साहित्य
आलोक वर्मा की कविता- चले- चलो...
चले- चलो
चले-चलो
चले-चलो
पच्चास मील चलो
सौ मील चलो
दो सौ मील चलो
पांच सौ मील चलो
अंतहीन चलो
चले-चलो...
चले-चलो
भूखे पेट चलो
पानी पीकर चलो
बिन पानी प्यासे चलो
धूल पीकर चलो
चले-चलो... चले-चलो.....
थक जाओ तो चलो
सड़कों पर तपती दुपहरी
थोड़ा सुस्ताकर चलो
नींद में उनींदे चलो
सिर चकराए तो चलो
गिर जाओ तो उठकर चलो
खांसी-बुखार में चलो
चले-चलो...चले-चलो.....
बोझे उठाकर चलो
रोते बच्चों के साथ चलो
गुजर जाए अपना बीच राह
तो छोड़कर रोते हुए चलो
चले चलो... चले चलो.....
चले चलो कि अभी
प्रधानजी ने चलवाया है
चले-चलो कि नगरों में नहीं है
तुम्हारे लिए कोई जगह
चले-चलो कि ये जमीं
तुम्हारी नहीं है.
ये आसमा भी तुम्हारा नहीं है
नहीं हैं यहां तुम्हारे कोई सपने न अपने
तो यहां उदास होकर भी रोते चलो
जी जरा सम्भालकर चलो
चले-चलो...चले-चलो.....
चले-चलो कि
अब भी तुम्हारे हैं दोनों पांव
दोनों हाथ भी तुम्हारे हैं
खोदना है इन्ही हाथों से कुआं और
पाना है मीठा पानी
उगानी हैं हरी सब्जियां और अन्न
फिर उठाकर इन्ही हाथों को
मांगने हैं इसी दुनिया मे
न मिले सवालों के जवाब
अभी फिलहाल बस चले-चलो
कि मंजिल अभी बहुत दूर है
मेरे अपनो मेरे लोगों
चले-चलो... चले-चलो....
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