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अभी खत्म नहीं हुई है छत्तीसगढ़ी फिल्मों की विकास यात्रा

अभी खत्म नहीं हुई है छत्तीसगढ़ी फिल्मों की विकास यात्रा

जाने कब शर्म आएगी छत्तीसगढ़ी फिल्मकारों को... इस लेख पर प्रतिक्रियाओं का क्रम जारी है. नाटकों और फिल्मों में सक्रिय रहने वाले योग मिश्रा ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है. यहां जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं.

 

योग मिश्रा

प्रेमचन्द ने लिखा साहित्य समाज का दर्पण है। उसी तरह सिनेमा समाज का चेहरा है। हर दौर का चेहरा सिनेमा में नज़र आता है। सिनेमा की विषयवस्तु कोई फिल्मकार नहीं असल में समाज गढ़ता रहा है। पहली फिल्म हरिशचंद्र से लेकर हाल में आई फिल्म संजू भी हमारे समाज का ही चेहरा है। फिल्मकार केवल अनुमान लगाता है कि लोग क्या देखना पसंद करेंगे? 

यहाँ से फिल्मकार की अपनी सूझबूझ और अनुमान की जुगत से एक हिट फिल्म का मासविदा तैयार करने कि प्रक्रिया आरम्भ होती है। फिल्मकारों के व्यक्तिगत अलग-अलग अनुभवों से संवरकर बनती बिगड़ती हैं हमारी फिल्में। 

फिल्मकारों ने जब कभी टायलेट में उकेरी गई मनुष्य में दबी छुपी यौनिकता को देखा होगा तभी समझ लिया होगा कि लोग ये-ये भी देखना चाहते हैं। नहीं तो साधु-संन्यासियों के इस अध्यात्मिक देश में अश्लीलता दिखाने का कोई कैसे साहस करता? फिल्मकारों ने रामलीला सूर्पनखा के नाक कटने पर लोगों को ताली बजाता देख कर कुछ प्रेरणा ली। कुछ महाभारत से चीरहरण के दृश्य से प्रेरित होकर स्त्री के बदन कपड़े खींच लिए होंगे। लोगों का रूझान सिनेमा में इन दृश्यों से लौट आया तब फिल्मकारों ने अश्लीलता को हिट फिल्म बनाना का सबसे आसान फार्मूला मान लिया होगा। जनता ने भी उस पर हमेशा अपनी मुहर लगाकर निश्चित किया है कि हम यही देखना चाहते हैं। जब संजू फिल्म में घपा घप्प या खापीचो में सीटी पड़ती है और सिनेमा हिट हो जाती है। दूसरी तरफ माँझी या रंगरसिया जैसी फिल्म दर्शकों का इन्तजार करते थक जाती हैं। ऐसे में कोई फिल्मकार अपने पैसे डुबाकर कितना रिस्क ले सकता है? 

जो भी समानान्तर सिनेमा या कला फिल्में या सरोकार का कोई सिनेमा हमारे सामाने आया है वह ज्यादातर एनएफडीसी के अनुदान पर जनता के पैसे से बनीं फिल्में हैं। इन फिल्मों के निर्माण से एनएफडीसी का भट्टा बैठ गया था। अब एनएफडीसी ने अपने हाथ खींच लिए तो ऐसी फिल्में भी कम नजर आ रही हैं। 

अभी नये सिनेमा का एक नया दौर चला है बहुत अच्छी सार्थक फिल्में नये और महत्वपूर्ण सब्जेक्ट पर बनकर हमारे सामने आई हैं। सब नये और कम उम्र के डायरेक्टर हैं अपने ताजगी भरे बिल्कुल नए विषय और नई सोच के साथ अपनी फिल्में लेकर दर्शकों के सामने आ रहे हैं। तो कब्जियत जैसे मुँहकान सिकोड़ने वाले विषय पर भी रोचक फिल्म संभव हो रही है। बधाई हो बधाई जैसे समाज में व्याप्त बड़ी उम्र की प्राकृतिक समस्या पर बहुत ही बेहतरीन फिल्म फार्मूला फिल्मों के बीच से निकल कर सामने आ रही है तो यह परिणाम है अच्छी बुरी हिन्दी फिल्मों के लंबे संघर्ष का केवल महान फिल्म बनाना है भर सोचते रहने पर केवल आलोचना ही सामने आ सकती है। सिनेमा में सुधार प्रयत्न से आएगा प्रयत्न खराब भी होगा लेकिन समय के साथ उसमें सुधार की संभावना है लेकिन अच्छे विचार आने पर ही सिनेमा बनाऊँगा सोचते रहने वाले सिनेमा नहीं बना सकते पर सिनेमा खराब विषय को भी अच्छे से दिखा सकती है यह प्रयत्न से ही संभव है छत्तीसगढ़ी सिनेमा यह प्रयत्न करता दिखाई दे रहा है। 

अपने हरेक दौर में बदलते समाज के साथ सिनेमा बदलता रहा है। छत्तीसगढ़ी सिनेमा में भी बदलाहट की अंगड़ाई दिखाई दे रही है यहाँ साहित्य पर आधारित फिल्में बनाने के जो प्रयास हुए हैं यह प्रमाणित देते है। लेकिन अच्छी फिल्में बनाने के लिए छत्तीसगढ़ी सिनेमा को भी हिन्दी फिल्मों की तरह अब सरकारी मदद की दरकार है। आप इसे शर्म कहते हैं तो यह आपकी क्षुद्रता है। क्या आप इस पर शर्म कहेंगे कि छत्तीसगढ़ में सिनेमा बनाने के लिए अब हमें केवल सेंन्सर करवाने या युएफओ में फिल्म लोड करने मात्र के लिए छत्तीसगढ़ से बाहर जाना पड़ता है? यह सब छत्तीसगढ़ी फिल्में बनाने वालों ने अपने जुनून में छत्तीसगढ़ में खड़ा किया है। आज भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भी छत्तीसगढ़ में हो रही है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों से काफी पुराना इतिहास है भोजपुरी फिल्मों का। भोजपुरी फिल्में दुनिया भर में देखी जाती हैं। पर छत्तीसगढ़ी फिल्मों को छत्तीसगढ़ में ही जगह नहीं मिल पा रही है हम छत्तीसगढ़ी फिल्में मल्टीप्लेक्स में दिखाने जो माँग कर रहे हैं उस पर आपको शर्म आ रही है राजकुमार सोनी

 

मैं आपको बता दूँ क्वालिटी के लिहाज से हमारी छत्तीसगढ़ी फिल्में भोजपुरी फिल्मों से आज काफी बेहतर बन रही हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी फिल्में दिखाने के लिए स्थान बहुत सीमित हैं। हिन्दी फिल्मों की शूटिंग में जितना खर्च पानी की बोतलों का है। उतने पैसे में छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाई जा रही हैं। उसमें जितनी क्वालिटी लाई जा सकती है हम लाने का प्रयास कर रहे हैं। यहाँ लोगों के जुनून में फिल्में बन रही है। अब यह जुनून रायपुर से निकल कर दुर्ग भिलाई राजनाँदगाँव जगदलपुर बिलासपुर कोरबा से होता हुआ जशपुर अम्बिकापुर तक फैल गया है। फिल्में बनाना आसान है पर उसे सिनेमाघरों में लगाना बहुत कठिन है यह आन्दोलन उन नये निर्माताओं की फिल्में आसानी से सिनेमाघर उपलब्ध कराने के लिए है। 

निःसंंदेह छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मीनमेख निकालने जाएं तो ढेर निकाली जा सकती है। यह किसी अच्छी से अच्छी फिल्म में भी संभव है। लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों का सतत् विकास आप कहि देबे संदेश से तहुँ कुँवारी... तक में जरूर पाएंगे। आपके लेख से एक घटना की याद आती है कि 'एक चित्रकार ने अपनी बनाई एक पेंटिंग शहर के चोहराहे पर लगाई और नीचे लिख दिया इसमें क्या-क्या गलत है बताएं शाम को आया तो लोगों ने इतनी गलतियाँ गिना दी थी कि उसकी पेंन्टिग पूरी नष्ट हो गई थी। उसने फिर एक पेंटिंग बनाई और शहर के उसी चौक में उसी जगह पेंटिग लगाई और नीचे लिख दिया कि यदि इसमें आपको कहीं गलती नज़र आए तो उसे सुधार दें। शाम को वह जब लौटा तो उसे पेंटिंग वैसी ही मिली जैसी उसने बनाई थी और वहाँ लगाकर गया था।'

राजकुमारजी आप खूब त्रुटियाँ निकालें स्वागत है आपका वह हमारे सुधार के लिए आवश्यक भी है। हम सब चाहते हैं छत्तीसगढ़ी फिल्मों का स्तर सुधरे। अच्छे सब्जेक्ट पर अच्छी फिल्में बनें। लोग अच्छा सिनेमा पसंद तो करें पहले। चंद सिनेमा को छोड़ दें तो आम दर्शकों की पसंद ऊ-ला-ला-ऊ-ला-ऊ है। निर्माता जो सिनेमा में पैसा लगाता है उसे सब्जेक्ट आपकी विचारधारा आपके सामाजिक सरोकार से ज्यादा अपने पैसों के लौटने कि ज्यादा चिंता होती है। जो बिजनेस की दृष्टि से नाजायज भी नहीं है।यह धंधे का उसूल है। अब सारा नैतिक दायित्व आता है निर्देशक के ऊपर। वह हिट फिल्म के आजमाए फार्मूले जो निर्माता को फायदा पहुँचाते रहे हैं वैसी फिल्में बनाए या निर्माता उसे टाटा बाय बाय कह दे निर्माता के लिए निर्देशकों की कमी नहीं है। इसलिए आपका छत्तीसगढ़ी सिनेमा के लिए शर्म वाला यह लेख इस व्यवसाय की जमीनी हकीकत को नाम मात्र भी टच नहीं करता है। यह लेख एक थोथा पूर्वाग्रह से भरे ज्ञान का पुलिंदा मात्र है।

आप को विदित ही है कि हिन्दी सिनेमा का कैनवास हमारी हिन्दी भाषा से बहुत बड़ा है। हिन्दी सिनेमा में हिन्दी भाषा का ही प्रयोग नही होता उसमें मराठी, मलयाली, कन्नड़, गुजराती, तमिल, पंजाबी, बंगाली, उर्दू , अंग्रेजी, अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, उड़िया, नेपाली, सिंधी, हल्बी, कश्मीरी, आदि सभी बोली भाषाओं के पुट और लहजे भी मिलते जुड़ते रहते हैं। और इन बोली भाषाओं में डिजिटल क्रान्ति के बाद से खूब फिल्में भी बनने लगी हैं लेकिन इन फिल्मों को प्रदर्शित करने की एक बड़ी समस्या क्षेत्रीय बोली भाषा में फिल्में बनाने वालों के सामने हमेशा बनी रहती है। वैसे भी हमारे यहाँ बहुत थोड़े से सिनेमाघर हैं जो कि हिन्दी सिनेमा को ही कम पड़ते हैं। इसके अलावा जिन बोलियों को अभी भाषा का दर्जा नहीं मिला है उन्हें दूरदर्शन भी अपने यहाँ नहीं दिखाता है। ऐसे में क्षेत्रीय बोली भाषा का फिल्मकार जाए तो कहाँ जाए? कहाँ जाकर अपनी फिल्में दिखाए? बस इस छोटे से प्रयास के लिए है हमारा 5 जून का आन्दोलन है और आप हैं कि छत्तीसगढ़ी फिल्मों को देख शर्म के मारे डूब जा रहे हैं। आपका इसमें कोई दोष नहीं कुछ लोगों की नाक ही ऐसी है जरा जरा सी बात में कट भी जाती है।

क्षेत्रीयता ही भारतीयता की पहचान है यह आप भी समझें और हमारी सरकारें भी समझें। यही प्रयास हम सबका है। आपने पूर्व में हमारा समर्थन किया था। सरकार ने जरा सहजता से क्या हमारी समस्या सुनने हमें बुला लिया आप तो एक दम से असहज ही  हो गये साहब। आपकी नाक कट गई साहब कि कैसे इतनी आसानी से इन छत्तीसगढ़ी फिल्म वालों की समस्याएं सुन रही है छत्तीसगढ़ी सरकार? 

दरअसल कुछ लोगों का हित समस्याएं कायम रखने से सधता है। इसके अनेक उदाहरण इतिहास के आईने में हैं सब को है खबर सबको है पता।

मै पुनः आप को याद दिला दूँ कि सिनेमा का अपने समाज के साथ अन्योन्य संबंध रहा है। जैसा हमारा समाज होगा वैसा ही हमारा सिनेमा होगा। बदलती दुनिया का अब तक का समूचा रंग-ढंग सिनेमा के सौ साल के इतिहास में कैद है। बीते वर्षों के सिनेमा ने हमारी संस्कृति उसके चाल-चलन, फैशन, खान-पान के साथ हम सब कहाँ से चले थे और कहाँ-कहाँ से गुजारते हुए कहाँ आ पहुँचे हैं यह सब सिनेमा के भीतर दर्ज हो चुका है। हम कह सकते हैं कि सिनेमा हमारी पीढ़ी का एक मात्र जीवंत दस्तावेज है।

हरेक दौर के सिनेमा ने अपने दौर के समाज पर गहरा असर छोड़ा है। देश की आजादी के समय जहाँ सिनेमा ने देशभक्ति के गीत गाए थे तो वहीं सिनेमा का एक असर यह भी रहा है कि जब 'शराबी' फिल्म 1984 में आई तो बहुत से युवा यंग्री यंग मेन के राही भी हुए। और यह सिनेमा का ही असर था कि कुंआरा बाप फिल्म आई तो कई गरीब मेहनतकशों ने फिल्म देखकर अपने बच्चों को ऊँची तालीमें भी दिलवाई हैं। फिल्म निर्माण मनोरंजन के साथ एक समाजिक जिम्मेदारी भी है। जिसका उल्लेख आप के लेख में भी मिलता है। जो छत्तीसगढ़ी सिनेमा में भी भरपूर मिलता है। बहुत सी छत्तीसगढ़ी फिल्में बहुत ही अधकचरी सी होती हैं उसका फैसला छत्तीसगढ़ी आर्डीयंस स्वयं कर देती है।

मैं भी मानता हूँ कि हमारी छत्तीसगढ़ी फिल्में स्थानीय मुद्दों और समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यानाकर्षण कराती रहें। मैंने 'माटी के लाल' नाम से एक छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाई थी तो इस बात का खूब ख्याल रखा था कि स्थानीय मुद्दे सिनेमा में दिखें और निर्माता की इच्छा के अनुरूप सारे हिट फिल्मों के फार्मूले भी मैंने आजमाए थे। समय निकाल सकेंगे तो निश्चित ही छत्तीसगढ़ी सिनेमा को कहि देबे संदेश के समय से आज के समय के अनुरूप बदालता हुआ पाएंगे। 

विकास के साथ विनाश जुड़ा हुआ है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी विकास की कसमसाहाट है। विकास की वहु टूट-फूट कुछ छत्तीसगढ़ी फिल्में देखकर उसे छत्तीसगढ़ी फिल्मों का अन्तिम सत्य आपकी आँखों ने मान लिया है लेकिन छत्तीसगढ़ी फिल्मों की विकास यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई और न कभी होगी हर दौर की नजरें अपने दौर का विकास छत्तीसगढ़ी सिनेमा में चाहेंगी और यह सब हमारी नई पीढ़ियां संभव करती रहेंगी यदि छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माण आसान करने में आप जैसे समझदार लोग हमें दुरुस्त करते रहे सकारात्मक हौसला देते रहे। मुझे यह दिखाई देता है। विकास देखने के लिए आलोचक की दृष्टि के साथ अन्वेषक की नजर भी चाहिए जो आपके लेख में नदारद है। 

आपके पूर्वग्रही लेख पर हार्दिक सदभावना सहित मेरी यह टिप्पणी आपको नये नजरिए से छत्तीसगढ़ी सिनेमा की दिक्कतों को समझकर लिखने के लिए प्रेरित करेगी इस आशा के साथ शुभकामनाओं सहित आपके लेख से मेरी असहमति है।

 

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