साहित्य

आभा दुबे की सात कविताएं

आभा दुबे की सात कविताएं

आभा दुबे की पहचान एक प्रतिबद्ध कवयित्री के तौर पर कायम है. उनकी कविताओं का मुहावरा बेहद अलग है. वे निजी दुनिया से ज्यादा समाज के पीड़ित और वंचित तबके की चिंता करती है. अपनी कविताओं में वे सत्ती शौरीं,निर्भया , जेसिका, इरोम , आरुषि, शलभ श्रीराम को ससम्मान याद करती है तो आदिवासी लड़की हिसी के लिए भी प्यार उड़ेलकर खुश होती है. अपना मोर्चा के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनकी सात कविताएं.

एक-संभावनाओं के बीच

वह एक अकेला पेड़  है शहर में,जो बच गया है 

वहाँ बैठी शहर में बच गयी अंतिम  गोरैया बहुत उदास है                                  

गोरैये को  बताया गया था  शहर अब भी संभावना है 

जिसकी तलाश में वह रोज देखती है 

रौशनी से नहाये इस शहर में संभावनाओं का शव 

जो हर शख्श के सिरहाने तकिये की जगह पड़ा है 

सिरहाना छूटता नहीं

नींद आती नहीं 

पूरी रात चमगादड़ प्रेम की बीन बजाता है   

 

उसी शहर में आजकल रौशनी ,गोरैया और संभावनाओं के शव से इतर 

सिरहाना ,नींद और प्रेम में गुम 

खुद  को खोजता कवि 

शब्दों में शहर और शहर में प्रेम की संभावना ढूंढता है .

मगर कलम उठाते ही वह काशी के मणिकर्णिका में बदल  जाता है.

 

दो- तुम्हारे सुख की खातिर

जब चलना छोड़ चुकी थी तब तुम मिले

कहा - सफ़र ख़त्म नहीं होता 

जब मैंने अपनी आवाज खो दी 

तुमने भीतर से आवाज लगाई  

कि आवाज ही पहचान है 

मेरी हथेलियों पर मौजूद पहले की लकीरों को मिटाकर 

तुम कुछ नया लिखते रहे 

अचानक उभर आये वहाँ कई नाम 

सत्ती शौरीं,निर्भया , जेसिका, इरोम , आरुषि........और भी कई 

 

इन नामों में समाया पृथ्वी का दर्द 

पहले मेरी आँखों में उतर, आँसू बना 

फिर ग्लेशियर बन पिघलता रहा 

तुमने उसे नदी कहा 

गंगा-कावेरी-अलकनंदा-कोसी ......

तुम डूबकर नहाये और पवित्र हो गए 

तुम्हारी हर डुबकी से नदी की पीड़ा बढती रही 

वह सूखती गई 

सिमटती गई 

तुम्हारे सुख की खातिर 

मगर तुम्हारे लिए हर बार मैं सिर्फ नदी ही रही 

 

तीन- अनगढ़ता

कोई पत्थर

तब तक शिकार नहीं होता एकरूपता का

जिसे गढा नहीं गया हो

तराशकर दिया नहीं गया हो कोई रूप जिसे

नष्ट हो जाती है उसकी अनगढ़ता

किसी आकार में ढलते ही

मौजूदा दौर

मुफीद है गढ़ने और गढ़े जाने के विकल्पों के इस्तेमाल के लिए

 

मनमाफिक रूप , मनचाहा आकर देने की जिद में

खत्म की जा रही है अनगढ़ता अब दुनिया से

गढ़ा जा रहा है सब कुछ जुनून भरे हाथों से

सत्य भी गढ़ा जा रहा है झूठ की मिट्टी से

पत्थर हो कि हो आदमजात

आज चुनौती है

अपनी अनगढ़ता बचाए रखने की

समायी रहती है जिसमें कितने ही विराट रूपों की असीम संभावनाएं

जो पृथ्वी को सूरज से बड़ा साबित करने की कोशिश के खिलाफ

सबसे मजबूत हथियार है

 

पूरी पृथ्वी पर तारी बचने-बचाने के कोहराम के बीच

ये दौर मक्का-मदीना , मंदिर-मस्जिद ,नूतन-पुरातन

यहाँ तक कि प्रेमपत्र बचाने का भी नहीं

अनगढ़ता बचाने का है

बचा सको तो बचा लो इसे 

फिर बच जायेगा वो सब कुछ

जो तुम बचाने को बेचैन हो.

 

चार-  दुनिया उतनी ही नहीं है

दुनिया उतनी  ही  नहीं  है  जितनी  फ्रेम में है 

फोटो के फ्रेम से बाहर  रह गए चेहरे 

ज्यादा  दिखाई  देते  हैं 

जिन्दगी वही नहीं जो जी जाती है 

पहचान उतनी ही नहीं जो आधारकार्ड में दर्ज है 

इतिहास वही नहीं जो किताबों में सहेजा गया है 

प्रेम जितना दिल में है 

उससे कहीं ज्यादा बाहर  , 

पृथ्वी  पर पसरा और आसमान में फैला हुआ है 

सफ़र में सिर्फ  वे ही नहीं जिनका आरक्षण चार्ट में नाम है 

रेलवे चार्ट बन जाने के बाद भी नहीं होता है जिनका टिकट कन्फर्म 

वो करते हैं मेरी ही बर्थ पर सफ़र 

मेरी जगह 

मानसून में झमाझम बारिश के बाद भी 

जो कोना रह जाता है सूखा  

संविधान के पन्नों और संशोधनों में नहीं सिमटती जिनकी व्यथा कथाएं 

 

ऐसे फ्रेम से बाहर और सूची से दूर 

अधिकार से वंचित रह गए लोग 

दरअसल आदमी नहीं कविता हैं !   

 

पांच- आँखों का सच

फ्रेम चाहे लकड़ी की हो या सोने की 

उसमें जड़ा आईना कभी झूठ नहीं बोलता 

 

देह चाहे चीथड़ों में लिपटी हो 

कि सजी हो मखमली पोशाक में 

बेपर्द आँखें कभी झूठ नहीं बोलतीं 

 

सच झूठ के तराजू पर तुलती हर चीज 

बनावटी या नकली हो सकती है 

सिवा आंखों के 

बस आँखें ही किसी की भी अपनी और सच्ची हैं

उतनी 

जितनी उनकी अंतरात्मा 

कोई पढ़ न ले उनके भीतर की सच्चाई

इसलिए लोग आंख मिलाने से बचते हैं 

काश आदमी केवल  आंख  होता 

उसमें  खून नहीं प्यार का पानी होता.

 

छह- हमें बख्श दो

नहीं की जा सकती कल्पना उस दिन की 

कि दूर हो जायें हम हमारे  ही अपनों से 

सोचा नहीं जा सकता कभी एक पल को भी 

कि छूट जाये हमारी नौकरी किसी दिन 

जानलेवा है ये ख्याल 

कि नहीं रहे कोई प्यार करनेवाला हमारे  जीवन में 

सिहर उठेगा रोम-रोम उसी एक क्षण में 
कि क्या हो जब छोड़ दिए जाएँ  हम हमारे ही हाल पर 

 

उस बुरे दिन की कल्पना करके 
नहीं बनना है हमें पागल 
चंद शब्दों से लगाकर आग किसी के जेहन में 
नहीं हत होना है किसी के भी हाथों 

किसी बुरे सपने की तरह डराता है यह ख्याल 
कि निरपराध जला दिए जाएँ चौराहे पर किसी दिन 

सिर्फ इसलिए कि हमने एक अच्छी कविता लिखी है ?

हमें बख्शो 

हम पर रहम करो 
भावों से भरे हम साधारण मनुष्य हैं 
नहीं बनना ईश्वर कुछ अच्छी कविताएँ लिखकर .

(श्रीराम शलभ सिंह को याद करते हुए )

 

सात- चुप्पी की विरासत

किताबों के काले अक्षरों को  चीटियों की कतार बताने वाली 

हिसी पुडुंगी स्कूल नहीं जाती 

वह अखबार नहीं पढ़ती 

पर अखबारी कागजों से ठोंगे गजब के बनाती  है  

वह सिनेमा नहीं देखती  

मगर सुनाती  है घोटुल , मुटियारिनों 

और सैकड़ों जागृत देवी-देवताओं  की कहानियाँ और दन्तकथाएँ

विचारों की परिष्कृत  दुनिया को दूर से सलाम करती हिसी 

किसी बातचीत या बहस में भी शामिल नहीं होती 

इतिहास पढ़ा न भूगोल जाना 

मगर  जानती है वह सागौन , सखुआ , महुआ, इमली , तेंदुपत्ता उगाना और सहेजना  

कला का क अक्षर भैंस बराबर है उसके लिए 

पर मांदर की थाप पर   पंथी ,सुआ , राउत  , सैला नाच में सानी नहीं उसकी 

चाँद से चेहरे पर चन्दा सी गोल बिंदी लगाती हिसी के लिए 

रोटी ही उसका भूगोल है और जिन्दगी किताब 

उसके जंगल की चौहद्दी ही देश है उसका 

जिसे वो प्यार करती है और चुप रहती है 

ये चुप्पी विरासत है 

जिसे तारीख दर तारीख ढोती हिसी 

जनतंत्र की सबसे विश्वासी नागरिक कहलाती है 

(आदिवासी लड़की के लिए )

 

परिचय --

आभा दुबे 

जन्म -- किशनगंज बिहार 

मनोविज्ञान से स्नातक 

प्रकाशन -- एक कविता संग्रह ' हथेलियों पर हस्ताक्षर '

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता , कहानी , लेख इत्यादि प्रकाशित 

सम्मान -- शीला सिद्धान्तकर सम्मान से सम्मानित.

 

पता-

आभा सदन

मकान नंबर - A /29 

सड़क नंबर - 2 

विद्या विहार कालो नी

नेहरू नगर पश्चिम

दुर्ग- भिलाई

49 00 20 

इ मेल --  [email protected] 

मोबाइल नंबर -- 98 93 32 18 93 

 

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