विशेष टिप्पणी

जो रमन नहीं कर पाए वो भूपेश ने कर दिखाया

जो रमन नहीं कर पाए वो भूपेश ने कर दिखाया

राजकुमार सोनी

अब से कुछ अरसा पहले रामगोपाल वर्मा निर्देशित और नागार्जुन अभिनीत एक फिल्म आई थी-शिवा. इस फिल्म में खलनायक का एक जोरदार संवाद था- गुंडे और मवालियों का धंधा लोगों के भीतर पैदा किए गए डर से ही चलता है. जिस रोज लोग डरना बंद कर देंगे... धंधा बंद हो जाएगा. फिल्म के संवाद का जिक्र मैं यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इसका थोड़ा सा संदर्भ छत्तीसगढ़ से भी जुड़ता है. याद करिए जोगी का कार्यकाल. जब जोगी सत्ता में आए तो उन्होंने भारतीय पुलिस सेवा के अफसर मुकेश गुप्ता को लाठी भांजने की पूरी छूट दी. प्रदेश में शिवसेना के एक प्रमुख पदाधिकारी धनंजय परिहार से हर अफसर और व्यापारी खौफजदा था. धमकी-चमकी, मारपीट और उगाही के हजारों मामले चल रहे थे.जोगी के कहने पर एक रोज मुकेश गुप्ता ने धनंजय परिहार का जुलूस निकाल दिया तो लोगों ने जमकर तालियां बजाई. लोगों को लगा कि आतंक खत्म हो गया है, लेकिन यह एक भ्रम था. थोड़े दिनों के बाद ही रामावतार जग्गी हत्याकांड हो गया और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, उनके पुत्र अमित जोगी के साथ-साथ मुकेश गुप्ता विवादों में घिर गए. जोगी पर आरोप लगा कि वे राजनीतिज्ञ नहीं ब्लकि तानाशाह के तौर-तरीकों से सरकार चला रहे हैं.उनके प्रिय अफसर मुकेश गुप्ता हर छोटी-मोटी बात पर लाठी चलाने और गोली से भून देने की धमकी देने लगे. प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा भाजपाई ( रमन सिंह और उनके समूह से जुड़े लोगों को छोड़कर ) होगा जो उनसे प्रताड़ित न हुआ हो. भाजपा के वरिष्ठ आदिवासी नेता नंदकुमार साय को लाठी-डंडों से पीटा गया. उनके पैर की हड्डी टूट गई. आज भी जब कभी वे उस मंजर का जिक्र करते हैं तो उनके चेहरे पर अपनी ही सरकार के दोगले रवैये का अफसोस साफ तौर पर दिखाई देता है. सच तो यह है कि जोगी को सत्ता से खदेड़ने के पहले भाजपाई... मुकेश गुप्ता को लूप लाइन में भेजने की बात किया करते थे, लेकिन हुआ इसके उलट. भाजपा ने सरकार बनते ही मुकेश गुप्ता को सिर पर बिठा लिया. नंदकुमार साय, पूर्व गृहमंत्री ननकीराम कंवर सहित अन्य कई नेता चीखते-चिल्लाते रह गए, लेकिन उनकी चीख नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई. कुछ दिनों बाद सीएम हाउस में अमन सिंह की इंट्री हो गई. बताते हैं कि उन्हें विक्रम सिंह सिसोदिया यह कहकर लाए थे कि साहब यानि रमन सिंह का कुछ कामकाज संभालना है, लेकिन उन्होंने मुकेश गुप्ता के साथ मिलकर साहब का नहीं बल्कि प्रदेश का कामकाज इस भयावह तरीके से कामकाज संभाला कि साहब की इमेज मटियामेट हो गई. जब कभी भी कोई पत्रकार अमन सिंह से मिलता था तो उनका एक ही डायलॉग सुनता था- यार... काम-काम-काम...। साहब के साथ काम करते-करते पंद्रह साल हो गए. पंद्रह साल से सोया नहीं हूं. पता नहीं आराम कब मिलेगा. शायद उनके पंद्रह साल से जरुरत से ज्यादा जागने का ही नतीजा था कि भाजपा पंद्रह सीटों पर सिमटकर रह गई.

बहरहाल... पंद्रह साल से विराजमान खौफ को भूपेश बघेल अपने देशज अंदाज से धीरे-धीरे खत्म करते जा रहे हैं. उन्हें खौफ को खत्म करने के लिए न तो लाठी चलवाने की जरूरत पड़ रही है और न ही गोली चलवाने की. आतंक का पर्याय बन चुके मुकेश गुप्ता पर कार्रवाई इतनी आसान नहीं थीं. हत्या, साजिश तथा लोगों को झूठे मामले में फंसा देने के आरोपों से घिरे मुकेश गुप्ता पर तगड़ी कार्रवाई के बाद आमजन खुश है तो भाजपा का एक बड़ा वर्ग भी गदगद है. ( दो-चार बड़े नेताओं को छोड़कर ) पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता भी बघेल की तारीफ करने से नहीं चूक रहे हैं. शनिवार को  भाजपा के एक जिम्मेदार पदाधिकारी से मुलाकात हुई तो उसने कहा- जो काम हमारे रमन सिंह को करना था वो काम भूपेश बघेल ने कर दिखाया है. भूपेश को सैल्यूट.

वैसे इसमें कोई दो मत नहीं कि कंधे पर शॉल ओढ़कर गांव और परिवार के एक मुखिया जैसी उनकी छवि और एक के बाद एक शानदार निर्णय लेने वाले उनके अंदाज को हर कोई पसन्द कर रहा है. भाजपाइयों और कांग्रेसियों को छोड़कर किसी गांव वाले से भी पूछकर देखिएगा तो कहेगा- पहले फास्फोरस वाली भाजी आती थीं, लेकिन अब लाल भाजी खाने का मजा आ रहा है. मेरा किसी जाति विशेष से कोई विरोध नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि गत पंद्रह सालों से प्रदेश में ठकुराई हावी हो गई थीं. ज्यादातर भाजपा नेताओं और अफसरों का रवैया सामंतवादी हो गया था. लगता था कि बस... अब जमींदार आएंगे. गरीब किसान का खेत छीन लेंगे और उसकी फूल जैसी बिटिया को उठाकर ले जाएंगे और होता भी यहीं था.

कहना न होगा कि छत्तीसगढ़ बेहद खूबसूरत है. यह राज्य अपने खांटी देसी स्वाद की वजह से जाना जाता है. जब कभी आप बाहर जाएंगे तो लोग आपसे तीजन बाई के बारे में पूछेंगे. सुरूजबाई खांडे, हबीब तनवीर के बारे में जानना चाहते हैं. यहां के धान और उगने वाली साग-सब्जियों की भी जानकारी लेना चाहते हैं, लेकिन पंद्रह साल से छत्तीसगढ़ का देसी स्वाद गायब हो गया था. दो-चार को छोड़कर अधिकांश नेता छत्तीसगढ़ियों को लुभाने के लिए छत्तीसगढ़ी में बोलते-बतियाते थे लेकिन ज्यादातर की छत्तीसगढ़ी नकली थीं.अब भूपेश बघेल गांव-गांव जा रहे हैं तो गांव का आदमी भी उनसे मिलने के लिए शहर आ रहा है. अभी इसी सात फरवरी को जब उन्होंने गृह प्रवेश किया तो एक खास बात नजर आई. उनकी विधानसभा के हजारों-हजारों ग्रामीण बधाई देने के लिए सीएम हाउस पहुंचे थे. बघेल ने एक-एक ग्रामीण से मुलाकात की. मुख्यमंत्री निवास में कोट-पैंट-टाई में सेन्ट छिड़कर घूमने वाले अफसरों की जमात भी मौजूद थीं, लेकिन ग्रामीण... शहरी आतंक को खूंटी पर टांगकर बगैर कांटा-चम्मच के सुस्वादु भोजन का लुत्फ उठाने में मशगुल थे. हालांकि बहुत से अफसरों को यह लग रहा था कि कहां देहातियों के बीच फंस गए... लेकिन यह दृश्य सचमुच में आतंक से मुक्ति और जीत का दृश्य था.

 

 

ये भी पढ़ें...