। कहा जाता है कि अतीत के जिन प्रश्नों की हम उपेक्षा करते हैं, वे वर्तमान में दूनी शक्ति के साथ हम पर आक्रमण करते हैं। भारत की महान् संस्कृति के जिन अन्तर्विरोधों की हमने उपेक्षा की, आज वही हमारे लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। अतीत की उन्हीं कंदराओं के अंधकार से निकलकर ये गिद्ध आज भारतीय जनता को दृष्टिहीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं-“प्रतिष्ठित राज्य-संस्कृति के प्रभावी दृश्य/सुन्दर सभ्यता के तुंग स्वर्ण-कलश/सब आदर्श/उनके भाष्यकर्ता ज्ञानवान् महर्षि/ज्योतिर्विद्, गणितशास्त्री, विचारक, कवि,/सभी वे याद आते हैं।/प्रतापी सूर्य हैं वे सब प्रखर जाज्वल्य/पर, यह क्या/अँधेरे स्याह धब्बे सूर्य के भीतर बहुत विकराल/ धब्बों के अँधेरे विवर-तल में से/उभरकर उमड़कर दल बाँध/उड़ते आ रहे हैं गिद्ध/पृथ्वी पर झपटते हैं!/कि खायेंगे हमारी दृष्टियाँ ही वे (मुक्तिबोध/’अन्तःकरण का आयतन’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-146)”!

अपनी द्वन्द्वात्मक दृष्टि के कारण मुक्तिबोध भारत के महान सांस्कृतिक सूर्य के भीतर उन विकराल धब्बों को समय से बहुत पहले देख पा रहे थे, जो साम्प्रदायिक फासीवादी-ताकतों की शरणस्थली है। ये पुरातन पंथी, इतिहासग्रस्त ताकतें उसी के सहारे जनता की विवेक, बुद्धि को नष्ट कर रही हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि नये ज्ञान-विज्ञान के पाठ्यक्रमों की जगह आज विश्वविद्यालयों में वैदिक गणित, ज्योतिष और कर्मकाण्ड पढ़ाने की वकालत की जा रही है। हमारे यहाँ अतीत में टेस्ट ट्यूब बेबी, प्लास्टिक सर्जरी और महाभारत में इन्टरनेट के होने की अनर्गल बातें प्रचारित-प्रसारित की जा रही है। यह सब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की ओर से हो रहा है। इन सबका उद्देश्य जनता की चेतना और दृष्टि को धुँधला बनाकर समय और समाज की वास्तविकता से उन्हें अनजान बनाये रखना है ताकि वे निर्बाध रूप से अपने शोषण और दमन का चक्र जारी रख सकें। ऐसे में जनता से जुड़े बुद्धिजीवी जो उनके षडयंत्र को उजागर करने की प्रक्रिया में शामिल हैं; उन्हें देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर उनके चरित्र हनन का प्रयास किया जा रहा है। उन्हें नक्सल समर्थक या ’अरबन नक्सल’ कह कर जेल की सलाखों के भीतर डाला जा रहा है। यह बुद्धिविरोध अपने चरम पर तब पहुँच जाता है जब तर्कवादियों, बुद्धिजीवियों का वैचारिक मुकाबला न कर उनकी सुनियोजित हत्याएँ की जाती हैं। इस सब से विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटकर समाज में डर और दहशत का माहौल पैदा किया जा रहा है। गुण्डागर्दी, जेल और हत्याओं का सिलसिला यह सिद्ध करता है कि लोकतंत्र विरोधी ये फासीवादी ताकतें वैचारिक रूप से कितनी दरिद्र हैं। मुक्तिबोध ने समय से पहले इन फासीवादी ताकतों की भयावहता को अच्छी तरह से पहचान लिया था-“रामू जानता है कि पूँजीवादी शक्तियाँ/जन-जन की छाती पर बैठकर/शासन के चाकू से/विद्रोहिणी बुद्धि की त्रिकालदर्शी आँखों को काटकर/निकाल लेना चाहती है।/....पूँजीवादी शक्तियाँ भयंकर/जन-जन को दमन की फ़ासिस्ती भट्ठी में झोंककर/बनाया चाहती हैं वे/उनकी अस्थियों से श्वेत/आराम का फर्नीचर”,(मुक्तिबोध/’ज़िन्दगी का रास्ता’/मुक्तिबोध रचनावली : एक/पृ0-268, 269)।

मुक्तिबोध सिर्फ ’अँधेरे में’ ही नहीं, बल्कि अपनी दूसरी कविताओं में भी फासिज्म के खतरे के प्रति सचेत थे और उसके प्रति गंभीर रूप से चिंताग्रस्त भी। उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में मानवीय आदर्शों, मूल्यों, सम्बन्धों को इन फासिस्ट शक्तियों के हाथों तार-तार होते हुए देखा था। फासिज्म की आक्रामकता से भारत उस समय अछूता नहीं था। हमारे देश की फासिस्ट शक्तियाँ उस समय भी हिटलर से प्रेरणा ले रही थीं। कुछ ने तो उससे मिलने का प्रयास भी किया था। जिन्ना ने तो बाद में देश को बाँटने का अभियान चलाया पर ये शक्तियाँ तो पूर्व से ही द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त पर चल रही थीं। मुक्तिबोध ने मानवीय सभ्यता के शुभ, सुन्दर, कोमल और उज्ज्वल पक्ष को इन शक्तियों के कारण पराजित और संकटग्रस्त होते हुए देखा था। वे यह भी समझ रहे थे कि यह मनुष्य के शोषण, दमन का सबसे बर्बरतम् रूप है। इसके मूल में पूँजीवादी व्यक्तिवादिता के अहं का चरमोत्कर्ष है। दुर्भाग्यवश पूँजीवाद के बर्बर स्वरूप की वापसी के साथ आज भारत सहित पूरी दुनिया में अत्यन्त आक्रामकता के साथ दक्षिणपंथ फिर से सिर उठा रहा है। समस्त मानवीय सभ्यता के लिए यह खतरे की घंटी है। ऐसे समय में मुक्तिबोध के इन पंक्तियों के पुनर्पाठ की ज़रूरत है-“नव स्नेह का, सौन्दर्य का, विश्वास का/नीला समुन्दर लाँघकर/इस द्वीप में/काला पुराना दैत्य गुपचुप आ गया/यह ध्वंस का सहचर, बभुक्षित है अहं/जो शोषणों की सभ्यता का भूप है/मैं जानता हूँ,/आज के धुएँ भरे आकाश में/हैं स्याह ताकत के हवाई घूमते/मैं जानता हूँ यह सभी/मेरी पराजय याद है।/चारों तरफ फैली हुई इस सभ्यता की भी पराजय याद है। जिसमें कि स्वार्थों के बाँधे तालाब में/काले कमल काले अहं के खिल रहे/प्रतिपल विषैली रश्मियों के तेज में” (मुक्तिबोध/’पराजित हो चलूँ’/’आलोचना’/ सहस्राब्दी अंक 55/जुलाई-सितम्बर 2015/पृ0-22)। गरीबी, बेरोजगारी, विस्थापन, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, घृणा, भीड़ की हिंसा की विषैली रश्मियों के तेज में काले कमल का खिलना हमारे समय की भयावह वास्तविकता है।

मुक्तिबोध ने अपनी एक महत्त्वपूर्ण कविता ’जमाने का चेहरा’ में फासीवाद का अत्यन्त ही डरावना चित्र खींचा है। इस कविता में बिजली की प्रचण्ड शक्ति के साथ फासीवादी ताकतें पूरी पृथ्वी का गरदन दबोचने को तत्पर हैं और शोषण, दमन से परेशान जनगण के चेहरे पर उसके राक्षसी दाँत गड़े हैं। उसकी संस्कृति हत्या, हिंसा और ख़ूनख़राबा की संस्कृति है-“अजीब उतरते हुए पैराशूट-पैराट्रूप/क्षितिज के चेहरे पर उभरा काला भाव एक/.....आँखों में उभरी है स्टेनगन/आसमानी बिजली का पीला प्रचण्ड/हाथ/बढ़ गया, बढ़ गया/धरती की गरदन को/मुट्ठी में भींचने,/जहरीली घनघोर लपटों की छाती पर/मृत्यु की गोद में/पृथ्वी को खींचने!!/......जनता के चेहरे पर/नात्सी मशीनी दाँत गड़ गये थे/संस्कृति के मुख पर/रूधिर की धाराओं का/गिर गया परदा” (मुक्तिबोध/’ज़माने का चेहरा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-57, 58,59)!!

फासिज्म का मूल आधार कॉरपोरेटिज्म है। सत्ता जब आँख मूँदकर कॉरपोरेट शक्तियों के पक्ष में खड़ी हो जाती है तो स्वाभाविक है कि वह जन विरोधी फैसले लेगी। इससे जनसाधारण में गरीबी-बेरोजगारी फैलती है। सार्वजनिक सम्पत्तियों के साथ प्राकृतिक संसाधनों और जनता की सम्पत्तियों की भी लूट-खसोट शुरू हो जाती है। पिछले दिनों बड़े पैमाने पर सार्वजनिक उद्योगों का निजीकरण, किसानों की खेतिहर जमीनों का अधिग्रहण, आदिवासियों का विस्थापन इन्हीं कॉरपोरेट नीतियों का परिणाम था। इसके फलस्वरूप जनता में गुस्सा, आक्रोश बढ़ता है और जनप्रतिरोध की कारर्वाइयाँ शुरू होती हैं। फासिस्ट सत्ता इस जनप्रतिरोध को कुचलने के लिए एक ओर साम्प्रदायिकता, जातिवाद, गौ हत्या, मंदिर-मस्जिद को मुद्दा बनाकर जन एकता को तोड़ती है और जनता को मूल मुद्दों से भरमाती-भटकाती है तो दूसरी तरफ दमन के लिए सेना और अर्द्धसैनिक बलों का सहारा लेती है। आज पूरा का पूरा कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत के साथ बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश का बहुत बड़ा आदिवासी इलाका सेना और अर्द्धसैनिक बलों के हवाले है। मुक्तिबोध ने ’अँधेरे में’ कविता में जिस सैन्य दमन और मार्शल लॉ का चित्र खींचा है वह आज हमारे देश की वास्तविकता है-“एकाएक मुझे भान होता है जग का/अख़बारी दुनिया का फैलाव,/फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,/पत्ते न खड़कें/सेना ने घेर ली हैं सड़कें।/बुद्धि की मेरी रग/गिनती है समय की धकधक!/यह सब क्या है?/किसी जन-क्रांति के दमन-निमित्त यह/मार्शल लॉ है” (मुक्तिबोध/’अँधेरे में’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-331)!! कुछ लोगों को ’अँधेरे में’ के सैन्य दमन और मार्शल लॉ का यह चित्र अतिरंजित लगता है पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि आज़ाद भारत की नेहरु सरकार ने पहली बार सेना का इस्तेमाल तेलंगाना के किसानों के संघर्ष को दबाने के लिए किया था। आज भी पूर्वोत्तर भारत मंद ’अफस्पा’ (आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) जैसा जनविरोधी कानून लागू है। इसे समाप्त करने के लिए इरोम शर्मिला सोलह वर्षों तक ऐतिहासिक भूख हड़ताल करती रहीं। हाल-फिलहाल बड़े-बड़े सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी टेलीविजन की सार्वजनिक बहसों में हिस्सा लेकर अपने अंधराष्ट्रवादी रूझान से सरकारी नीतियों को प्रभावित करने लगे हैं। सरकारें अपने संकटों को टालने के लिए सेना का राजनीतिक इस्तेमाल करने लगी हैं। यह सब देश के लोकतंत्र के हित में नहीं है। 

आज हम नव साम्राज्यवाद के आक्रामक दौर में हैं। पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में सोवियत संघ की चुनौती और शक्तियों का संतुलन समाप्त होते ही अमेरिकी नेतृत्व में साम्राज्यवादी शक्तियों ने संगठित और अधिक आक्रामक होकर तीसरी दुनिया के स्वाभाविक विकास को अवरूद्ध कर दिया। तीसरी दुनिया के अधिकांश देश राष्ट्रीय स्वाधीनता संघर्षों के बल पर, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र विकास का मार्ग तलाश ही रहे थे कि भूमण्डलीकरण के नाम पर राष्ट्रीय राज्य की सीमाओं को बेमानी कर वहाँ के शासक वर्ग ने साम्राज्यवादी पूँजी के बेरोक-टोक प्रवेश की इजाजत दे दी। गैट समझौतों के तहत असमान व्यापार की शर्तें इन देशों पर लाद दी गईं। विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दिशा-निर्देशों के अनुरूप इन देशों के विकास को नियंत्रित और दिशा निर्देशित किया जाने लगा। बड़ी-बड़ी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रवेश इन देशों में शुरू हुआ। पहले किसी देश में प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित साम्राज्यवादी शक्तियाँ जिस तरह उस देश की जनता और संसाधनों को लूटने का जो कार्य करती थी, आज वही कार्य वह अपनी पूँजी के निर्यात के माध्यम से कर रही हैं।

भारत जैसे देश का दब्बू और कमजोर पूँजीपति वर्ग अकेले इस देश को लूटने में सक्षम नहीं था। अतः वह स्वेच्छा से साम्राज्यवादी पूँजी के साथ गठबंधन कर उसकी दलाली में जुट गया। तथाकथित राष्ट्रीय पूँजीपतियों में से आज कोई भी ऐसा नहीं है, जिसने साम्राज्यवादी पूँजी के साथ गठजोड़ न किया हो!  हमारे देश की हर रंग की सरकारों ने साम्राज्यवादी पूँजी को बढ़ावा देने में उसके एजेन्ट की भूमिका का निर्वाह किया। आज यह खेल जितना खुला और स्पष्ट है, मुक्तिबोध के समय उतना स्पष्ट नहीं था, फिर भी उनकी भविष्योन्मुख दृष्टि भारतीय और साम्राज्यवादी पूँजी के गठजोड़ को बखूबी देख रही थी। वे भारतीय जननायकों को उनके हितरक्षक एजेन्ट और कुली-खलासी के रूप में देख रहे थे-,“साम्राज्यवादियों के/पैसों की संस्कृति/भारतीय आकृति में बँधकर/दिल्ली को/वाशिंगटन व लन्दन का उपनगर/बनाने पर तुली है!!/भारतीय धनतन्त्री/जनतन्त्री बुद्धिवादी/स्वेच्छा से उसी का कुली है!!/.....जन-राष्ट्र-लोकायन/जन-मुक्ति-आन्दोलन/के सिद्धहस्त विरोधी/ये साम्राज्यवादियों की पाँत में ही बैठे हैं,/शान्ति के शत्रुओं का प्राणायाम साधकर/जनता के विरूद्ध घोर अपराध कर,/फाँसी के फन्दे की रस्सी-से ऐंठें हैं (मुक्तिबोध/’ज़माने का चेहरा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-77)!! 

मुक्तिबोध 1950-57 में ही साम्राज्यवादी और भारतीय पूँजी के इस अपवित्र गठजोड़ को साफ-साफ देख रहे थे। वे यह भी देख रहे थे कि भारतीय नेतृत्व वर्ग किस तरह से उन्हें प्रश्रय दे रहा है। इस वास्तविकता को वक्त रहते अगर समझा और भारतीय जनता को समझाया गया होता तो नब्बे के दशक के बाद के साम्राज्यवाद की आक्रामकता के प्रति उसे सचेत किया जा सकता था। इस साम्राज्यवाद की सफलता का राज यही है कि उसने हमारे बीच के ही मनमोहन सिंह, चिदम्बरम, रघुराम राजन या इन्दिरा नूई को अपनी ही जनता के विरूद्ध खड़ा कर दिया -“हमीं में से विदेशी-सा/हमारे बीच का ही एक/नव-साम्राज्यवादी.../लोभ के आवेश में आकर/उजाड़े जा रहा है ज़िन्दगी की बस्तियाँॅ/पददलित मानव- मूल्य/हैं आक्रान्त आत्माएँ/तुम्हें क्या चाहिए/पिस्तौल या वायलिन” (मुक्तिबोध/’उस दिन’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0,पृ0-388)!!

भारत में जब से भूमण्डलीकरण की नीतियाँ लागू हुई हैं, देश की सार्वजनिक सम्पत्तियों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट और डाकेजनी से भारत के बड़े पूँजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों की पूँजी में असाधारण वृद्धि हुई है। लूट का कुछ टुकड़ा पाकर उच्च मध्यवर्ग का एक हिस्सा भी समृद्धि के चारागाह में अघाया फिरता है। उसे हर तरफ हरा-भरा ही दिखता है। दूसरी तरफ जन साधारण की स्थिति बद से बदतर हुई है। चमचमाते और जगमगाते हुए विश्व बाजार से उसे निष्कासित कर दिया गया है। लाखों किसानों, आदिवासियों की उपजाऊ जमीन का जबरन अधिग्रहण कर हमारी चुनी हुई सरकारों के द्वारा कॉरपोरेट घरानों को दे दिया गया। पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों में विश्व बाजार के दुश्चक्र में फँसकर चार लाख किसानों ने भूमण्डलीकरण की बलि बेदी पर अपनी कुर्बानी दी। मजदूरों से जुड़े सारे श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ायी गयी। वेतन जाम, छँटनी की असह्य पीड़ा के लम्बे दौर से उन्हें गुजरना पड़ा। ज़रूरत के अनुसार उन्हें काम पर रखा गया और ज़रूरत खत्म होते ही इस्तेमाल की गयी वस्तुओं के खोखे की तरह फेंक दिया गया। नौकरीपेशा लोगों से बुढ़ापे का पेंशन छीना गया। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के कारण बीमार होने पर गरीबों के पास मरने के सिवा और कोई चारा नहीं है। शिक्षा खरीद-फरोख्त और मुनाफे का व्यवसाय बन गया है। डीजल, पेट्रोल और बिजली की बढ़ती कीमतों और मँहगाई की मार से जनता त्रस्त रहती है। वस्तुओं और सेवाओं पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ उसके कंधों पर ही डाला जाता है। यह त्रस्त दीन-हीन जनता उब कर सरकारें तो बदल देती हैं पर जनविरोधी नीतियाँ पूर्ववत् जारी रहती हैं। उनके जीवन में कोई तब्दीली नहीं आती। असह्य है इस जनसाधारण की वेदना। खून की आखिरी बून्द तक उसे निचोड़ा जाता है। इस निरीह, दयनीय जन का जैसा करुण और त्रासद बिम्ब मुक्तिबोध की कविता में मिलता है, वैसा समकालीन कविता में अन्यत्र दुर्लभ है-“जनता को ढोर समझ/ढोरों की पीठ भरे/घावों में चोंच मार/रक्त-भोज, मांस-भोज/करते हुए गर्दन मटकाते दर्प भरे कौओं- सा/भूखी अस्थि-पंजर शेष/नित्य मार खाती-सी/रँभाती हुई अकुलाती दर्दभरी/दीन मलिन गौओं-सा/शब्दों का अर्थ जब।/दुनिया को हाट समझ जन-जन के जीवन का /मांस काट,/रक्त-मांस विक्रय के/प्रदर्शन की प्रतिभा का/नया ठाठ/शब्दों का अर्थ जब/नोच-खसोट, लूट-पाट” (मुक्तिबोध/’शब्दों का अर्थ जब’/मुक्तिबोध रचनावली : दो, वही0, पृ0-39) यह किसी जीवंत देश का नहीं विस्तीर्ण कत्लगा़ह का घृणित बिम्ब है, जहाँ कसाई सत्ता अपने समस्त कौशल से भरे बाजार में अपनी ही जनता के रक्त, मांस का व्यापार करती है। इसलिए इसके आकाश में मुक्तिबोध को उड़ते हुए चील और गिद्ध दिखाई देते हैं-“देखता हूँ, जीवन का यह दृश्य कि वही/उभर आती है, मरी हुई गाय की, गिद्धों की,/उड़ती चीलों की/वीरानी की तसवीर” (मुक्तिबोध/’कहते हैं लोग-बाग’/ मुक्तिबोध रचनावली : एक/वही0, पृ0-284)।

हमारे वर्तमान समय में बौद्धिक ऊष्मा, प्रखरता और तेजस्विता की कमी अखरती है। एक खास तरह का बौद्धिक ठंडापन समाज की जड़ता को भंग कर पाने में अक्षम है। ज्ञान और बुद्धि की गरिमा जन मन से तम, भ्रम, भय को दूर कर उसे मुक्ति के मार्ग की ओर प्रेरित करने में है। वह किसी कर्महीन, निष्क्रिय और शून्य वातावरण में पैदा नहीं होता। वह जूझते, लड़ते और संघर्ष करते हुए विकसित होता है। यह किसी गहरी पीड़ा और उद्विग्न कर देने वाली चिन्ता की कोख से जन्म लेता है। सूर्य के प्रकाश की तरह झूठ और असत्य के कुहरे को छिन्न-भिन्न कर यह दबे-छुपे सत्य को अनावृत कर देता है। स्वार्थ इसके तेज को ख़त्म कर देता है और भय से इसकी धार कुंद हो जाती है। एक तरफ ज्ञान हमारी संवेदना को व्यापक बनाता है तो दूसरी तरफ संवेदना से रहित ज्ञान शुष्क और नीरस होकर मात्र बुद्धिविलास बन जाता है। मुक्तिबोध इसीलिए ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की अवधारणा विकसित करते हैं।

भारतीय समाज के पिछड़ेपन का बहुत बड़ा कारण यह है कि यहाँ ज्ञानियों और बुद्धिजीवियों का जीवन और कर्म से कोई वास्ता नहीं है। जन-जीवन से आवयवयिक रूप से जुड़ाव नहीं है। इसीलिए उनमें बौद्धिक मौलिकता का तेज न होकर उधार के विचारां का बासीपन है। यहाँ बुद्धि जन-जीवन की भट्ठी से तपकर निकलने की जगह स्वार्थ और सत्ता सुख की चाहत में शोषक, शासक वर्ग से नाभि-नाल बद्ध है। ऐसे बुद्धिजीवियों का न तो जन-जीवन के समक्ष उत्पन्न गंभीर प्रश्नों से कोई सम्बन्ध होता है और न ही उनके समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से। ऐसे मूढ़ सिर्फ ज्ञानी और बुद्धिजीवी होने का भ्रम रचते हैं। ऐसे बुद्धिजीवियों के प्रति मुक्तिबोध ने ठीक ही कहा है-“रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग/नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे,/प्रश्न की उथली-सी पहचान/राह से अनजान/वाक् रूदन्ती”। ऐसे बुद्धिजीवियों की बुद्धि जनता को मुक्त करने की जगह उसे उत्पीड़ित करने का साधन बन जाती है। सत्ता के हाथों अपनी बुद्धि को बेच देने वाले ऐसे बुद्धिजीवियों के प्रति मुक्तिबोध की कविता के भीतर अपार गुस्सा और घृणा का भाव है। उन्होंने इन्हें कृतदास कहा है। इनकी तुलना गटर में रहने वाले केंकड़े, जंगल के सियारों और उद्धवस्त मुहल्लों में जमीन सूँघने वाले श्वानों से की है-“जंगली श्रृगाल सौ बुद्धि-भ्रष्ट/निर्बोध प्राणियों को खा जाते या देते हैं महाकष्ट/विश्वास-स्नेह अभिशापग्रस्त/स्वार्थान्ध सभ्यता की प्राचीरों के पथरीले तल समीप/की भूमि खोद/औ’ नरम-नरम मिट्टी निकालकर एक ओर/गह्वर-गह्वर में करते हैं आराम श्वान/ये रोज शाम/उद्धवस्त मुहल्लों की जमीन सूँघते हुए/फिरते रहते चिर- उदरम्भरि ये कामचोर-/अवसरवादी ये बुद्धिमान” (मुक्तिबोध/’साँझ रँगी ऊँची लहरों में’/मुक्तिबोध रचनावली : एक/वही0, पृ0-336)!!

मुक्तिबोध अपने दौर के और आज के समकालीन कवियों से इसलिए भिन्न हैं कि उनमें बौद्धिक तटस्थता और ठण्डेपन की जगह ज्ञान का गहरा तनाव है। उनका हृदय समुद्र की लहरों की तरह उद्वेलित होकर पछाड़ खाता है। अन्तर्मन किसी ज्वालामुखी की तरह धधकता है। जनवेदना इतनी प्रचण्ड और वेगवान है कि उसके आगे कोई अवरोध टिक नहीं पाता। हर ज्ञानात्मक और बौद्धिक निष्कर्ष को उनमें अपने चरित्र में उतारने की विकलता है। हमारे दौर के तथाकथित ज्ञानियों, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों को मुक्तिबोध के इस ज्ञानात्मक तनाव, आन्तरिक उद्वेलन, जनवेदना की प्रचण्डता और व्यक्तित्व की विकलता से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है।

अस्मिताओं और सभ्यताओं के संघर्ष पर बल देकर वर्ग संघर्ष को वैश्विक स्तर पर झुठलाने के प्रयत्न जारी हैं। ऐसे में मुक्तिबोध के सचेत, सक्रिय और तीक्ष्ण वर्गीय बोध से जुड़ना आश्वस्तकारी है। यह वर्गीय बोध ही हमारी प्रतिबद्धता को तय करता है। इसलिए उन्होंने अपनी कविता में सीधे-सीधे पूछा था-“किस ओर हो तुम, अब/सुनहले उर्ध्व-आसन के/निपीड़क पक्ष में, अथवा/कहीं उससे लूटी-टूटी/अँधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,/कहाँ हो तुम” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-237)? उसका जवाब भी वे अपनी कविता में ही देते हैं। संसार के महान प्रतिभाओं की तरह उन्होंने भी साधारण में असाधारणता को देखते हुए स्वीकार किया कि “पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है/छाती के कोषों में रहितों की बीड़ा है” (मुक्तिबोध/’मैं तुम लोगों से दूर हूँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-219)। एक बुर्जुआ समाज में जिन शोषित, उत्पीड़ित और वंचित लोगों से घृणा की जाती है, मुक्तिबोध की आत्मा में उनके लिए अपार स्नेह है। उनकी विश्वदृष्टि को यह शोषित और सर्वहारा वर्ग ही तय करता है। उसी के नजरिये से वे दुनिया को देखते हैं और अपने सम्बन्धों की प्राथमिकता तय करते हैं-“उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं/किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं/इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है” (वही0, पृ0-219)!! उन्हें पता था कि ये प्राथमिकताएँ, प्रतिबद्धताएँ और आस्थाएँ उन्हें दरिद्र बनायेंगी और दुःख-दैन्य ही देगी पर उन्होंने उन्हें त्यागा नहीं।

मुक्तिबोध के समग्र लेखन के मूल में मार्क्सवाद की गहरी समझ है। उन्होंने मार्क्सवाद को आत्मसात् किया था। वे जानते थे कि पूँजीवादी शोषण के केन्द्र में व्यक्ति का स्वार्थ है। यह स्वार्थकेन्द्रित शोषण मनुष्य को अमानवीय और आत्महीन बनाता है। शोषण की अतिशयता ही किसी सभ्यता के विनाश का कारण बनती है-“शोषण की अति मात्रा/स्वार्थों की सुख- यात्रा,/जब-जब सम्पन्न हुई,/आत्मा से अर्थ गया, मर गयी सभ्यता,” (मुक्तिबोध/’एक स्वप्न कथा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-268)। वर्गीय शोषण पर आधारित व्यवस्था को समाप्त करना ही क्रांति है। इस क्रांति को जनता ही संभव बनाती है। सरल-सहज, भोली-भाली जनता ही सचेत और संगठित होकर भावी समाज को जन्म देती है-“मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण/गुण हैं,/जनता के गुणों से ही संभव/भावी का उद्भव”। पूँजीपति वर्ग समाज के इस आमूल परिवर्तन का घोर विरोधी होता है। मध्यवर्ग का चरित्र प्रायः ढुलमुल होता है। स्वार्थ और समझौता इसे रीढ़हीन बना देता है। हमेशा शोषित, उत्पीड़ित, पददलित लोग ही आगामी समाज के सच्चे शिल्पकार होते हैं। मुक्तिबोध ने साफ-साफ कहा है,“ ज़िन्दगी का रास्ता/पूँजीवादी दानवों औ’ मध्यवर्गी नपुंसक मानवों/की वंचना-नगरी से छिटक कर/टूटे-फूटे घरोंवाली सील खायी/गलियों के अँधेरे में/रहनेवाले आगामी युगों के स्रष्टाओं/के चौराहों पर मिलता है,” (मुक्तिबोध/’ज़िन्दगी का रास्ता’/मुक्तिबोध रचनावली : एक/पृ0-277)। लेकिन इन साधारण जनों, सर्वहारा लोगों को सचेत बनाने में चेतनशील मध्यवर्ग की भी बहुत जरूरत होती है। इसलिए मुक्तिबोध गहरे आत्म संघर्ष के बल पर खुद को व्यक्त्विन्तरित कर निम्न वर्ग से अपने-आपको जोड़ते हुए स्वीकार करते हैं, “मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ,/शेब्रेलेट डाज के नीचे लेटा हूँ/तेलिया लिवास में पुरजे सुधारता हूँ,” (मुक्तिबोध/’मैं तुम लोगों से दूर हूँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-220)। जन जीवन से जुड़ाव की यह तीव्र और सघन आकांक्षा एवं वर्गान्तरण का प्रयास ही मुक्तिबोध की कविता को विलक्षण बनाता है। अपनी एक अन्य कविता में भी वे स्वीकार करते हैं कि मध्यवर्ग की मुक्ति निम्न वर्ग के लक्ष्यों से जुड़कर ही होगी। एकीकृत लक्ष्यों को पाने के क्रम में ही उसके भीतर गुणों का विकास होगा-“तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी।/कि तद्गत लक्ष्य में से ही/हृदय के नेत्र जागेंगे,/व जीवन लक्ष्य उनके प्राप्त/ करने की क्रिया में से/उभर ऊपर/विकसते जायेंगे निज के/तुम्हारे गुण/कि अपनी मुक्ति के रास्ते/अकेले में नहीं मिलते,” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ’/मुक्तिबोध रचनावली :दो/वही0, पृ0-235)। मुक्तिबोध जब भारत की साधारण जनता को सम्बोधित करते हैं तो उसके लिए उनके भीतर से गहरा प्रेम, स्नेह और अपनापा का भाव उमड़ता है। उनकी कविताओं में जनसाधारण के लिए गहरी आत्मीयता का भाव है।

मुक्तिबोध जैसे ईमानदार व्यक्ति के लिए समाजवाद का संघर्ष दुहरा संघर्ष था, अपने-आप से भी और समाज से भी। यह लड़ाई दुतरफा है। बिना अपने-आप को बदले समाज को बदलने का प्रयास अधूरा होगा। इसलिए मुक्तिबोध के यहाँ आत्म संघर्ष और आत्मालोचना का स्वर प्रबल हैं। विवेक के तीखे रन्दे और वसूला से वे निरन्तर अपने-आप को छीलते हैं। अपनी कमज़ोरियों और सीमाओं को स्वीकार करते हैं। खुद अपने-आप से खिन्न और अप्रसन्न रहते हैं। अपने-आप से खिन्नता और अप्रसन्नता ही हमें आन्तरिक बदलाव के लिए मजबूर करता है। वे कहते हैं-,“फिर भी, मैं अपनी सार्थकता में खिन्न हूँ/ निज से अप्रसन्न हूँ/इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए/पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए/वह मेहतर मैं हो नहीं पाता“ (मुक्तिबोध/’मैं तुम लोगों से दूर हूँ,’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0,पृ0-219)। अपनी कमियों का स्वीकार और आत्मालोचन की यह प्रवृत्ति आज दुर्लभ है। व्यक्तिगत स्तर पर भी और राजनीतिक, सामाजिक स्तर पर भी। हमारी वामपंथी पार्टियों ने भी अतीत और वर्तमान में कई गंभीर भूलें की हैं पर आज भी वे आत्मालोचन के लिए तैयार नहीं हैं। मुक्तिबोध हमें इसके लिए तैयार करते हैं।

भूमण्डल की इस स्वप्नहीन रात में मुक्तिबोध की कविताओं में रचे गये मानवीय मुक्ति के महास्वप्न के सक्रिय और विराट बिम्ब हमें बेहद आकर्षित और प्रेरित करते हैं। मुक्तिबोध का समय समाजवाद के सपने का समय था लेकिन आज वह स्वप्न टूटकर विखर चुका है। यह सच है कि आज भी समाजवाद मानवीय सभ्यता का आगामी भविष्य है पर मुक्तिबोध के लिए वह स्वप्न जितना करीब रहा होगा, आज हमारे लिए उतना ही दूर है। किसी भी व्यक्ति, जाति या राष्ट्र के लिए स्वप्न का होना बहुत जरूरी है। सपने हमें बन्धन से मुक्ति और सीमा से असीम की ओर उछालते हैं। पाश ने ठीक ही कहा था-’सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’। आज हम इसी खतरनाक दौर में हैं। मुक्तिबोध और हमारे सपनों के बहुत सारे संगी-साथी आज दुःस्वप्नों की स्थिति को अंगीकार कर चुके हैं। वर्तमान के कीचड़ में वे इस तरह से धँसे हैं कि मानवता का सुन्दर भविष्य उनकी आँखों से ओझल है। हमारे समय के बहुत सारे हमारे अपने लोग आज दुश्मनों के खेमे के सिपहसालार हैं। उनकी प्राथमिकताएँ और प्रतिबद्धताएँ बदल चुकी हैं। ऐसे में मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ पढ़कर लगता है कि उन्होंने अपने समय के लिए नहीं, हमारे समय की पीड़ाओं को आत्मसात कर लिखा था-“लोगों, एक जमाने में/तुम मेरे ही थे/बहुत स्वप्नद्रष्टा चिन्तक थे कवि थे/क्रांतिकारी रवि थे!!/अब कहाँ गये वे स्वप्न/उन्हें किस कचरे के ढीह में/यत्नपूर्वक जला दिया/उदरम्भरि बुद्धि के मलिन तेल में/स्वयं को गला दिया धातु-सा।/इस विषम जगत्/के शोषित पथ/की करुणाओं से जब आत्मा/में गर्भधारण हुई/व सत्य-भ्रूण उन्मुक्त विकसने लगा/कि तब,/तुम लज्जित थे।/तुम भ्रूण अवैधानिक समझ/उसको इरादतन गिरा दिया,” (मुक्तिबोध/’भविष्य-धारा’/ मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-115, 16)। दुनिया भर के शोषितों, उत्पीड़तों की आह से समाजवाद के स्वप्न ने आकार लिया था। लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थ और निर्बन्ध उपभोग की स्याह इच्छाओं ने मानवीय सभ्यता के भविष्य की भू्रण हत्या कर दी। इसका अभिशाप आज विश्व जनगण के सिर के ऊपर शैतान की तरह मँडरा रहा है।

मुक्तिबोध इस सत्य से परिचित थे कि ’कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती, यदि वह है तो सबके साथ है’। इसलिए उन्होंने सामूहिक, समग्र जनक्रांति का सुन्दर और क्रियाशील बिम्ब रचा। वे अपनी भुजाओं के आयुध से जन शत्रुओं से लगातार लड़ना चाहते हैं। क्रांति उनके लिए कोई छोटा-मोटा क्षुब्ध परिवर्तन न होकर व्यक्ति और समाज का सम्पूर्ण रूपान्तरण है। यह व्यक्ति और समाज को आमूल-चूल बदल देने वाली परिघटना है। ’क्रांति पूरी एक परिणति का नाम’ है। यह बाह्य और आन्तरिक दारिद्र से एक साथ मुक्ति का प्रयास है। हृदय पर इसका प्रभाव बहुत गहरा होता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो ’तेज धार गहरे धँसते लोहे के हल चल पड़ते हैं, हृदय की धरित्री पर’। यह कुछ लोगों, बुद्धिजीवियों और नेताओं के वश की बात नहीं। सम्पूर्ण जनता क्षुब्ध, संगठित और सक्रिय होकर इसमें अपनी भूमिका निभाती है। इसमें सत्य की ज्वाला, बुद्धि का तेज, आत्मा की तड़प, हृदय से उठती गहरी वेदना, नये जीवन का स्वप्न और संकल्प एक साथ घुलमिल जाते हैं। छोटे से छोटे, साधारण और महत्त्वहीन लोग भी क्रांति की आभा से चमकने लगते हैं। युगों-युगों से बहती वेदना की नदियों का जल पीकर वे खुद को व्यक्त्विन्तरित करते हैं। बच्चे, बड़े, बूढ़े सभी एक साथ दुश्मन पर टूट पड़ते हैं-“राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर/पहाड़ों के झरने/तड़पने लग गये/मिट्टी के लोंदे के भीतर/भक्ति की अग्नि का उद्रेक/भड़कने लग गया।/धूल के कण में/अनहद नाद का कम्पन/ख़तरनाक!!/मकानों की छत से/गाडर कूद पड़े/धम से!/घूम उठे खम्भे/भयानक वेग से चल पड़े हवा में।/दादा का सोंटा भी करता है दाव-पेंच,/गगन में नाच रही कक्का की लाठी।/यहाँ तक कि बच्चे की पेमें भी उड़तीं,/तेजी से लहराती घूमती/मुन्ने का सलेट-पट्टी!/एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,/ये परमास्त्र हैं, यम हैं।/शून्याकाश में से होते हुए वे/अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार” (मुक्तिबोध/’अँधेरे में’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-352)।

एक अन्यायी, अत्याचारी शासक वर्ग कभी स्वेच्छा से अपनी सत्ता का परित्याग नहीं करता। वह ताकत के बल पर जन विद्रोह और जनक्रांति के दमन का हर संभव प्रयत्न करता है। अतः जनता को भी मजबूर होकर शस्त्र उठाना पड़ता है। इसलिए उपर्युक्त पंक्तियों की तरह अपनी अन्य कई कविताओं में मुक्तिबोध ने जनता के सशस्त्र संघर्ष का उत्साहजनक चित्र खींचा है-“मुझे मालूम,/अनगिन सागरों के क्षुब्ध कूलों पर/पहाड़ों-जंगलों में मुक्तिकामी लोक-सेनाएँॅ/भयानक वार करतीं शत्रु-मूलों पर/व मेरे स्याह बालों में उलझता और/चेहरे पर लहरता है/उन्हीं का अग्नि-क्षोभी धूम” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-239)!! मुक्तिबोध के कलावादी प्रशंसक उनके सशस्त्र संघर्ष में विश्वास और समाजवाद के स्वप्न के बारे में चर्चा करने से कतराते हैं। वे आधे मुक्तिबोध को स्वीकार करते हैं और आधे के बारे में चुप्पी साध लेते हैं।

युगों-युगों से पीड़ा और दर्द के समुन्दर में डूबते-उतराते लोगों की वेदना और बेचैनी को आत्मसात करने के बाद मुक्तिबोध के अन्तर्मन में एक सुन्दर समाज का स्वप्न पलता है। उनका समस्त द्वन्द्व, तनाव, बेकली और संघर्ष इसी स्वप्न को साकार करने के लिए है। उन्हें उस दिन की प्रतीक्षा है जब शोषण के विकराल बोझ के भीतर दबे तमाम व्याकुल और बेचैन लोग अपनी समस्त जीवनी शक्ति को संचित कर उसे उलटकर गर्व के साथ उठ खड़े होंगे। शताब्दियों के दुखों के अंधकार के भीतर से क्रांति की आग भड़केगी। जन-मन के अतल में उमड़ता-घुमड़ता क्षोभ बेहिसाब दबावों को ध्वस्त करता हुआ ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ेगा-“मेरे देश भारत में,/पुरानी हाय में से/किस तरह से आग भभकेगी,/उड़ेंगी किस तरह भक् से/हमारे वक्ष पर लेटी हुई/विकराल चट्टानें/व इस पूरी क्रिया में से/उभरकर भव्य होंगे, कौन मानव गुण?/....... समस्या एक-/मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में/सभी मानव/सुखी, सुन्दर व शोषण-मुक्त/कब होंगे” (मुक्तिबोध/’चकमक की चिनगारियाँ’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-240, 43)?

मुक्तिबोध के द्वारा उठाया गया यह मौलिक प्रश्न कि ’मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में/सभी मानव/सुखी, सुन्दर व शोषण मुक्त कब होंगे’?-आज भी हमारे समक्ष मुँह बाये खड़ा है। उनके समतामूलक समाज का स्वप्न अभी साकार किया जाना शेष है। हम मानवीय सभ्यता के अत्यन्त ही संकटग्रस्त समय में हैं, जहाँ मनुष्य विरोधी ताकतें मानवीय सभ्यता के रथ के चक्के को विपरीत दिशा में ठेल रही है। जो भी सुखद, शुभ और सुन्दर है, उसे दानवी शक्तियाँ अपने खूनी पंजे में जकड़ती जा रही हैं। संघर्ष की जगह सहनशीलता और समर्पण बढ़ा है। क्रांतिकारी ताकतें असंगठित हैं और प्रतिक्रियावादी ताकतें एकजुट और आक्रामक। हमारे असंख्य लोगों के जीवन में दुःख जड़ होकर ठहर गया है लेकिन कुछ उपभोग से अघाये हुए लोग अट्टाहास कर रहे हैं। ऐसे समय में हमें अपनी भूमिका तय करनी है। जनविरोधी, मनुष्यविरोधी बाढ़ में बहने से अपने को रोके रखना है। बुद्धि की तीक्ष्णता और धार को कुंद होने से बचाना है। हृदय का दायरा संकुचित न होने देना है। इस संकट के दौर में यही हमारे साधन और हथियार हैं-“तुम्हारे पास, हमारे पास,/सिर्फ़ एक चीज है-/ईमान का डण्डा है,/बुद्धि का बल्लम है,/’अभय की गेंती है/हृदय की तगारी है-तसला है/नये-नये बनाने के लिए भवन/आत्मा के,/मनुष्य के,” (मुक्तिबोध/’कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-289)। इसके साथ ही हमें अपनी कमजोरियों को स्वीकार करना है। अपनी आत्मालोचना की पीड़ा से गुजरना है। अपने विश्लेषणों, निष्कर्षों, कार्यनीतियों और रणनीतियों पर पुनर्विचार करना है। मानवीय सभ्यता को अगले पड़ाव तक ले जाने की जिम्मेवारी जिन मार्क्सवादी और समाजवादी लोगां के कंधों पर थी, उनकी भूमिका के संदर्भ में मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ आत्मालोचन का अवसर प्रदान करती है-“ठीक है कि हम भी तो दब गये,/हम जो विरोधी थे/कुओं-तहखानों में कैद-बन्द,/लेकिन, हम इसलिए/मरे कि ज़रूरत से/ज्यादा नहीं, बहुत-बहुत कम/हम बाग़ी थे” (मुक्तिबोध/’एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-137)!!

देश और समाज में आमूल-चूल परिवर्तन और क्रांतिकारी बदलाव हमेशा सचेत और सक्रिय जनता के माध्यम से ही संभव है पर जनसाधारण में भी कई तरह की कमजोरियाँ और बुराईयाँ होती हैं। ऊँच-नीच, जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय कई तरह के दुर्गुणों से वह लिथड़ी होती है। छद्म चेतना और अंधविश्वास से घिरी होती है। इस जन जीवन में गहरे पैठकर इन तमाम गंदगियों और कचरों को साफ किये बिना, उनमें फँसे मनुष्यों को उससे बाहर निकाले बिना, किसी सभ्य और सुन्दर समाज का निर्माण संभव नहीं है। मुक्तिबोध इसीलिए अपनी कई कविताओं में मेहतर की भूमिका अपनाना चाहते हैं। सचेत मध्यवर्ग को यह भूमिका अपनानी ही होगी। दूसरी तरफ अन्याय और अत्याचार पर आधारित सभ्यता की अपनी बंदिशें, क्रूरताएँ, यातनाएँ और मकड़जाल हैं। इनसे भी मुक्ति के लिए उन्हें प्रेरित करना है। यह संघर्ष दुतरफा है। जनता की कमजोरियों से भी और सत्ता के शोषण, दमन और यातनाओं से भी। इस संघर्ष के लिए सचेत और प्रतिबद्ध मध्य वर्ग को अपने जीवन को समिधा बनाना होगा। अपने समस्त मध्यवर्गीय संस्कारों से मुक्त होकर जन-जीवन के गहरे अंधकार में उतरकर उन्हें चेतना से दीप्त करना होगा-“बीच सड़क में खुला है एक अँधेरा छेद,/एक अँधेरा गोल-गोल/वह निचला-निचला भेद,/जिसके गहरे-गहरे तल में/गहरा गन्दा कीच।/उनमें फँसे मनुष्य...../घुसो अँधेरे जल में/-गन्दे जल की गैल/स्याह भूत से बनो, सनो तुम/मेन होल से मनों निकालो मैल/काल अग्नि के बनो प्रचण्ड हविष्य/जबकि सभ्यता एक अँधेरी/भीम भयानक जेल-/तोडो़ जेल, भगाओ सबको, भागो खुद भी,” (मुक्तिबोध/’भविष्यधारा’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-123)!! यह संक्रमण का काल है। संवेदनशील चिन्ता-ग्रस्त और बेचैन लोगों को धीरज रखने की जरूरत है। पक्षियों द्वारा अंडों को सेने की तरह। भविष्य के गर्भस्थ चूजे अभी काल के कड़े और कठोर खोल में कैद हैं। ऐसे समय में मुक्तिबोध की कविताएँ हमें सीख देती हैं कि हम धैर्य के साथ व्यापक और उपेक्षित जन-जीवन से अपना सम्बन्ध और सम्पर्क बनायें रखें। हमें जीवन के चमकते रत्न वहीं मिलेंगे। उन्हीं के भीतर और बाहर का सम्पूर्ण सर्वेक्षण कर हम अपनी बुद्धि और ज्ञान को सम्पन्न करें, जिसके आलोक में भविष्य के सचेत, सकर्मक और दृढ़ प्रतिज्ञ लोग आगे बढ़ेंगे-“ओ नागात्मन्/ संक्रमण-काल में धीर धरो,/ईमान न जाने दो!!/तुम भटक चलो,/इन अन्धकार- मैदानों में सर-सर करते!!/शत उपेक्षिता भूमि में फिँके/चुपचाप छिपाये गये/शुक्र, गुरु, बुध, मंगल/कचरे की परतों-ढँके तुम्हें मिल जायेंगे!!/खोदो, जड़ मिट्टी को खोदो!/ओ भू-गर्भशास्त्री,/भीतर का बाहर का/व्यापक सर्वेक्षण कर डालो,” (मुक्तिबोध/’ओ काव्यात्मन् फणिधर’/मुक्तिबोध रचनावली : दो/वही0, पृ0-184)।

कुल मिलाकर मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो उनकी कविताएँ ज़िन्दगी की कोख से जनमा हुआ नया इस्पात है, जिससे बेहतर इन्सान और एक सुन्दर समाज का ढाँचा खड़ा किया जा सकता है। आज झूठ के इस फैलते साम्राज्य में ’सत्य से सत्ता के युद्ध’ के विरूद्ध उनकी कविता में चमचमाते आयुधों की कमी नहीं है। उन्हें विश्वास है कि ’ज़िन्दगी बुरादा है तो बारूद बनेगी ही’। इस अँधेरी रात के जंगल में आग के फूल अवश्य खिलेंगे। उनकी कविताओं में युगों से बहती मनुष्य की वेदना नदियों की एक-एक लहरों का लेखा-जोखा होने के साथ-साथ मानव मुक्ति के शिलालेख भी हैं। धरती के भीतर बहती धारा के तल में चमकते पत्थरों और द्युतिमान मणियों से लेकर जंगल, पठार, पहाड़, समुद्र से लेकर ब्रह्माण्ड के नेब्युलाओं तक उनकी कविता का प्रसार है। उन सबके भीतर और बाहर का व्यापक सर्वेक्षण है।

समकालीन कविताएँ अपने शिल्प में पुनः नई कविता की कटी-छँटी, बनी-सँवरी कविताओं की ओर लौट रही हैं। उनमें जीवन द्रव्य और जीवन राग की कमी है। मुक्तिबोध ने नई कविता को जिस तरह मध्यवर्गीय और नगरीय बोध के दायरे से बाहर निकाला और लम्बी कविता के जटिल शिल्प को विकसित किया, उससे प्रेरणा लेकर समकालीन कविताएँ अपनी जड़ता को भंग कर सकती हैं। मुक्तिबोध की भाषा वजनदार पत्थर की तरह है जो चोट करती है, दिल की गहराई में उतरती है, खुद को और विरोधियों को लहूलुहान करती है और आकाश के सघन अंधकार में रोशनी की सूराख बनाती है। उनके गैर पारंपरिक बिम्ब धरती के गर्भ से निकले अनगढ़ तप्त रत्नों की तरह रश्मियाँ बिखेरते हैं। उनकी कविता में यथार्थ के विकट अनुभव, तीक्ष्ण और धारदार विचार, विकल जनवेदना, दिमाग की नसों को दरका देने वाला तनाव, जन साधारण के प्रति गहरी श्रद्धा और आस्था एवं रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा देने वाले स्वप्न आपसी अन्तर्क्रिया से एक ऐसा सान्द्र जीवन द्रव्य तैयार करते हैं जो हमें पूरी तरह रूपान्तरित कर देता है। हमारी दुनिया बहुत बड़ी हो जाती है। ये कविताएँ हमारी आन्तरिक शान्ति को विनष्ट कर हमें गहरे रूप में उद्वेलित करती हैं। वह धोबी के कपड़े की तरह हमें भिगोती है, पछीटती है और सत्य की रोशनी में वक्त की रस्सी पर सूखने को डाल देती है।

 

सियाराम शर्मा का पता है-

7 / 35 इस्पात नगर रिसाली सेक्टर

भिलाई नगर जिला दुर्ग छत्तीसगढ़

मोबाइल नम्बर- 09329511024

 

 

 

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दारू के अड्डे में लेखक किशनलाल की किताब का विमोचन

रायपुर. देश-प्रदेश के आत्ममुग्ध लेखकों और साहित्यकारों को यह खबर थोड़ी खराब लग सकती है, लेकिन यह हकीकत है कि छत्तीसगढ़ के एक लेखक किशनलाल ने अपनी तीसरी किताब चीटियों की वापसी का विमोचन दारू के अड्डे (अहाते ) पर किया. इस जगह का चयन  क्यों किया गया...? इस बारे में स्वयं किशनलाल कहते हैं- उपन्यास में जो मजदूर पात्र शामिल है वे यहीं आसपास रहते हैं. जिनके लिए लिखा गया है वहीं लोग इसका विमोचन करें... यह उनकी हार्दिक इच्छा थीं.

 

सामान्य तौर पर सभ्य लोग जिनमें साहित्यकार भी शामिल है वे शराब दुकान जाने से हिचकिचाते हैं. कभी जाना भी हुआ तो मुंह पर कपड़ा बांधकर बचते-बचाते पहुंचते हैं और चुपके से बोतल लेकर घर का रूख कर लेते हैं. हालांकि जब हरिवंश राय बच्चन ने मधुशाला लिखी थी तब शराब ठिकानों का एक क्रेज हुआ करता था... धीरे-धीरे साहित्यकार सिर्फ बेवड़े होकर रह गए और साहित्य पीछे छूट गया. अब साहित्यकार या तो बंद कमरे में लिखते हैं या फिर सरकारी खर्चें पर विश्वविद्यालयों में लेक्चर देते हुए नजर आते हैं. लेखक किशनलाल कहते हैं- मैं जब शराब ठिकाने के अहाते में आयोजन के बारे में सोच रहा था तब यह सवाल भी सामने आया कि शराबखाना या आहाता पवित्र नहीं है, लेकिन मेरे लिए हर जगह पवित्र है. दूसरी एक बात यह भी है कि ऐसी जगहों पर कार्यक्रम करने पर किराया नहीं देना पड़ता है. लेखक ने कहा कि अधिकांश साहित्यकार संकीर्ण, पूर्वाग्रही और दोहरा चरित्र रखकर जीते हैं. तथाकथित मुख्यधारा के साहित्यकार दलित साहित्य को हेय और उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं जबकि गुणवत्ता की दृष्टि से हमारा लेखन भी किसी से कम नहीं है.    

आपको बता दें कि कार्यक्रम राजधानी के आमा सिवनी स्थित शराब दुकान के अहाते में किया गया. कार्यक्रम को देखने-सुनने के लिए बड़ी संख्या में ऑटो-रिक्शा चालक, बढ़ई, मिल-कारखानों के मजदूर व भवन निर्माण करने वाले कामगार मौजूद थे. कार्यक्रम के अतिथि के रूप में रूपचंद रात्रे, तुलेश्वर सोनवानी, जितेन्द्र चेलक और छोटू जोशी मौजूद थे. ये सभी मजदूर राजधानी के डॉ. भीमराव अंबेडकर वार्ड के मोवा निवासी हैं जो कि उपन्यास के पात्र हैं. अतिथियों के स्वागत व कृति के विमोचन के बाद लेखक किशनलाल ने उपन्यास के महत्वपूर्ण हिस्से का पाठ किया. कार्यक्रम इतना दिलचस्प हो गया था कि लोग कुछ देर के लिए शराब पीना छोड़कर बड़े ध्यान से रचनाकार के पाठ को सुनने लगे थे.

नवभारत में छपी थी पहली कविता

किशनलाल नाम छत्तीसगढ़ के साहित्य-पाठकों के लिए कोई नया नहीं है. इनकी कई कविताएं, कहानियां, व्यंग्य, लेख आदि रायपुर से प्रकाशित विभिन्न समाचार पत्रों के अलावा राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. साथ ही दर्जनों कविताएं और कहानियां आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित हो चुकी हैं. किशनलाल ने बताया कि उनकी कविता पहली बार नवभारत में ही प्रकाशित हुई थी. जब वे बीए में पढ़ रहे थे तभी पहली बार आकाशवाणी रायपुर में उनकी कविताएं प्रसारित हुई थीं। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिकाएं सूत्र, ककसाड़, वागर्थ, बया सहित अन्य में रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है.

कई अखबारों में कर चुके हैं काम

केंद्रीय विद्यालय, जवाहर नवोदय विद्यालय सहित विभिन्न हायर सेकंडरी स्कूलों में हिन्दी अध्यापन कर चुके  उपन्यासकार किशनलाल एक बेहतर पत्रकार भी हैं. वे प्रखर समाचार, देशबंधु, जनसत्ता, नवभारत, पत्रिका और पायनियर जैसे अखबारों में उप संपादक की हैसियत से कार्य कर चुके हैं.  वर्तमान में वे राजधानी के एक वेब न्यूज चैनल में वरिष्ठ उपसंपादक के तौर पर कार्यरत है.

कविता से ही हुई थी शुरूआत

छत्तीसगढ़ के एकमात्र दलित उपन्यासकार के रूप में ख्यात किशनलाल ने अपने लेखन की शुरुआत कविताओं से की थी। इनका पहला काव्यसंग्रह 'जहां कवि होगा' उद्भावना प्रकाशन गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है. दूसरी कृति के रूप में इन्होंने दलित चेतना पर केंद्रित अपना पहला उपन्यास 'किधर जाऊं' लिखा. इस उपन्यास से किशनलाल को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली. इसी कृति पर उन्हें लखनऊ से प्रथम लोकोदय नवलेखन सम्मान प्राप्त हुआ. इसके अलावा उन्हें  स्व. बंशीलाल भारद्वाज साहित्य व पत्रकारिता सम्मान भी मिल चुका है. 'चींटियों की वापसी' एक उपन्यास है जो पूरी तरह रायपुर शहर पर केंद्रित है.

( किशनलाल को इस मोबाइल नंबर पर बधाई दी जा सकती है- 7389714155 ) 

 

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आज हिंदी दिवस पर विशेषः राजभाषा को जनभाषा बनाने के लिए करना होगा आंदोलन

अम्बरीश त्रिपाठी

भारत को प्राचीनतम गणतंत्र-जनतंत्र होने का गौरव प्राप्त है लेकिन  दो- ढाई हजार सालों  तक के इतिहास में जनता या जनगण की भाषा राजभाषा नहीं रही। जब जनता  पाली, प्राकृत ,अपभ्रंश और बोलियों के समूह के रूप में हिंदी का प्रयोग कर रही थी तो शासन क्रमशः संस्कृत, पाली, अरबी, फ़ारसी ,अंग्रेजी को राजभाषा के रूप में व्यवहृत कर रहे थे। इस बड़ी सांस्कृतिक और भाषिक विरोधाभास की पृष्ठभूमि में 14 सितंबर 1949 में स्वतंत्र भारत की संविधान ने जनभाषा हिंदी को इतिहास में पहली बार राजभाषा का दर्जा दिया।

 राजभाषा का मतलब है राज-काज की भाषा,अर्थात शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा अर्थात सरकार और जनता  के बीच होने वाली संवाद की भाषा। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भी गणतंत्र का मतलब जनता का,जनता द्वारा जनता के लिए ही शासन होता है।यहाँ पर राजभाषा का उद्देश्य भी जनता के कल्याण में ही निहित होना चाहिए। पर ऐसी बात है नहीं। क्योंकि हम शीघ्र ही भूल गए कि अरबी ,फारसी और अंग्रेजी आदि भाषाओं को ही राजभाषा बनाकर  भारतीय जनता के बहुविधि शोषण का मार्गप्रशस्त किया जाता रहा।और आज आज़ादी के70 से अधिक सालों बाद भी राजभाषा हिंदी जनभाषा हिंदी से कोसों दूर है,अलग है।

 हिंदी की अनेक बोलियों और उनके समृद्ध साहित्य ने हिंदी को राजभाषा बनने का आत्मविश्वास दिया।विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी और मीरा सरीखे रचनाकारों ने देश के कोने कोने तक हिंदी की मधुर तान पहुंचाई।" निज भाषा उन्नति अहै ,सब उन्नत को मूल । बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल।। " आजादी के नारों का मूल स्वर बन गया था।आज़ादी का सूरज उगने की लालिमा के साथ ही भारत के बहुसंख्यक समुदाय द्वारा समझी बोली जाने वाली जनभाषा हिंदी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा का दर्जा देने की मांग प्रखर होती चली गई। अंततः राजभाषा के रूप में हिंदी को संवैधानिक दर्जा दे दी गई। और इस तरह जनभाषा हिंदी को राजभाषा बनाने का संघर्ष सफल हुआ। तो क्या अब हम कह सकते हैं कि राजभाषा  हिंदी ही भारत की जनभाषा है? नहीं।

राजभाषा के लिए पारिभाषिक शब्दों का निर्माण मुख्य रूप से- सृजन, ग्रहण,संचयन एवं अनुकूलन जैसी चार प्रक्रियाओं द्वारा हुआ।अँग्रेजियत से प्रभावित कुछ विद्वानों ने अंग्रेजी रूप या उसके निर्जीव अनुवाद /पर्याय के रूप में अधिकाधिक पारिभाषिक शब्दों का गठन किया।इस प्रक्रिया पर गुरुदेव टैगोर ने कड़ी टिप्पणी की थी" हमने अपनी आँखें खोकर चश्मे लगा लिए हैं "। दरअसल हिंदी राजभाषा तो बनी पर अकबर इलाहाबादी के शब्दों में कहूँ तो -"उन्हीं के मतलब की कह रहा हूँ , ज़बान मेरी है बात उनकी।" 

दरअसल  हिंदी को राजभाषा के रूप में गढ़ने वाले लोग अधिकांशतः उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोग थे।जिनके खुद की उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी ही रहा।उस समय की बड़ी जरूरत भी थी अंग्रेजी की प्रचलित परंपरा के बरक्स हिंदी को खड़ी करने की। संविधान में इसके लिए 15 वर्ष का समय भी निर्धारित किया गया। 15 वर्षों बाद भी अंग्रेजी तो हटी नहीं और खुद राजभाषा भी अंग्रेजीदां हो गई। विडंबना यह भी हुई कि जो राजभाषा तैयार हुई वो न जनता की भाषा थी, न ही महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली भाषा। सात दशकों बाद भी आज संघ लोक सेवा और राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं सहित लगभग सभी महत्वपूर्ण परीक्षाओं में  विवाद की स्थिति में प्रश्नपत्र का अंग्रेजी रूप ही क्यों मान्य है। हम आज तक राजभाषा हिंदी में कोई मौलिक प्रश्नपत्र क्यों नहीं तैयार कर सके। समानता के नाम पर अंग्रेजी के स्टील प्लांट को इस्पाती पौधा अनूदित करना कौन सा न्याय है , इंडिविजुअल की हिंदी व्यष्टिक करना और मॉडिफिकेशन को आपरिवर्तन कर कौन सा उद्देश्य पूरा किया जा रहा है वह भी संघ लोक सेवा जैसी प्रतिष्ठित परीक्षा में। क्या ये हिंदी माध्यम को हतोत्साहित करने का उपक्रम नहीं है। क्या अंग्रेजी की तरह ही राजभाषा हिंदी भी आम जनता को डराने वाली भाषा के रूप में आज भी नहीं व्यवहृत हो रही है।एक आम आदमी से अपेक्षा की जाती है कि वो जीएसटी जाने , इंटरप्रेनुरेशिप बोले ,प्रोटोकॉल फॉलो करे पर वही अधिकारी लोक में बहुप्रचलित शब्दों नरवा,गरवा, घुरवा और बाड़ी को बोलना ,जानना नहीं सीख पाता या सीखने से कतराता है।

हमारे देश के सफल लोकतंत्र में जब एक चायवाला व्यक्ति प्रधानमंत्री बन सकता है तो चाय के दुकानों पर बोली जाने वाली समझी जाने वाली भाषा के शब्द राजभाषा में क्यों नहीं शामिल हो सकते। जिस गरीब वंचित तबके के लिए उज्ज्वला गैस योजना लागू किया गया क्या वो लोग उज्ज्वला बोल लिख और समझ पाते हैं। अनुपम मिश्र ने राजभाषा हिंदी पर चुटकी लेते हुए एक बार कहा था कि 'सामाजिक वानिकी' पद रचने वाले जरा ये समझायेंगे कि असामाजिक वानिकी भी कोई शै होती है क्या ? वानिकी अपने आप में सामाजिक नहीं है क्या? 

हमें इस बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए कि जिस हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए बहुत लड़ाइयां लड़ी गई वही राजभाषा हिंदी अब आम जन से बहुत दूर हो गई है। राजभाषा में राज शब्द राजा या विशेष वर्ग के लिए नहीं अपितु शासन को सुचारू रूप से चलाए जाने के लिए प्रयुक्त हुआ है। और शासन भी जनता के कल्याण  के लिए। इसलिए राज को जनता के करीब लाने के लिए, राजभाषा हिंदी को जनभाषा बनाने के लिए आज पुनः एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ी करने की जरूरत है। एक ऐसी राजभाषा जो जड़ या निर्जीव न रहे अपितु ऐसी भाषा जो समय और परिवेश के अनुरूप जनता के सुख-दुःख, आवश्यकताओं को स्वर दे सके।सरकार और जनता के बीच संवाद सेतु के रूप में सदैव गतिशील रहे।

सहायक प्राध्यापक हिंदी, शासकीय महाविद्यालय, मचांदुर दुर्ग ( मोबाइल- 7489164100 ) 

 

 

 

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