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नामचीन साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अर्णब पर एफआईआर को जायज ठहराया

नामचीन साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अर्णब पर एफआईआर को जायज ठहराया

रायपुर. सांप्रदायिक उन्माद और वैमनस्यता फैलाने में जुटे एक टीवी चैनल के संपादक अर्णब गोस्वामी पर विभिन्न राज्यों में की गई एफआईआर को नामचीन साहित्यकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जायज ठहराया है. ज्यादातर लोगों का मानना है कि अर्णब को केंद्र की सत्ता का संरक्षण हासिल है इसलिए वे देश की गंगा-जमुनी तहजीब को नष्ट करने में लगे हुए हैं.

प्रख्यात पत्रकार पकंज चतुर्वेदी का कहना है- अर्णब और उनकी तरह के अन्य लोग जो पत्रकारिता का मुखौटा लगाकर नफरत और सांप्रदायिकता फैलाने के खेल में लगे हुए हैं उन पर नियंत्रण बेहद जरूरी है. ऐसे लोग देश और समाज का नुकसान कर रहे हैं. भले ही सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब गोस्वामी को सोनिया गांधी के बारे में की गई टिप्पणी के लिए तीन हफ्ते की मोहलत दे दी है, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में उनके खिलाफ एक मुकदमा राहुल गांधी के बयान को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने का भी है. यह बिल्कुल सटीक समय कि उस प्रकरण में अर्णब पर ठोस कार्रवाई कर दी जाय. उसे कम से कम तीन दिन जेल में रहने का अवसर मिलेगा तो दिमाग ठीक हो जाएगा.

रायगढ़ में रहने वाले साहित्यकार रमेश शर्मा का कहना है कि अगर अर्णब गोस्वामी पालघर घटना पर कुछ पूछना या बहस करवाना चाहते थे तो उन्हें महाराष्ट्र सरकार से या केंद्र सरकार से सवाल करना चाहिए था क्योंकि किसी भी अप्रिय घटना के लिए शासन-प्रशासन ही जिम्मेदार हो सकते हैं, पर पत्रकार अर्नब गोस्वामी ने ऐसा न करके इस बहस में देश की एक सम्मानित महिला सोनिया गांधी को बेवजह लपेट लिया. यहां तक कि इस घटना को इटली से जोड़ देना और इसे सांप्रदायिक रूप देना अत्यंत आपत्तिजनक मामला है. सोनिया गांधी न केवल एक सम्मानित परिवार से हैं जिनका कि देश के लिए बलिदान का इतिहास रहा है, साथ साथ वे एक महिला भी हैं और यह देश महिलाओं के सम्मान के लिए जाना भी जाता है. समूची बहस में अर्णब गोस्वामी की भाषा शैली भी अमर्यादित और अशोभनीय रही जिसके कारण एक महिला का सार्वजनिक रूप से सरासर अपमान भी हुआ,इससे लोग भी भीतर से आहत हुए। इस लिहाज से देखा जाए तो यह एफआईआर उचित है, क्योंकि अगर समय रहते ऐसी अमर्यादित बहसों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो इसके दुष्परिणाम भी देश और समाज को आगे भुगतने होंगे. 

देश के चर्चित कवि आलोक वर्मा का कहना है कि अर्णव जैसे लोग एक रात में नहीं बनते. इन पर मिलकर सामूहिक शांतिपूर्ण असहमति और विरोध धर्मनिरपेक्ष दलों और लोगों को बहुत पहले ही दर्ज करना था. आज हमारी बहुआयामी बहुधर्मी सांस्कृतिक विरासत को आघात पहुंचाने वाले ऐसे लोग भारतीय समाज में फैल गए हैं. योजनाबद्ध तरीकों से  इन्हें बनाया और फैलाया भी गया है. इन पर  सारी जनता की मिलकर शांतिपूर्ण सामूहिक कार्यवाहियां हमारे देश को बचाने के लिए हर हाल में जरूरी हैं. हर शहर मे"सर्वधर्म सेना "या संगठन बनाने की जरूरत है जो पूर्णतया अराजनीतिक और शांतिपूर्ण होने के साथ सारे धार्मिक समुदायों के लोगों को साथ ले उनमे आपसी संवाद बढ़ा सके  औऱ आपसी भ्रम दूर कर सके. सब सबके त्योहारों,दुखों में शामिल हों ताकि साम्प्रदायिक शक्तियां कामयाब न हो सकें. यह संगठन पीड़ित जन के साथ होकर उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानूनी,आर्थिक  सहयोग भी दे ताकि ऐसे लोग न डरें ,न अकेले पड़ें. आज यदि सब साथ न होंगे तो आगे खतरा सारी सीमाएं लांघ जाएगा,,,।

देश के एक प्रमुख कथाकार मनोज रुपड़ा का कहना है कि अर्नब गोस्वामी बहुत पहले से अनर्गल गोस्वामी बन गए थे, लेकिन उनकी अनर्गल बातों पर आपत्ति उठाने की बात सिर्फ सोशल मीडिया में ही होती रही. किसी तरह की ठोस जमीनी कार्रवाही किसी ने नहीं की. अब बात सिर्फ़ अर्णब गोस्वामी तक बात सीमित न रह जाए बल्कि पूरे मीडिया की भाषा उनके भड़काऊ तेवरों और गैर जिम्मेदार और लोकतंत्र विरोधी रवैए की भी सभी स्तर पर ख़बर लेने की जरूरत है .पहले भड़काऊ बयानबाजी सिर्फ़ नेता करते थे अब नेताओं ने चुप्पी ओढ ली है और कुछ एंकरों को ये जिम्मेदारी दी दी है. अर्नब और उनके जैसे अन्य एंकरो को पत्रकार मानना पत्रकारिता की तौहीन है .

देश के नामचीन कथाकार कैलाश बनवासी कहते हैं- जैसी स्तरहीन,मूल्यहीन और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर चरित्र हनन या सांप्रदायीकरण की घटिया पत्रकारिता गोस्वामी अर्णब या अन्य नामधारी पत्रकार  बेखौफ होकर कर रहे हैं,वह आज और भविष्य की बेहद डराने वाली वर्चस्ववादी, अहमंन्यतावादी और अलोकतांत्रिक पत्रकारिता का नमूना है.असहमति और विरोध को इस निम्नस्तर पर लाकर की जाने वाली पत्रकारिता इन दिनों 'जहरबाद'--परजीवी बेल--की तरह सत्ता-वृक्ष के सहारे फल-फूल रही है. यह लोकतंत्र के लिए  बहुत घातक है. प्रश्न यह है कि इनकी ऐसी तथाकथित अभिव्यक्ति पर लगाम कैसे लगे ? किसी राजनैतिक दल के द्वारा किया गया ऐसा प्रयास-एफआईआर 'राजनैतिक दुर्भावनावश' की भेंट चढ़ जाता है. इसके बावजूद ऐसा समाज-देश के हित चिंता में लगे लोगों या संस्थाओं द्वारा किया जाना बेहद जरूरी है ताकि इनके काम-काज के तौर-तरीकों को जनता के सामने चर्चा में लाया जा सके. यह जनता के चिंतन का विषय बने और इससे समाज की बेहतरी के नतीजे सामने आए. मैं अर्नब पर हमले का समर्थन नहीं करता वह हर हाल में निंदनीय है. जरुरत इस बात की ज्यादा हो गई है कि लोगों की विज्ञान सम्मत तर्कशीलता,विवेक, सामाजिकता और न्याय चेतना अधिकाधिक उन्नत और मुखर हो. जो किसी भी मीडिया के गोदी मीडिया बन जाने का प्रबल विरोध करें. मुझे लगता है गोस्वामी पर की गई एफआईआर को राजनैतिक विद्वेष के चश्मे से नहीं बल्कि सुदृढ़ लोकतंत्र और स्वस्थ पत्रकारिता के बचाव के एक उपक्रम के रुप में देखा जाना चाहिए. इसके दायरे में सिर्फ वही नहीं उस जैसे तमाम लोग आने चाहिए. 

युवा कवि, कथाकार और आलोचक बसन्त त्रिपाठी कहते हैं- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लेखक, कलाकार या पत्रकार का ही नहीं बल्कि हर नागरिक का मौलिक अधिकार है. लेकिन इसमें अन्य नागरिक या समुदाय की गरिमा का सम्मान भी अंतर्निहित है. भारत के कई मीडिया घरानों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर घृणा-वमन का जो रूप विकसित किया है उसका ताज़ा उदाहरण है अर्नव गोस्वामी का संतों की लिंचिंग से संबंधित रपट. कहा जाता है कि राजा से अधिक निष्ठावान उसके वफादार होते हैं. अर्नव गोस्वामी जैसे लोग पत्रकार के भेस में ऐसे ही वफादार लोग हैं. पत्रकार का काम खबर देना होता है लेकिन अर्नव जैसे लोग खबर देने की बजाय खबर बनाने की राजनीतिक योजना में आकंठ डूबे हुए हैं. इन लोगों ने अपनी रिपोर्ट को नस्ली और सामुदायिक हिंसा के प्रचार का परचम बना रखा है और उदासीन और असावधान लोगों को नफरत के अग्नि-कुंड में ढकेल रहे हैं. यदि जनता चैनल बदलने का अपना विवेक खो चुकी है तो बहुत आसानी से इनके जाल में फँस सकती है, फँसती है. और फिर उनका राजनीतिक इस्तेमाल करने के लिए सत्ताएँ तो खड़ी ही हैं ! ये लोग पत्रकार नहीं हैं भाड़े के टट्टू हैं. ये उन शैतानों की तरह हैं जो लोगों को डसकर उनके खून में अपनी शैतानियत रोप कर, उन्हें भी अपने जैसा बना देते हैं. ऐसे तमाम लोगों को, जो किसी भी धर्म अथवा समुदाय के प्रति विष उगलते हैं, कोर्ट के कटघरे में खींच लाना ज़रूरी है. इन पर नकेल कसना ज़रूरी है. अन्यथा आने वाले दिनों में 'अन्यों' के खून के प्यासे दरिंदे हर जगह घूमते हुए दिखाई पड़ेंगे.

समकालीन जनमत के संपादक केके पांडेय का कहना है- अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले होना दुर्भाग्यपूर्ण है और किसी ख़बरनवीस को  सही खबर लिखने या दिखाने के लिए प्रताड़ित किया जाना जिसमें मानसिक उत्पीड़न से लेकर हत्या तक शामिल है, गलत है. लेकिन जब ख़बरनवीसी या पत्रकारिता खबर को खबर की तरह नहीं बल्कि इस या उस पक्ष का पक्षकार दिखने की कोशिश में लग जाए तो उस पर प्रतिक्रिया भी जरूरी है. फिलहाल जो मामला रिपब्लिक टीवी और उससे जुड़े अर्णव गोस्वामी का है, वह इस दायरे से भी बाहर का है. यहां मामला खबरनवीसी का है ही नहीं. यहां तो एक मीडिया समूह और उसका पत्रकार, पत्रकारिता की जगह अपनी स्थिति का फायदा उठाकर न सिर्फ गलत बयानी बल्कि समाज के भीतर घृणा फैलाने और तमाम  व्यक्तियों और समुदायों को नफ़रत जनित हिंसा में धकेल देने की साजिशाना हरकत करते हुए दिखाई देता है और यह लगातार हो रही प्रक्रिया है. ऐसे में न सिर्फ ख़बरनवीसी की साख को धक्का लगता है बल्कि यह आपराधिक कृत्य की तरह सामने आता है. खबरनवीसी का यह चेहरा तमाम पत्रकारों और पत्रकारिता के पेशे पर खतरा बन कर आया है। हमें इसका मुकाबला करना ही होगा।

क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच के महासचिव तुहिन देब कहते हैं- अर्णब गोस्वामी  सत्ताधारी संघी कॉर्पोरेट फॉसिस्टों का गोएबल्स की तरह का भोम्पू प्रचारक है. अर्नब ,सुधीर और दीपक चौरसिया जैसे शर्मनाक गोदी मीडिया के कारण ही आज जारी प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत का स्थान दो पायदान नीचे चले गया है. अर्णब  जैसे तथाकथित पत्रकार जो आरएसएस और बीजेपी का तलवा चाटते हैं उनपर अंकुश लगाना जरूरी है. लेकिन उनके खिलाफ एफआईआर या जनमत तैयार करने का काम तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था. सिर्फ सोनिया ग़ांधी के खिलाफ विषवमन करने पर ही क्यों ये किया गया? मुसलमानों और प्रगतिशील लोगों  के खिलाफ नफरत पैदा करने का अपराध तो ये सत्ता के दलाल पिछले छह सालों से कर रहे हैं.

प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े कवि संजय शाम कहते हैं- अर्णब गोस्वामी पर देश भर में हो रहे एफआईआर को समझने के लिए यह समझना भी जरूरी है कि किसी लोकतांत्रिक देश में कोई  पत्रकार बेमतलब के राग द्वेष के साथ पत्रकारिता कैसे कर सकता है ? एक पत्रकार काम समाचार देना उसका विश्लेषण करना और जनता तक खबर की पूरी सच्चाई को पहुंचाना होता है. शायद इसी जिम्मेदारी के कारण पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. किसी भी अधिकार के साथ उसका दायित्व बराबर जुड़ा होता है और अगर किसी पत्रकार को सूचना प्रदान करने का अधिकार है तो जाहिर है उसका दायित्व भी है कि वह सच बताएं ना कि एक राजनीतिक पार्टी के अंध भक्तों की तरह दूसरी विचारधारा के लोगों दलों और नेताओं पर  भाषा की सारी तमीज को दरकिनार कर अमर्यादित अनर्गल आरोप लगाएं. दुर्भाग्य से आज ज्यादातर मीडिया सत्ता और सत्ता प्रतिष्ठानों के मोहपाश या किसी भय के अधीन पत्रकारिता की मर्यादाओं को तक में रखकर  अपने आकाओं  को खुश करने के लिए दूसरे पर कुछ भी भद्दे असंसदीय आरोप लगाने के खेल में लगे हुए हैं.आज की मीडिया का यह आम चरित्र हो गया है जिसे किसी भी न्यूज को देखते- सुनते हुए सहज ही महसूस किया जा सकता है. ऐसे में जब दूसरा वर्ग लोकतांत्रिक रूप से अपने सम्मान को चोट पहुंचाने वाले के विरुद्ध कानून का सहारा लेकर न्याय संगत ,विधि सम्मत विरोध दर्ज करता है तो यह एक वाजिब रास्ता है. लोकतंत्र में विरोध का सम्मान अति आवश्यक है लेकिन इसकी एक सीमा है जाहिर है अर्णब जैसे लोगों की वजह से सब्र का बांध टूट गया है.

प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता संकेत ठाकुर अर्णब गोस्वामी के न्यूज पढ़ने पर ही प्रतिबंध लगाने की मांग करते हैं. वे कहते हैं- अर्णब की आक्रामक और अपमानजनक शैली ने पत्रकारिता के मापदंडों को निम्नतम स्तर पर उतार दिया है. एक न्यूज एंकर जब स्वयं ही अदालत लगाकर फैसला सुनाने लगता है तो यह प्रश्न स्वाभाविक ढंग से कौंधता है कि फैसला सुनाने वाला अदालत में वकील क्यों नहीं बन जाता? यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के बड़े राजनीतिज्ञों पर ओछी टिप्पणी करके सस्ती लोकप्रियता और टीआरपी बढ़ाने का  शर्मनाक तरीका अर्नब गोस्वामी  ने टीवी पत्रकारिता में स्थापित कर दिया है. आज जबकि उच्च मापदंडों को पत्रकारिता के क्षेत्र में स्थापित करने की आवश्यकता है तो ऐसा पत्रकार, पत्रकार ही बना रहे चाटुकार नहीं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर निजी टिप्पणी व बाद में निम्नस्तरीय बातें करना सामाजिक-राजनैतिक मर्यादा के प्रतिकूल है.अर्णब गोस्वामी जैसे पत्रकारों को तत्काल पत्रकार जगत से विदा करने की आवश्यकता है. बेहतर होता कि माननीय न्यायालय  कोई ऐसा फैसला सुनाती  जिसमें अर्नब जैसे लोगों पर न्यूज़ पढ़ने का प्रतिबंध लगता.

युवा कवि अंजन कुमार कहते हैं- किसी भी लोकतांत्रिक देश का मुख्य आधार उसकी जनता होती है. लोकतंत्र को बनाए और बचाए  रखने के लिए जनता को उसके के प्रति जागरूक और सचेत बनाये रखने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी मीडिया और उससे जुड़े पत्रकारों की होती है. लेकिन इधर पिछले कई वर्षों से हुए तमाम घटनाओं और उस पर मीडिया के नजरिए से ये साफ देखा जा रहा है कि मीडिया अपने  सामाजिक सरोकारों को भूलकर जनता के हित में कार्य करने की जगह झूठे खबरों और उत्तेजक बयानबाजी में लगी हुई है. जिसके कारण जनता ग़ुमराह होकर उन्मादी भीड़ में तब्दील होती जा रही है। झूठे और फर्जी खबरे इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि  आज पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया  है. अब लोगों का भरोसा पूरी तरह से मीडिया से उठ चुका है. उसकी निष्पक्षता अब बची नहीं रह गई. मीडिया की यह खराब स्थिति धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लोकतांत्रिक व्यवस्था लिए सबसे अधिक घातक है. जिसे बचाये रखने के लिए अर्नब गोस्वामी जैसे तमाम पत्रकारों पर अंकुश लगाने की बेहद जरूरत है. ताकि पत्रकार अपनी मर्यादा में रहकर संयमित और निष्पक्ष पत्रकारिता करे.

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