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आइए लहलहाएं अपने हिस्से की हरियाली

आइए लहलहाएं अपने हिस्से की हरियाली

एल.डी. मानिकपुरी ( सूचना सहायक, मुख्यमंत्री सचिवालय मंत्रालय ) 

आज यहां महात्मा गांधी जी की एक लेख ‘की टू हेल्थ’ (स्वस्थ कुंजी) का जिक्र करना चाहूंगा, जिसमें गांधी जी ने कहा था कि शरीर को तीन प्रकार के प्राकृतिक पोषण की आवश्यकता होती है हवा, पानी और भोजन, लेकिन साफ हवा सबसे आवश्यक है।। गांधी जी कहते हैं कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से पर्याप्त हवा फ्री में दी है. लेकिन उनकी पीड़ा थी कि आधुनिक सभ्यता ने इसकी भी कीमत तय कर दी है। वह कहते हैं कि किसी व्यक्ति को कहीं दूर जाना पड़ता है तो उसे साफ हवा के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है। आज से करीब 101 साल पहले 1 जनवरी 1918 को अहमदाबाद में एक बैठक को संबोधित करते हुए उन्होंने भारत की आजादी को तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया था। उन्होंने 1918 में जो कहा और किया था उसे अदालतें आज जीवन के अधिकार कानून की व्याख्या करते हुए साफ हवा, साफ पानी और पर्याप्त भोजन के अधिकार के रूप में परिभाषित कर रही हैं।.

पूरा विश्व ‘पर्यावरण’ को लेकर 1972 में जो चिंता व चिंतन किया वह 47 बरस बाद ‘भंयकर चिंता’ बन गया है। यह चिंता जायज भी है, लेकिन चिंता ही काफी नहीं है। आज हमारे आस-पास विकास के नाम पर हो रहे पर्यावरण के नुकसान का असर यह हो रहा है कि आने वाली पीढ़ी को सिर्फ और सिर्फ एक ऐसा संसार देने जा रहे हैं, जहां आधुनिक संचार माध्यमों से ही उन्हें बता पाएंगे कि पहले देखो कि कितना साफ-सुथरा तालाब, नदियां, घने जंगल, रंग-बिरंगी पक्षियां, जीव-जंतु, वन्य प्राणी, उपजाऊ जमीन और चमकता आसमान हुआ करता था, और अब.......। बुढ़ापे में हम अपने सगे-संबंधी, नाती-पोतों को कहानी के माध्यम से ऐसे वातावरण से परिचित करा पाएंगे।
वैसे तो भारत में प्राचीनकाल से वन संस्कृति, ऋषि संस्कृति, कृषि संस्कृति चला आ रहा है। हमें अपने पूर्वजों को धन्यवाद देना चाहिए कि जिनके बदौलत ही हमें वृक्ष, तालाब, नदियां, घने जंगल, वन्य प्राणी देखने को मिल जाता है। हमें धन्यवाद देना चाहिए ऐसे महान लोगों को जिन्होंने धरती की सेवा करते-करते अपने जीवन व्यतीत कर दिया। पर्यावरण व जैव-विविधता के कमी होने से प्राकृतिक आपदा जैसे बाढ़, सूखा, साल-दर-साल बारिश का कम होना, भूजल स्तर कम होना और इसके विपरीत गर्मी की तपन बढ़ते जाना और तूफान आदि आने का खतरा और अधिक बढ़ जाता है। लाखों विशिष्ट जैविक की कई प्रजातियों के रूप में पृथ्वी पर जीवन उपस्थित है और हमारा जीवन प्रकृति का अनुपम उपहार है। प्रमुख विचारक स्टीवर्ट उडैल ने कहा था-‘हवा और पानी को बचाने, जंगल और जानवर को बचाने वाली योजनाएं असल में मनुष्य को बचाने की योजनाएं हैं’। इसी तर्ज पर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने विगत तीन चार दिनों से तपती धूप में छत्तीसगढ़ के दूरस्थ अंचल बस्तर एवं सरगुजा जाकर न सिर्फ जनप्रतिनिधियों से मुलाकात कर रहे हैं बल्कि ‘नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी’ के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के साथ-साथ, पेड़-पौधे, पानी व ताजा हवा के महत्व को बताते हुए आम व खास लोगों से पेड़ की छांव में चौपाल लगाकर उनकी समस्याएं सुन रहे हैं तथा उसे छांव तले उनकी समस्याओं को हल भी कर हैं। पेड़ की महत्ता, शुद्ध वातावरण में जो निर्णय ले रहे हैं वह अपने आप में एक सराहनीय कदम है। 
छत्तीसगढ़ की धरती के नीचे और ऊपर प्रकृति के अनमोल भण्डार तो है ही पर्यावरण, जैव-विविधिता तथा वन व वन्य जीव भी अधिक हैं। वन संसाधन में राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 44 प्रतिशत भाग में वनों का विस्तार है। छत्तीसगढ़ वन आवरण के दृष्टिकोण से देश में तीसरे स्थान पर है। राज्य के 59,772 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वनों का विस्तार है जो देश के कुल वन क्षेत्र का लगभग 7.77 प्रतिशत है। 
वन्य प्राणियों के संरक्षण तथा संवर्धन के लिए उचित प्रयास व उचित रखरखाव के विभिन्न पहलुओं पर तेजी के साथ राज्य सरकार काम करने लगी है। वैसे तो छत्तीसगढ़ में पक्षियों की कई लुप्तप्राय प्रजातियां पाई गई हैं। राज्य में लेसर एडजुटेंट स्टॉर्क जैसे पक्षियों की उपस्थिति बताती है कि राज्य की आबो-हवा इन लुप्तप्राय प्रजातियों के लिये अनुकूल होने के कारण भारत में पाई जाने वाली कुल 1300 विभिन्न प्रजातियों में से 400 से अधिक पक्षियों का रहवास छत्तीसगढ़ में है। छत्तीसगढ़ में नदियों के उद्गम स्थल होने के साथ ही देश के वृहद प्रवाह क्रम गंगा, नर्मदा, महानदी एवं गोदावरी प्रवाह क्रम के बीच महत्वपूर्ण जल विभाजक का कार्य करता है। छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मण्डल द्वारा प्रदूषण को रोकने अनेक कार्य कर रहे हैं। प्रदूषणकारी उद्योगों को ‘ऑन लाइन कन्सेट मैनेजमेंट एण्ड मॉनिटरिंग सिस्टम’ के तहत उद्योगों में यह स्थापना हो चुकी है। 
सारी दुनिया अब यह मानने लगा है कि पर्यावरण  और विकास एक ही सिक्के दो पहलू हैं और उन्हें प्रतियोगी नहीं बल्कि पूरक के रूप में देखने की आवश्यकता है। पर्यावरण विशेषज्ञ तो यह मानने लगा है कि पर्यावरण एवं जैव विविधता में हुए हृस के कारण आए दिन हमें नई-नई बीमारियों का सामना करना पड़ा है। क्योंकि ऐसे रोगों के प्रतिरोधक अंश हमें जिन जीवों एवं वनस्पतियों से प्राप्त होते थे, वह अब समाप्त हो चुके हैं। यदि इस पर अब भी गम्भीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया गया तो स्थिति बद से बदतर होती जाएगी। इस बात की कोई चिंता नहीं कि आने वाले पीढ़ी हमें क्या कहेंगे, किसे दोष देंगे? अब हमें चेत ही जाना चाहिए कि यह पर्यावरण हमारे लिए, जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी है।।. कवि अभय कुमार जी का वह कविता को याद करना चाहूंगा, जो पृथ्वी गान पर लिखा था-

ब्रह्मांड की नीली मोती, धरती
ब्रह्मांड की अदभुत ज्योति, धरती 
सब महाद्वीप, महासागर संग -संग 
सब वनस्पति, सब जीव संग -संग 
संग -संग पृथ्वी की सब प्रजातियाँ
काले, सफेद, भूरे, पीले, अलग-अलग रंग
इंसान हैं हम , धरती हमारा घर 

आइये हम सब अपने हिस्से के पौधा जरूर लगाएं और इसकी देखभाल भी करें, कुछ वर्षों बाद यह बड़ा होगा तो दिल को सुकून देगा, नई पीढ़ी को छांव मिलेगा, आइए लहलहाएँ अपने हिस्से की हरियाली।
 

 

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