साहित्य

गुनाहों की देवी निर्मला

गुनाहों की देवी निर्मला

मुंशी प्रेमचंद के एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण उपन्यास का सारांश बता रहे हैं लेखक चंद्रशेखर देवांगन. लेखक का कहना है कि अगर धर्मवीर भारती के उपन्यास में चंदर गुनाहों का देवता है तो मुंशी प्रेमंचद के उपन्यास में निर्मला गुनाहों की देवी है. इस सारांश को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.

 

 ‘‘मुहल्ले के लोग जमा हो गए। लाश बाहर निकाली गई। कौन दाह करेगा, यह प्रश्न उठा। लोग इसी चिंता में थे कि सहसा एक बूढ़ा पथिक बकुचा लटकाये आकर खड़ा हो गया। यह मुंशी तोताराम थे (निर्मला के पति)।’’

निर्मला के पिता की अकाल मौत के बाद दहेज लोभी रिश्ते वालों नें निर्मला से सगाई तोड दी। आर्थिक बोझ से परेशान मॉ ने निर्मला का विवाह दहेज नहीं लेने वाले अधेड़ उम्र के विधुर किंतु धनी वकील मुंशी तोताराम से कर दी। जिसके पूर्व से ही तीन बेटे थे और वकील साहब की विधवा बहन भी साथ रहती थी। वकील साहब और निर्मला के साथ हंसने-बोलने से अधेड उम्र के तोताराम के मन में शक पैदा हो गया। शक से परेशान तोताराम ने बेटे को घर से दूर छात्रावास में रखवाने का उपाय खोजने लगे। मंशाराम जैसे-तैसे घर से दूर तो हुआ परंतु सौतेली मॉ को लेकर पिता के शक को ताड़ गया। मंशाराम पढ़ाई में होश्यार, सुंदर, स्वस्थ और आदर्शवादी बालक था। पिता के ऐसे घिनौने विचारों से मंशाराम इतना क्षुब्ध हुआ कि खाना-पीना छोड अपना शरीर ही त्याग दिया। मरते-मरते उसने निर्मला के चरणों में दण्डवत् प्रणाम कर पिता को अपने और निर्मला के मध्य माता और पुत्र के बीच पवित्र रिश्ते का विश्वास दिला गया। तोताराम इस अपराध बोध से भर गये कि उनके निराधार शक ने उनके जवान बेटे की जान ले ली। 

अपराध बोध से ग्रसित तोताराम का स्वास्थ्य दिन-ब-दिन गिरता गया, वकालत भी ठप्प हो गई। तोताराम के युवा मित्र डॉ. साहब की पत्नी सुधा, निर्मला की सहेली बन गई थी। बातों ही बातों में सुधा को ज्ञात हुआ कि सुंदर-सुशील-गुणी निर्मला से सगाई तोडने वाला उसका पति डॉ. साहब ही थे। जब सुधा ने यह बात डॉ. साहब को बताई तो डॉ. साहब ने इसका प्रायश्चित बिना दहेज लिये अपने छोटे भाई के साथ निर्मला की छोटी बहन का विवाह करवाकर किया। निर्मला के रूप-गुण को देख-देख अब डॉ. साहब को निर्मला से विवाह नहीं हो पाने का बड़ा मलाल होने लगा।

इस बीच निर्मला की भी एक लड़की हो गई। अब तक वकील साहब के पुत्रशोक ने परिवार की आर्थिक संपन्नता को भी छिन लिया था। ऐसी स्थिति में निर्मला के गहने जेवर ही बेटी का भविष्य थे। वकील साहब का दूसरा बेटा जियाराम कुसंगत में पड़ गया था। जियाराम ने इन गहनों को चुरा लिया। चोर को जानते हुए भी कलंक के डर से निर्मला चुप थी परंतु वकील साहब ने तैश में पुलिस को बुला लिया। पुलिस ने वकील साहब को आरोपी का नाम बता दिया। पकडे जाने के भय से जियाराम सदा के लिये घर से भाग निकला। 

 

बेटी के भविष्य की अतिशय चिंता और गरीबी ने निर्मला को कंजुस बना दिया था। वकील साहब का तीसरा बेटा सियाराम बड़ा सीधा-साधा, आज्ञाकारी था। नासमझी में निर्मला की बातों से एक दिन सियाराम बड़ा खिन्न हो गया और किसी साधु के बहकावे में आकर वह भी हमेशा के लिये घर छोड़कर चला गया। वकील साहब इसका सारा दोष निर्मला पे मड़ने लगे और सियाराम को खोजने दुखी मन से वह भी घर से निकल पडे। 

अब घर में केवल निर्मला, उसकी नन्ही बिटिया और वकील साहब की विधवा बहन रह गये। 

बीच-बीच में निर्मला मन बहलाने अपनी सहेली सुधा के पति डॉ. साहब के हृदय में निर्मला के लिये दबा प्रेम होठों पर आ गया। निर्मला के लिये ये उसकी पवित्रता पर आघात जैसा था। निगाह नीची किये निर्मला बड़ी तेजी से सुधा के घर से निकली, तभी सुधा घर पहुंची शायद सुधा ने निर्मला की आखों में कुछ पढ़ लिया। पीछे-पीछे सुधा भी निर्मला के घर आ गई और निर्मला के बिना कहे भी सच्चाई समझ के अपने घर आई और क्रोध में आग बबूला सुधा ने इस चरित्रहीनता के लिये डॉ. साहब को जमकर धिक्कारा। इस अपराधबोध में डॉ. साहब ने जहर खा कर आत्महत्या कर लिया। 

यद्यपि सुधा के मन में अपने दुश्चरित्र पति के प्रति क्रोध और निर्मला के प्रति श्रद्धा अभी भी यथावत् थी। 

अब तो निर्मला जीवन में हर तरफ से स्वयं को अपराधिन ही मानने लग गयी। जीवन से हताश हो निर्मला ने खाना-पीना ही छोड़ दिया और तीन दिनों तक रोते-रोते अपना जीवन त्याग दिया।

 

 

 

ये भी पढ़ें...